Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 2 - जैनधर्म की प्राचीनता

       (2 reviews)

    अनादिकाल से अनन्तकाल तक विद्यमान रहने वाला जैन धर्म है। पुरातत्व एवं वैष्णव धर्म के अनुसार इसकी प्राचीनता किस प्रकार सिद्ध होती है इसका वर्णन इस अध्याय में है।

     

    1. जैन धर्म कब और किसके द्वारा स्थापित किया गया है? 
    जैन धर्म अनादिनिधन है अर्थात् यह अनादिकाल से है एवं अनन्तकाल तक रहेगा। इसके संस्थापक तीर्थंकर ऋषभदेव, तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं तीर्थंकर महावीर भी नहीं हैं। इतना अवश्य है कि समय-समय पर तीर्थंकरों माध्यम से इसका प्रवर्तन होता रहता है एवं उन्हीं के माध्यम से यह धर्म आगे बढ़ता जाता है। जैसे-भारत का संविधान नहीं बदलता है। मात्र सरकार बदलती रहती है। उसी प्रकार जैनधर्म का सिद्धांत (संविधान) नहीं बदलता, मात्र सरकार (तीर्थंकर) बदलती रहती है। किन्तु जन सामान्य की धारणा से कोई इसे बौद्धधर्म की शाखा या बौद्धधर्म से उत्पत्ति मानते हैं कोई हिन्दूधर्म की शाखा मानते हैं। जबकि ऐसा नहीं है।

     

    2. पुरातत्व विभाग के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार सिद्ध होती है? 
    पुरातत्व की दृष्टि से जैनधर्म की प्राचीनता इस प्रकार से सिद्ध होती है। प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. राखलदास बनर्जी ने सिन्धुघाटी की सभ्यता का अन्वेषण किया है। यहाँ के उत्खनन में उपलब्ध सील (मोहर) नं. 449 में कुछ लिखा हुआ है। इस लेख को प्रो. प्राणनाथ विद्यालंकार ने जिनेश्वर (जिन-इ-इ-इसर:) पढ़ा है। पुरातत्वज्ञ रायबहादुर चन्द्रा का वक्तव्य है कि सिन्धुघाटी की मोहरों में एक मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसमें मथुरा की तीर्थंकर ऋषभदेव की खड्गासन मूर्ति के समान त्याग और वैराग्य के भाव दृष्टिगोचर होते हैं। सील क्र. द्वितीय एफ.जी.एच. में जो मूर्ति उत्कीर्ण है, उसमें वैराग्य मुद्रा तो स्पष्ट है ही, उसके नीचे के भाग में तीर्थंकर ऋषभदेव का चिह्न बैल का सद्भाव भी है। इन्हीं सब आधारों पर अनेक विद्वानों ने जैनधर्म को सिन्धुघाटी की सभ्यता के काल का माना है। सिन्धु घाटी की सभ्यता आज से 5000 वर्ष पुरानी स्वीकार की गई है।
    हड़प्पा से प्राप्त नग्न मानव धड़ भी सिन्धु घाटी सभ्यता में जैन तीर्थंकरों के अस्तित्व को सूचित करता है। केन्द्रीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक टी.एन. रामचन्द्रन् ने उस पर गहन अध्ययन करते हुए लिखा है— हड़प्पा की खोज में कायोत्सर्ग मुद्रा में उत्कीर्णित मूर्ति पूर्ण रूप से दिगम्बर जैन मूर्ति है। मथुरा का कंकाली टीला जैन पुरातत्व की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है। वहाँ की खुदाई से अत्यन्त प्राचीनदेव निर्मित स्तूप (जिसके निर्माण काल का पता नहीं है) के अतिरित एक सौ दस शिलालेख एवं सैकड़ों प्रतिमाएँ मिली हैं जो ईसा पूर्व दूसरी सदी से बारहवीं सदी तक की हैं। 
    पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार उत्त स्तूप का ई.पू. आठ सौ वर्ष में पुनर्निर्माण हुआ था। डॉ. विन्सेन्ट ए. स्मिथ के अनुसार मथुरा सम्बन्धी अन्वेषणों से यह सिद्ध होता है कि जैनधर्म के तीर्थंकरों का अस्तित्व ईसा सन् से बहुत पूर्व से विद्यमान था। तीर्थंकर ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता प्राचीनकाल से प्रचलित थी। सम्राट खारवेल द्वारा उत्कीर्णित हाथी गुफा के शिलालेख से यह सिद्ध होता है- ऋषभदेव की प्रतिमा की स्थापना, पूजा का प्रचलन सर्व प्राचीन है। 

     

    3. वैष्णव धर्म के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार से सिद्ध होती है? 
    वैष्णव धर्म के विभिन्न शास्त्रों एवं पुराणों के अन्वेषण से ज्ञात होता है कि जैनधर्म की प्राचीनता कितनी अधिक है- जिसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं

    1. शिवपुराण में लिखा है - 

    अष्टषष्ठिसु तीर्थषु यात्रायां यत्फलं भवेत्।
    श्री आदिनाथ देवस्य स्मरणेनापि तदभवेत्॥
     

