क्षीणकाया में अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी यथानाम तथा गुण के धारी गुरुणाम गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी का जीवन परिचय एवं चारित्र विकास का वर्णन इस अध्याय में है।
1. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज कौन थे ?
आचार्य श्री शान्तिसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी, आचार्य श्री वीरसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री शिवसागरजी, आचार्य श्री शिवसागर जी के प्रथम शिष्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी थे।
2. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का सामान्य परिचय क्या है ?
आपका पूर्वनाम - भूरामलजी
अपरं नाम - शान्तिकुमार
माता - श्री मती धृतवरी देवी
पिता - श्री चतुर्भुज छाबड़ा
दादी - श्री मती गट्टूदेवी
दादा - सुखदेवजी
भाई - आप कुल 5 भाई थे -
जन्म - विक्रम संवत् 1948 सन् 1891 में स्थान - राणोली, जिला-सीकर (राजस्थान) पिता की मृत्यु - सन् 1902 में शिक्षा - प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के विद्यालय में एवं शास्त्री स्तर की शिक्षा स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस में हुई थी।
3. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का प्रारम्भिक जीवन कैसा रहा था ?
कहा जाता है कि सरस्वती एवं लक्ष्मी साथ-साथ नहीं रहती है, यह कहावत आचार्य श्री ज्ञानसागर जी पर पूर्णतः घटित हुई थी। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के प्राथमिक विद्यालय में हुई। साधनों के अभाव में आप आगे अध्ययनन कर अपने अग्रज के साथ नौकरी हेतुगया (बिहार) आ गए। वहाँ एक सेठ के यहाँ आजीविका हेतु कार्य करने लगे, किन्तु आपका मन आगे अध्ययन करने का था। संयोगवश स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस के छात्र किसी समारोह में भाग लेने हेतु गया में आए। उनके प्रभावपूर्ण कार्यक्रमों को देखकर भूरामलजी के भाव अध्ययन हेतु वाराणसी जाने के हुए। आपकी तीव्र इच्छा देख आपके अग्रज ने जाने की अनुमति दे दी। पढ़ाई के खर्च एवं भोजन के खर्च के लिए आपगङ्गा के घाट पर गमछा बेचते थे। उससे प्राप्त आय से खर्च की पूर्ति करते थे। बाद में किसी ने कहा आपको खर्च महाविद्यालय से मिल जाएगा, किन्तु स्वावलम्बी जीवन जीने वाले भूरामल जी ने मना कर दिया। वाराणसी से शास्त्री की परीक्षा पास कर आपने व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त एवं अध्यात्म विषयों के अनेक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। बनारस से लौटकर आपने साहित्य साधना, लेखन, मनन करके अनेक ग्रन्थों की रचना संस्कृत तथा हिन्दी में की। वर्तमान शताब्दी में संस्कृत भाषा के महाकाव्यों की रचना को जीवित रखने वाले मूर्धन्य विद्वानों में आपका नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। काशी के दिग्गज विद्वानों ने प्रतिक्रिया की थी, ‘इस काल में भी कालीदास और माघ कवि की टक्कर लेने वाले विद्वान् हैं, यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता होती है।” इस प्रकार जिनवाणी की सेवा में 50 वर्ष पूर्ण किए। किन्तु ‘ज्ञानं भारं क्रिया बिना” क्रिया के बिना ज्ञान भार स्वरूप है - इस मन्त्र को जीवन में उतारने हेतु आप त्याग मार्ग पर प्रवृत्त हुए।
4. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी का चारित्र पथ किस प्रकार था ?
- ब्रह्मचर्य प्रतिमा - व्रत रूप में सन् 1947, वि.सं.2004 में
- क्षुल्लक दीक्षा - 25 अप्रैल, सन् 1955 में वि.सं.2012 में अक्षय तृतीया के दिन, मन्सूरपुर, मुजफ्फरनगर, (उत्तर प्रदेश) के पाश्र्वनाथ जिनालय में स्वयं ली थी।
- एलक दीक्षा - सन् 1957 में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से
- मुनि दीक्षा - आषाढ़ कृष्ण द्वितीया 22 जून, सन् 1959, सोमवार
- दीक्षागुरु - आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज
- आचार्य पद कब मिला - 7 फरवरी, सन् 1969, शुक्रवार फाल्गुन कृष्ण पञ्चमी, वि.सं. 2025 को नसीराबाद (राज.) में समाज ने दिया। इस दिन एक साधक को मुनि दीक्षा दी थी। नाम मुनि श्री विवेकसागर जी रखा था।
- आचार्य पद त्यागना एवं - 22 नवम्बर सन् 1972, मगसिर कृष्ण द्वितीया वि.सं. सल्लेखना व्रत ग्रहण 2029 को अपने प्रथम शिष्यमुनि श्री विद्यासागर जी को नसीराबाद में आचार्य पद दिया एवं सल्लेखना के लिए निवेदन किया।
- समाधिस्थ - ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, 1 जून 1973, शुक्रवार वि.सं. 2030 में स्थान नसीराबाद (राज.)
