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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 1 : सूत्र 33

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    Vidyasagar.Guru

    इस तरह प्रमाण का कथन करके अब नय के भेद बतलाते हैं-

     

    नैगम-संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्र-शब्द-समभिरूढैवंभूता नयाः॥३३॥

     

     

    अर्थ - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय हैं।

     

    English - The figurative, the synthetic, the analytic, the straight, the verbalistic, the conventional and the specific are the standpoints.

     

    विशेषार्थ - इन सात नयों का स्वरूप इस प्रकार है - एक द्रव्य अपनी भूत, भविष्यत् और वर्तमान पर्यायों से जुदा नहीं है, बल्कि त्रिकालवर्ती पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है। अतः जो भूत और भविष्यत् पर्यायों में वर्तमान का संकल्प करता है या वर्तमान में जो पर्याय पूर्ण नहीं हुई, उसे पूर्ण मानता है; उस ज्ञान को तथा वचन को नैगमनय कहते हैं। जैसे एक मनुष्य कुल्हाड़ा लेकर वन की ओर जाता है। उसे देखकर कोई पूछता है। कि आप किसलिए वन जा रहे हैं ? तो वह उत्तर देता है - मैं इन्द्र लेने के लिए जा रहा हूँ। किन्तु वास्तव में वह लकड़ी लेने जा रहा है; परन्तु उसका संकल्प उस लकड़ी से इन्द्र की प्रतिमा बनाने का है। अतः वह अपने संकल्प में ही इन्द्र का व्यवहार करता है। इसी तरह एक आदमी लकड़ी पानी वगैरह रख रहा है। उससे कोई पूछता है - आप क्या कर रहे हैं ? तो वह उत्तर देता है - मैं भात पका रहा हूँ। किन्तु उस समय वह भात पकाने की तैयारी कर रहा है। पर चूँकि उसका संकल्प भात पकाने का है, अतः जो पर्याय अभी निष्पन्न नहीं हुई है, उसे वह निष्पन्न मानकर व्यवहार करता है। यह नैगमनय है॥१॥

     

    अपनी-अपनी जाति के अनुसार वस्तुओं का या उनकी पर्यायों का एकरूप से संग्रह करने वाले ज्ञान को और वचन को संग्रह नय कहते हैं। जैसे-'द्रव्य' कहने से सब द्रव्यों का ग्रहण होता है, ‘जीव' कहने से सब जीवों का ग्रहण होता है। ‘पुद्गल' कहने से सब पुद्गलों का ग्रहण होता है॥२॥

     

    संग्रह नय से ग्रहण किये हुए पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहार नय है। जैसे द्रव्य' कहने से काम नहीं चल सकता। अतः व्यवहार नय की आवश्यकता होती है। व्यवहार से द्रव्य के दो भेद हैं जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य। जीव और अजीव कहने से भी काम नहीं चलता। अतः जीव के दो भेद हैं - संसारी और मुक्त। संसारी के भी देव, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि भेद हैं। अजीव के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये पाँच भेद हैं। पुद्गल के दो भेद हैं - अणु और स्कन्ध। इस प्रकार व्यवहार नय तब तक भेद करता जाता है, जब तक भेद हो सकते हैं॥३॥

     

    भूत और भावि पर्यायों को छोड़कर जो वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करता है, उस ज्ञान और वचन को ऋजुसूत्र नय कहते हैं। वस्तु हर समय परिणमन करती रहती है। इसलिए वास्तव में तो एक पर्याय एक समय तक ही रहती है। उस एक समयवर्ती पर्याय को अर्थ पर्याय कहते हैं। वह अर्थ पर्याय ऋजुसूत्र नय का विषय है। किन्तु व्यवहार में एक स्थूल पर्याय जब तक रहती है, तब तक लोग उसे वर्तमान पर्याय कहते हैं। जैसे मनुष्य पर्याय अपनी आयुपर्यन्त रहती है। ऐसी स्थूल पर्याय को ग्रहण करने वाला ज्ञान और वचन स्थूल ऋजुसूत्र नय कहा जाता है॥४॥

     

    लिंग, संख्या, साधन आदि के व्यभिचार दोष को दूर करने वाले ज्ञान और वचन को शब्दनय कहते हैं। भिन्न-भिन्न लिंग वाले शब्दों का एक ही वाच्य मानना लिंग व्यभिचार है। जैसे - तारका और स्वाति का, अवगम और विद्या का, वीणा और वाद्य का एक ही वाच्य मानना। विभिन्न वचनों में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का एक ही वाच्य मानना वचन व्यभिचार है। जैसे - आपः और जल का तथा दाराः और स्त्री का एक ही वाच्य मानना। इसी तरह मध्यम पुरुष का कथन उत्तम पुरुष की क्रिया के द्वारा करना पुरुष व्यभिचार है। "होने वाला काम हो गया" ऐसा कहना काल व्यभिचार है, क्योंकि “हो गया'' तो भूतकाल को कहता है और "होने वाला" आगामी काल को कहता है। इस तरह का व्यभिचार शब्द नय की दृष्टि में उचित नहीं है। जैसा शब्द कहता है, वैसा ही अर्थ में भेद मानना इस नय का विषय है। अर्थात् यह नय शब्द में लिंगभेद, वचनभेद, कारकभेद, पुरुषभेद और कालभेद वगैरह के होने से उसके अर्थ में भेद का होना मानता है॥५॥

     

    लिंग आदि का भेद न होने पर भी शब्दभेद से अर्थ का भेद मानने वाला समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये तीनों शब्द स्वर्ग के स्वामी इन्द्र के वाचक हैं और एक ही लिंग के हैं। किन्तु ये तीनों शब्द उस इन्द्र के भिन्नभिन्न धर्मों को कहते हैं, ऐसा इस नय का मन्तव्य है। वह आनन्द करता है इसलिए इन्द्र कहा जाता है, शक्तिशाली होने से शक्र और नगरों को उजाड़ने वाला होने से पुरन्दर कहा जाता है। इस तरह जो नय शब्दभेद से अर्थभेद मानता है, वह समभिरूढ़नय है॥६॥

     

    जिस शब्द का जिस क्रियारूप अर्थ हो, उस क्रियारूप परिणमन में पदार्थ को ग्रहण करने वाला वचन और ज्ञान एवंभूत नय है। जैसे - इन्द्र शब्द का अर्थ आनन्द करना है। अतः स्वर्ग का स्वामी जिस समय आनन्दोपभोग करता हो, उसी काल में उसे इन्द्र कहना, जब पूजन करता हो तो इन्द्र नहीं कहना, एवंभूत नय है॥७॥

     

    इस तरह यह सात नयों का स्वरूप है। इनका विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म-सूक्ष्म होता जाता है। संक्षेप में नय के दो भेद हैं - द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। जो द्रव्य की मुख्यता से वस्तु को विषय करता है, वह द्रव्यार्थिक नय है, नैगम, संग्रह और व्यवहार ये द्रव्यार्थिक नय हैं और शेष चार पर्यायार्थिक नय हैं। विस्तार से तो नय के बहुत भेद हैं - क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म पाये जाते हैं। और एक एक धर्म को एक एक नय विषय करता है। किन्तु यदि कोई एक नय को ही पकड़ कर बैठ जाये और उसी को सत्य समझ ले तो वह दुर्नय कहलायेगा। आवश्यकतानुसार एक को मुख्य और शेष को गौण करते हुए सब नयों की सापेक्षता से ही वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जा सकता है॥३३॥

     

    ॥ इति तत्त्वार्थसूत्रे प्रथमोऽध्यायः॥


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