    अर्थ - अड़सठ (68) तीर्थों की यात्रा करने का जो फल होता है, उतना फल मात्र तीर्थंकर आदिनाथ के स्मरण करने से होता है।

    2. महाभारत में कहा है -

    युगे युगे महापुण्यं द्श्यते द्वारिका पुरी,
    अवतीर्णो हरिर्यत्र प्रभासशशि भूषणः ।
    रेवताद्री जिनो नेमिर्युगादि विंमलाचले, 
    ऋषीणामा श्रमादेव मुक्ति मार्गस्य कारणम् ॥ 

    अर्थ-युग-युग में द्वारिकापुरी महाक्षेत्र है, जिसमें हरिका अवतार हुआ है। जो प्रभास क्षेत्र में चन्द्रमा की तरह शोभित है और गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ और कैलास (अष्टापद) पर्वत पर आदिनाथ हुए हैं। यह क्षेत्र ऋषियों का आश्रय होने से मुक्तिमार्ग का कारण है।

    3. महाभारत में कहा है - 

    आरोहस्व रथं पार्थ गांढीवं करे कुरु।
    निर्जिता मेदिनी मन्ये निर्ग्र्था यदि सन्मुखे ||

    अर्थ-हे अर्जुन! रथ पर सवार हो और गांडीव धनुष हाथ में ले, मैं जानता हूँ कि जिसके सन्मुख दिगम्बर मुनि आ रहे हैं उसकी जीत निश्चित है। 

    4. ऋग्वेद में कहा है - 

    ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितानां चतुर्विशति तीर्थंकराणाम् ।
    ऋषभादिवर्द्धमानान्तानां सिद्धानां शरणं प्रपद्ये । 

    अर्थ-तीन लोक में प्रतिष्ठित आदि श्री ऋषभदेव से लेकर श्री वर्द्धमान स्वामी तक चौबीस तीर्थंकर हैं। उन सिद्धों की शरण को प्राप्त होता हूँ।

    5. ऋग्वेद में कहा है - 

    ॐ नग्नं सुधीरं दिग्वाससं। ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं।
     पुरुषमर्हतमादित्य वर्णं तसमः पुरस्तात् स्वाहा ||

    अर्थ- मैं नग्न धीर वीर दिगम्बर ब्रह्मरूप सनातन अहत आदित्यवर्ण पुरुष की शरण को प्राप्त होता हूँ। 

    6. यजुर्वेद में कहा है - 

    ॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो । 

    अर्थ-अर्हन्त नाम वाले पूज्य ऋषभदेव को प्रणाम हो। 

    7. दक्षिणामूर्ति सहस्रनाम ग्रन्थ में लिखा है - 

    शिव उवाच । 
     जैन मार्गरतो जैनो जितक्रोधो जितामय:।
     

    अर्थ- शिवजी बोले, जैन मार्ग में रति करने वाला जैनी क्रोध को जीतने वाला और रोगों को जीतने वाला है।

    8. नगर पुराण में कहा है -

    दशभिभोंजितैर्विप्रै: यत्फल जायते कृते ।
    मुनेरहत्सुभक्तस्य तत्फल जायते कलौ।

    अर्थ- सतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन देने से जो फल होता है। उतना ही फल कलियुग में अहन्त भक्त एक मुनि को भोजन देने से होता है। 

    9. भागवत के पाँचवें स्कन्ध के अध्याय 2 से 6 तक ऋषभदेव का कथन है। जिसका भावार्थ यह है कि चौदह मनुओं में से पहले मनु स्वयंभू के पौत्र नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुए, जो दिगम्बर जैनधर्म के आदि प्रचारक थे। ऋग्वेद में भगवान् ऋषभदेव का 141 ऋचाओं में स्तुति परक वर्णन किया है। ऐसे अनेक ग्रन्थों में अनेक दृष्टान्त हैं।

     

    4. विद्वानों के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता किस प्रकार सिद्ध होती है?

