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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 2 : सूत्र 44

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    Vidyasagar.Guru

    आगे शरीरों के विषय में विशेष कथन करते हैं-

     

    निरुपभोगमन्त्यम् ॥४४॥

     


    अर्थ - अन्त का कार्मण शरीर उपभोग रहित है।

    English - The last (the karmic) is not the means of enjoyment.

     

    इन्द्रियों के द्वारा शब्द वगैरह के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं। इस प्रकार का उपभोग कार्मण शरीर में नहीं होता, इसलिए वह निरुपभोग है। आशय यह है कि विग्रहगति में कार्मण शरीर के द्वारा ही योग होता है, किन्तु उस समय लब्धि रूप भावेन्द्रिय ही होती है, द्रव्येन्द्रिय नहीं होती। इसलिए शब्द आदि विषयों का अनुभव विग्रहगति में न होने से कार्मण शरीर को निरुपभोग कहा है।

     

    शंका - तैजस शरीर भी तो निरुपभोग है, फिर उसे क्यों नहीं कहा ?

    समाधान - तैजस शरीर तो योग में भी निमित्त नहीं है। अर्थात जैसे अन्य शरीरों के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में कम्पन होता है, तैजस के निमित्त से तो वह भी नहीं होता। अतः वह तो निरुपभोग ही है, इसी से यहाँ उसका कथन नहीं किया; क्योंकि निरुपभोग और सोपभोग का विचार करते समय उन्हीं शरीरों का अधिकार है, जो योग में निमित्त होते हैं। ऐसे शरीर तैजस के सिवा चार ही हैं। उनमें भी केवल कार्मण शरीर निरुपभोग है, बाकी के तीन शरीर सोपभोग हैं क्योंकि उनमें इन्द्रियाँ होती हैं और उनके द्वारा जीव विषयों को भोगता है।


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