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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 3 : सूत्र 27

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    Vidyasagar.Guru

    आगे भरत आदि क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों की स्थिति वगैरह का वर्णन करते हैं-

     

    भरतैरावतयोवृद्धिह्यसौ

    षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम् ॥२७॥

     

     

    अर्थ - भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छह समयों के द्वारा मनुष्यों की आयु, शरीर की ऊँचाई, भोगोपभोग सम्पदा वगैरह घटती और बढ़ती रहती हैं। उत्सर्पिणी में दिनों-दिन बढ़ती हैं। और अवसर्पिणी में दिनों-दिन घटती हैं।

     

    English - Regeneration (Utsarpini) and degeneration (Avsarpini) aeon each has six distinct periods during which the humans in Bharata and Airavata regions experience the improvement and decline respectively in their age, body and the materials for their use.

     

    विशेषार्थ - सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा ये छह भेद अवसर्पिणी काल के हैं और दुषमादुषमा, दुषमा, दुषमा-सुषमा, सुषमा-दुषमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा ये छह भेद उत्सर्पिणी काल के हैं। अवसर्पिणी का प्रमाण दस कोटा-कोटी सागर है। इतना ही प्रमाण उत्सर्पिणी काल का है। इन दोनों कालों का एक कल्पकाल होता है। सुषमा-सुषमा का प्रमाण चार कोड़ा-कोड़ी सागर है। इसके प्रारम्भ में मनुष्यों की दशा उत्तरकुरु भोगभूमि के मनुष्यों के समान रहती है। फिर क्रम से हानि होते होते दूसरा सुषमा काल आता है। वह तीन कोड़ा-कोड़ी सागर तक रहता है। उसके प्रारम्भ में मनुष्यों की दशा हरिवर्ष भोगभूमि के समान रहती है। फिर क्रम से हानि होते होते तीसरा सुषमा-दुषमा काल आता है। ये काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर तक रहता है। इसके प्रारम्भ में मनुष्यों की दशा हैमवतक्षेत्र भोगभूमि के समान रहती है। फिर क्रम से हानि होते-होते चौथा दुषमा-सुषमा काल आता है। यह काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर तक रहता है। उसके प्रारम्भ में मनुष्यों की दशा विदेह क्षेत्र के मनुष्यों के समान रहती है। फिर क्रम से हानि होते-होते पाँचवाँ दुषमा काल आता है, जो इक्कीस हजार वर्ष तक रहता है, यह इस समय चल रहा है। इसके बाद छठा दुषमा-दुषमा काल आता है। यह भी इक्कीस हजार वर्ष रहता है। इस छठे काल के अन्त में भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में प्रलय काल आता है। इसमें वायु और वर्षा के वेग से पहाड़ तक चूरचूर हो जाते हैं। मनुष्य मर जाते हैं। बहुत से मनुष्य-युगल पर्वतों की कन्दराओं में छिपकर अपनी रक्षा कर लेते हैं। विष और आग की वर्षा से एक योजन नीचे तक भूमि चूर्ण हो जाती है। उसके बाद उत्सर्पिणी काल आता है। उसके आरम्भ में सात सप्ताह तक सुवृष्टि होती है। उससे पृथ्वी की गर्मी शान्त हो जाती है और लता वृक्ष वगैरह उगने लगते हैं। तब इधर-उधर छिपे हुए मनुष्य युगल अपने-अपने स्थानों से निकल कर पृथ्वी पर बसने लगते हैं। इस तरह उत्सर्पिणी का प्रथम अति दुषमा काल बीत जाने पर दूसरा दुषमा काल आ जाता है। इस काल के बीस हजार वर्ष बीतने पर जब एक हजार वर्ष शेष रहते हैं तो कुलकर पैदा होते हैं जो मनुष्यों को कुलाचार की तथा खाना पकाने वगैरह की शिक्षा देते हैं। इसके बाद तीसरा दुषमा-सुषमा काल आता है। इसमें तीर्थंकर वगैरह उत्पन्न होते हैं। इसके बाद उत्सर्पिणी के चौथे काल में जघन्य भोगभूमि, पाँचवें में मध्यम भोगभूमि और छठे में उत्कृष्ट भोगभूमि रहती है। उत्सर्पिणी काल समाप्त होने पर पुनः अवसर्पिणी काल प्रारम्भ हो जाता है। उसके प्रथम काल में उत्कृष्ट भोगभूमि, दूसरे में मध्यम भोगभूमि तथा तीसरे में जघन्य भोगभूमि रहती है। और चौथे से कर्मभूमि प्रारम्भ हो जाती है।


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