प्राणीमात्र के कल्याण की भावना एवं सोलहकारण भावना भाने से संसार अवस्था में सर्वोच्च पद तीर्थंकर का प्राप्त होता है। उनके पाँच कल्याणक होते हैं। किस कल्याणक में क्या - क्या होता है, इसका वर्णन इस अध्याय में है।
1. कल्याणक किसे कहते हैं?
तीथङ्करों के गर्भ, जन्म, तप (दीक्षा), ज्ञान एवं निर्वाण के समय इन्द्रों, देवों एवं मनुष्यों के द्वारा विशेष रूप से जो उत्सव मनाया जाता है, उसे कल्याणक कहते हैं।
2. पाँच कल्याणक कौन-कौन से होते हैं ?
गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, तपकल्याणक (दीक्षाकल्याणक), ज्ञानकल्याणक एवं मोक्षकल्याणक |
3. गर्भ कल्याणक किसे कहते हैं?
सौधर्म इन्द्र अपने दिव्य अवधिज्ञान से तीर्थंकर के गर्भावतरण को निकट जानकर कुबेर को तीर्थंकर के माता - पिता के लिए नगरी का निर्माण करने एवं घर के ऑगन में प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ की संख्या का परिमाण लिए हुए धन की धारा (रत्नों की वर्षा) करने की आज्ञा प्रदान करता है। इस प्रकार रत्नों की वर्षा गर्भ में आने से 6 माह पूर्व से जन्म होने तक अर्थात् लगभग 15 माह तक निरन्तर होती है। तीर्थंकर की माता गर्भ धारण के पूर्व रात्रि के अन्तिम पहर में अत्यन्त सुहावने, मनभावन और आह्वादकारी क्रमश: 16 स्वप्नों को देखती है, ये स्वप्न तीर्थंकर के गर्भावतरण के सूचक होते हैं। जैसे ही तीर्थंकर का गर्भावतरण होता है, स्वर्ग से सौधर्म इन्द्र सहित अनेक देव उस नगर की तीन परिक्रमा कर माता - पिता को नमस्कार करते हैं। गर्भ स्थित तीर्थंकर की स्तुति कर महान् उत्सव मनाते हैं। गर्भकल्याणक का उत्सव पूर्ण कर सौधर्म इन्द्र श्री आदि देवकुमारियों को जिन माता के गर्भ शोधन के लिए नियुक्त करता है। ये देवकुमारियाँ जिनमाता की सेवा करती हैं एवं माता का मन धर्मचर्चा में लगाए रखती हैं और सौधर्म इन्द्रदेवों सहित अपने स्थान को वापस चला जाता है।
4. जन्मकल्याणक किसे कहते हैं ?
गर्भावधिपूर्ण होते ही जिनमाता तीर्थंकर बालक को जन्म देती है। जन्म होते ही तीनों लोक में आनन्द और सुख का प्रसार होता है। यहाँ तक कि जहाँ चौबीसों घटमार-काट चल रही है, वहाँ नरकों में भी नारकी जीवों को एक क्षण के लिए अपूर्वसुख की प्राप्ति होती है एवं स्वर्ग के इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं तथा कल्पवासी, लगते हैं। इन सब कारणों से इन्द्रों एवं देवों को तीर्थंकर के जन्म का निश्चय हो जाता है और तत्काल ही वे अपने आसन से नीचे उतर कर सात कदम आगे चलकर परोक्षरूप से तीर्थंकर (बालक) को नमस्कार कर उनकी स्तुति करते हैं। तदनन्तर सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से सात प्रकार की देव सेना जय-जय करती हुई जन्म नगरी की (1.हरिवंशपुराण, 37/2,3/471) ओर गमन करती है। सौधर्म इन्द्र भी अपनी इन्द्राणी के साथ ऐरावत हाथी पर सवार होकर जन्म नगरी को गमन करते हैं। सौधर्म इन्द्र के साथ सारे देवगण जन्म नगरी की तीन प्रदक्षिणा देते हैं। तदनन्तर शची प्रसूतिगृह में प्रच्छन्न रूप से पहुँचकर जिन माता की तीन प्रदक्षिणा देकर, जिनमाता को मायामयी निद्रा से निद्रित कर, अत्यन्तहर्षऔर उल्लास के साथ जिन बालक की छवि को निहारती हुई बालक को लाकर सौधर्म इन्द्रको सौंप देती है एवं वहाँ एक मायामयी बालक को सुला देती है। सौधर्म इन्द्र तीर्थंकर बालक का दर्शन कर भावविभोर हो जाता है एवं 1000 नेत्र बनाकर तीर्थंकर बालक का रूप देखता है। तत्पश्चात् ऐरा वत हाथी पर आरूढ़ होकर जिन बालक को अपनी गोद में बिठाकर सुमेरु पर्वत पर जाकर पाण्डुकशिला पर क्षीरसागर के जल से तीर्थंकर बालक का 1008 कलशों से अभिषेक करता है, शचीबालक को वस्त्राभूषणों से सुशोभित करती है। पश्चात् इन्द्र बालक के दाहिने पैर के अंगूठे पर जो चिह्न देखता है वही चिह्न उन तीर्थंकर का घोषित कर तीर्थंकर का नामकरण करता है। तत्पश्चात् सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी पर बालक को विराजमान कर वापस जन्म नगरी को आता है। इन्द्राणी, माता के पास जाकर मायामयी बालक को उठा लेती है और माता की मायामयी निद्रा को दूर कर जिन बालक को माता के पास रखती है। जिनमाता अत्यन्त प्रसन्न होकर बालक का दर्शन करती है। इन्द्र एवं देवगण तीर्थंकर के माता-पिता का विशेष सत्कार कर वापस अपने इन्द्रलोक आ जाते हैं।
5. तपकल्याणक किसे कहते हैं ?