- समाधिस्थ समय प्रात: 10 बजकर 50 मिनट पर।
- सल्लेखना काल - 6 माह 13 दिन (तिथि के अनुसार)
- सल्लेखनाकाल - 6 माह 10 दिन (दिनाक अनुसार)
5. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने क्या-क्या साहित्य लिखा है ?
संस्कृत भाषा में महाकाव्य - दयोदय, जयोदय और वीरोदय। चरित्रकाव्य – सुदर्शनोदय, भद्रोदय और मुनि मनोरंजनाशीति। जैन सिद्धान्त - सम्यक्त्वसारशतकम्। धर्मशास्त्र प्रवचनसार प्रतिरूपक। हिन्दी भाषा में चरित्रकाव्य- ऋषभावतार, भाग्योदय, विवेकोदय और गुण सुन्दर वृतान्त। धर्मशास्त्र कर्तव्यपथप्रदर्शन, सचित्तविवेचन, सचित्तविचार, तत्त्वार्थसूत्र टीका और मानवधर्म।। पद्यानुवाद – देवागमस्तोत्र, नियमसार और अष्टपाहुड। अन्मय - स्वामीकुन्दकुन्द और सनातन्जैनधर्म, जैनविवाह विधि, भक्ति संग्रह, हितसम्पादकम्, पवित्र मानव जीवन, इतिहास के पन्ने, ऋषि कैसा होता है, समयसार हिन्दी टीका, शान्तिनाथ पूजन विधान आदि।
6. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने ज्ञानदान किस-किस को दिया ?
अनेक साधु, आर्यिकाएँ, एलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी एवं श्रावकों को दिया। आचार्य वीरसागर जी के संघ में, आचार्य शिवसागर जी के संघ में, आचार्य धर्मसागर जी, आचार्य अजितसागर जी एवं वर्तमान में श्रेष्ठ आचार्य विद्यासागर जी इनके अनुपम उदाहरण हैं।
7. आचार्य श्री ज्ञानसागर जी की सल्लेखना किस प्रकार हुई थी ?
सर्वप्रथम आचार्य ज्ञानसागर जी ने अपने आचार्य पद का त्याग किया और वह पद मुनि विद्यासागर को दिया एवं उन्होंने आचार्य विद्यासागर जी से निवेदन किया कि मेरी सल्लेखना करा दें। वैसे आचार्य परमेष्ठी के लिए नियम है कि वे दूसरे संघ में सल्लेखना लेने जाएँ, वे क्यों नहीं गए मेरे मन में एक चिन्तन आया कि आचार्य ज्ञानसागर जिन्हें सब कुछ अपने शिष्य विद्यासागर जी को सिखा दिया, कैसे पढ़ाया जाता है ? कैसे शिष्यों की भर्ती की जाती है ? कैसे दीक्षा दी जाती है ? कैसे संघ चलाया जाता है ? आदि, किन्तु यह नहीं सिखाया कि सल्लेखना कैसे दी जाती है ? इसलिए उन्होंने स्वयं सल्लेखना आचार्य विद्यासागर जी से ली, जिससे वे भी सीख जाएँ। करोड़ों रुपयों की जायदाद पाने वाला बेटा भी वैसी सेवा पिता की नहीं करता जैसी सेवा आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अपने गुरु आचार्य श्रीज्ञानसागरजी की। आचार्य श्रीज्ञानसागरजी को साइटिकाका दर्द रहता था। जिससे वे गर्मी के दिनों में भी बाहर शयन नहीं करते थे। तब भी आचार्य विद्यासागर जी अन्दर गर्मी में शयन करते थे। हमेशा जागृत अवस्था में ज्ञानसागर जी रहते थे। उन्होंने लगभग 6 माह पहले अन्न का त्याग कर दिया था एवं 4 उपवास के साथ राजस्थान की भीषण गर्मी में यम सल्लेखना सम्पन्न हुई थी।
विशेष : आचार्य श्री ज्ञानसागर जी के साहित्य पर अभी तक 2 डी.लिट, 4 विद्यावारिधि, 32 पी.एच.डी., 8 एम.ए. तथा 3 एम.फिल के शोध प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं।
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