    1. जर्मन विद्वान् डॉक्टर जैकोबी इसी मत से सहमत हैं कि ऋषभदेव का समय अब से असंख्यात वर्ष पूर्व का है। 
    2. श्री हरिसत्यभट्टाचार्य की लिखी—"भगवान् अरिष्टनेमि नामक" अंग्रेजी पुस्तक में तीर्थंकर नेमिनाथको ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार किया गया है। 
    3. डॉ. विन्सेन्ट एस्मिथ के अनुसार मथुरा सम्बन्धी खोज ने जैन परम्पराओं को बहुत बड़ी मात्रा में समर्थन प्रदान किया है। जो जैनधर्म की प्राचीनता और उसकी सार्वभौमिकता के अकाट्य प्रमाण हैं। मथुरा के जैन स्तूप तथा 24 तीर्थंकरों चिह्न सहित मूर्तियों की प्राप्ति ईसवी सन् के प्रारम्भ में भी जैनधर्म था यह सिद्ध करती है। 
    4. मद्रास के प्रोफेसर चक्रवर्तीने 'वैदिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन' पुस्तक में यह प्रमाणित किया है कि 'जैनधर्म उतना ही प्राचीन है जितना कि हिन्दू धर्म प्राचीन है। 
    5. डॉ. राधाकृष्णन् ने इंडियन फिलासफी पृ.287 में स्पष्ट लिखा है कि ईसा पूर्वप्रथम शताब्दी तक लोग तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा किया करते थे। 
    6. 30 नवम्बर 1904 को बड़ौदा में श्री लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने व्याख्यान दिया था कि ब्राह्मण धर्म पर जैनधर्म ने अपनी अक्षुण्ण छाप छोड़ी है। अहिंसा का सिद्धान्त जैनधर्म में प्रारम्भ से है। आज ब्राह्मण और सभी हिन्दू लोग माँस भक्षण तथा मदिरापान में जो प्रतिबन्ध लगा रहे हैं, वह जैनधर्म की ही देन और जैनधर्म का ही प्रताप है। यह दया, करुणा और अहिंसा का ऐसा प्रचार-प्रसार करने वाला जैनधर्म चिरकाल तक स्थायी रहेगा। 
    7. डॉ.कालिदास नाग ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ एशिया' में जो नग्न मूर्ति का चित्र प्रकाशित किया था वह दस हजार वर्ष पुराना है। उसे डॉक्टर साहब ने जैन मूर्ति के अनुरूप माना है। 
    8. श्री चित्संग ने ‘उपाय हृदय शास्त्र' में भगवान् ऋषभदेव के सिद्धान्तों का विवेचन चीनी भाषा में किया है। चीनी भाषा के विद्वानों को भगवान् ऋषभदेव के व्यक्तित्व और धर्म ने बहुत प्रभावित किया है। 
    9. इटली के प्रो. ज्योसेफ टक्सी को एक तीर्थंकर की मूर्ति तिब्बत में मिली थी, जिसे वह रोम ले गए थे। इस से स्पष्ट होता है कि कभी तिब्बत में भी जैनधर्म प्रचलित था।
    10. यूनानी लेखकों के कथन से यह सिद्ध होता है कि पायथागोरस डायजिनेश जैसे यूनानी तत्ववेत्ताओं ने भारत में आकर 'जैन श्रमणों' से शिक्षा, दीक्षा (नियम) ग्रहण की थी। यूनानी बादशाह सिकन्दर के साथ धर्म प्रचार के लिए कल्याण मुनि उनके देश में गए थे। 
    11. जापान के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता प्रो.हाजिमे नाकामुरा लिखते हैं कि बौद्ध धार्मिक ग्रन्थों के चीनी भाषा में जो रूपांतरित संस्करण उपलब्ध हैं, उनमें यत्र-तत्र जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के विषय में उल्लेख मिलते हैं, तीर्थंकर ऋषभदेव के व्यतित्व से जापानी भी अपरिचित नहीं है। जापानी तीर्थंकर ऋषभदेव को 'राकूशव' कहकर पहचानते हैं। 

     

    5. जैनधर्म के बारे में बौद्धधर्म के ग्रन्थों में क्या लिखा है? 

    'बौद्ध महावग्ग में लिखा है'- वैशाली में सड़क सड़क पर बड़ी संख्या में दिगम्बर साधु प्रवचन दे रहे थे। 'अगुत्तर निकाय में लिखा है'- नाथपुत्र (तीर्थंकर महावीर) सर्वदृष्टा, अनन्तज्ञानी तथा प्रत्येक क्षण पूर्ण सजग एवं सर्वज्ञ रूप से स्थित थे। 'मंजूश्रीकल्प" में तीर्थंकर ऋषभदेव को निग्रन्थ तीर्थंकर व आप्त देव कहा है। 'न्यायबिन्दु' में तीर्थंकर महावीर को सर्वज्ञ अर्थात् केवलज्ञानी आप्त तीर्थंकर कहा है। "मज्झिमनिकाय"  में लिखा है - तीर्थंकर महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सम्पूर्ण ज्ञान व दर्शन के ज्ञाता थे। 'दीर्घ निकाय' में लिखा है - भगवान् महावीर तीर्थंकर हैं, मनुष्यों द्वारा पूज्य हैं, गणधराचार्य हैं। 

     

    6. वैष्णव धर्म के अनुसार विष्णु के 22 अवतारों में ऋषभावतार कौन-सा है? 
    आठवाँ अवतार है।

    Edited by admin


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    subodh  patni

       11 of 11 members found this review helpful 11 / 11 members

     जय जिनेंद्र बहुत ही शिक्षाप्रद एवं प्राचीन जानकारी उपलब्ध कराई गई है उसके लिए बहुत-बहुत साधुवाद

    • Like 1
    Link to review
    Share on other sites

    Rajat.Jain

      

    बहुत ही अच्छी वेबसाइट है, आपके द्वारा जो जैन धर्म की प्रभावना हेतु आपको बहुत बहुत साधुवाद।🙏🏻🙏🏻🙏🏻

    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...