जन्मकल्याणक के बाद तीर्थंकर का बाल्यकाल व्यतीत होता है एवं युवा होने पर राज्यपद को स्वीकार करते हैं। (वर्तमान चौबीसी में 5 तीर्थंकरों राज्यपद स्वीकार नहीं किया) किसी निमित से उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो जाता है तब उसी समय ब्रह्मस्वर्ग से लोकान्तिक देव आकर तीर्थंकर के वैराग्य की प्रशंसा करते हुए स्तुति करते हैं। तत्पश्चात् सौधर्म इन्द्र क्षीर सागर के जल से वैरागी तीर्थंकर का अभिषेक करता है, जिसे दीक्षाभिषेक कहते हैं। तत्पश्चात् कुबेर द्वारा लायी गई पालकी में तीर्थंकर स्वयं बैठ जाते हैं, उस पालकी को मनुष्य एवं विद्याधर 7-7 कदम तक ले जाते हैं, इसके बाद देवतागण उस पालकी को आकाश मार्ग से दीक्षावन तक ले जाते हैं। वहाँ देवों द्वारा रखी हुई चन्द्रकान्तमणि की शिला पर विराजमान हो पद्मासन मुद्रा में पूर्वाभिमुख होकर सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करके पञ्चमुष्ठी केशलोंच करके वस्त्राभूषण का त्यागकर जिनमुद्रा को धारण करते हुए समस्त पापों को त्याग कर महाव्रतों का संकल्प करते हैं। सौधर्म इन्द्र केशों (बालों) को रत्न के पिटारे में रखकर क्षीरसागर में विसर्जित करता है। दीक्षोपरांत तीर्थंकर (मुनि) की विशेष पूजा-भक्ति कर देवगण अपनेअपने स्थान को चले जाते हैं। (प.पु.3/263-265)
6. ज्ञानकल्याणक किसे कहते हैं ?
तीर्थंकर (मुनि) दीक्षा लेने के बाद मौन होकर घोर तपस्या करते हुए धम्र्यध्यान को बढ़ाते हुए क्षपक श्रेणी चढ़ते हुए, 10वें गुणस्थान के अन्त में मोहनीयकर्म का पूर्ण क्षय करते हुए 12 वें गुणस्थान के अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्म का क्षय होते ही केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। जिससे जगत् के समस्त चराचर द्रव्यों को और उनकी अनन्त पर्यायों को युगपत्जानने लगते हैं। केवलज्ञान उत्पन्न होते ही देव अपनेअपने यहाँ प्रकट होने वाले चिहों से एवं सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान होने से अवधिज्ञान से जान लेते हैं कि तीर्थंकर (मुनि) को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है, अतः इन्द्र एवं देव अपने स्थान से उठकर सात कदम आगे बढ़कर तीर्थंकर को नमस्कार करते हैं। सौधर्म इन्द्र सभी देवों के साथ तीर्थंकर के दर्शन-पूजन करने आते हैं एवं सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है। जिसमें तीर्थंकर विराजमान होते हैं, इन्द्र, देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च तीर्थंकर के दर्शन-पूजन करते एवं धर्मोपदेश सुनते हैं।
7. तीर्थंकरों देशना दिन में कितने बार होती है एवं कितने समय तक होती है?
तीर्थंकरों की देशना दिन में चार बार होती है-प्रात:, मध्याह्न, सायंकाल एवं मध्यरात्रि में तथा चक्रवर्ती आदि विशेष पुरुष के आने से अकाल में भी देशना हो जाती है। एक बार में 3 मुहूर्त अर्थात् 2 घंटा 24 मिनट तक देशना होती है, जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं। (गो.जी.जी. 356)
8. मोक्षकल्याणक किसे कहते हैं?
तीर्थंकर का जब मोक्ष का समय निकट आ जाता हैं, तब वे समवसरण को छोड़कर जहाँ से निर्वाण (मोक्ष) होना है, वहाँ जाकर योग निरोध कर 14 वें गुणस्थान में आते ही पाँच हृस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ,लू) के उच्चारण में जितना समय लगता है उसके अन्त में ही चार अघातिया कर्मो का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। उसी समय इन्द्र एवं देव तीर्थंकर की निर्वाण भूमि में आते हैं और तीर्थंकर के परम पवित्र शरीर को रत्नमयी पालकी में विराजमान कर नमस्कार करते हैं। तदनन्तर अग्निकुमार देव अपने मुकुट से उत्पन्न अग्नि के द्वारा तीर्थंकर के शरीर का अन्तिम संस्कार करते हैं। पश्चात् उस भस्म को मस्तक पर लगाकर उन जैसा बनने की भावना भाते हैं। फिर समस्त इन्द्र मिलकर आनन्द नाटक करते हैं। इस प्रकार सभी देव विधिपूर्वक तीर्थंकर के निर्वाणकल्याणक की पूजन कर एवं उस स्थान पर वज़सूची से चरण चिह्न बनाकर अपने-अपने स्थान वापस चले जाते हैं। (म.पु.47/343-354)
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