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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 16 - नरक गति

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    संसारी जीवों को चार गतियों में विभाजित किया है। उनमें प्रथम नरक गति के जीवों की क्या विशेषताएँ हैं, उन्हें कौन-कौन से दु:ख भोगने पड़ते हैं आदि का वर्णन इस अध्याय में है।

     

    1. संसारी जीवों को कितनी गतियों में विभाजित किया है ? 
    संसारी जीवों को चार गतियों में विभाजित किया है - नरकगति, तिर्यच्चगति, मनुष्यगति एवं देवगति। 

     

    2. गति किसे कहते हैं ?
     जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यज्च, मनुष्य एवं देवपने को प्राप्त होता है, उसे गति कहते हैं। 

     

    3. नरक गति किसे कहते हैं ?

    1. जिस कर्म का निमित्त पाकर आत्मा नारक भाव को प्राप्त करता है, उसे नरक गति कहते हैं।
    2. पापकर्मों के फलस्वरूप अनेक प्रकार के असह्य दु:खों को भोगने वाले जीव नारकी कहलाते हैं और उनकी गति को नरकगति कहते हैं।
    3. जो नर अर्थात् प्राणियों को काता अर्थात् गिराता है, पीसता है, उसे नरक कहते हैं।(ध.पु., 1/202)
    4. जो परस्पर में रत नहीं है अर्थात् प्रीति नहीं रखते हैं, उन्हें नरत कहते हैं और उनकी गति को नरक गति कहते हैं। (गो.जी.का. 147)

     

    4. नरकगति का वर्णन पहले क्यों ?
    नारकियों के स्वरूप का ज्ञान होने से भय उत्पन्न हो गया है, ऐसे भव्य जीव की दसलक्षण धर्म अर्थात् मुनिधर्म में निश्चल रूप से बुद्धि स्थिर हो जाती है, ऐसा समझकर पहले नरकगति का वर्णन किया है। (ध.पु., 3/122)

     

    5. नारकियों की कौन-कौन-सी विशेषताएँ हैं ?

    1. नारकियों का शरीर अशुभ वैक्रियिक, अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त एवं डरावना होता है।
    2. शरीर का आकार बेडोल (हुण्डक संस्थान) होता है। 
    3. शरीर का रंग धुएँ के समान काला होता है। 
    4. शरीर में खून, पीप, माँस, विष्ठा आदि पाए जाते हैं।
    5. नारकी अपृथक् विक्रिया ही करते हैं अर्थात् स्वयं अपने शरीर को ही अस्त्र-शस्त्र बनाते हैं। 
    6. नारकियों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी उनका अकाल मरण नहीं होता है। उनका शरीर पुन: जुड़ जाता है।
    7. इनके शरीर में निगोदिया जीव नहीं रहते हैं। 
    8. इनका नपुंसक वेद होता हैं। 
    9. इनकी दाढ़ी-मूंछे नहीं होती हैं। 
    10. आयु समाप्त होते ही इनका शरीर कपूर की तरह उड़ जाता है।

     

    6. सात भूमियों में कितने बिल (नरक) हैं ?
    84 लाख बिल हैं। रत्नप्रभा में 30 लाख, शर्कराप्रभा में 25 लाख, बालुकाप्रभा में 15 लाख, पंकप्रभा में 10 लाख, धूमप्रभा में 3 लाख, तमः प्रभा में 5 कम 1 लाख एवं महातम:प्रभा में मात्र 5 बिल हैं। नारकियों के रहने के स्थान को बिल कहते हैं। (तसू, 3/2) 

     

    7. सात भूमियों के अपर नाम कौन-कौन से हैं ?
    धम्मा, वंशा, मेघा, अञ्जना, अरिष्टा, मघवी और माघवी। (ति.प., 1/153) 

     

    8. सात भूमियों में कितने-कितने पटल हैं ?
    प्रथम भूमि में 13, फिर आगे-आगे क्रमश: 11,9,7, 5, 3 और 1 पटल है। 

     

    9. नरकों की मिट्टी कैसी होती है एवं उस मिट्टी की गन्ध यहाँ पर आ जाए तो क्या होगा ?
    सुअर, कुत्ता, बकरी, हाथी, भैंस आदि के सडे हुए शरीर की गन्ध से अनन्त गुणी दुर्गन्ध वाली मिट्टी नरकों में होती है। प्रथम पृथ्वी की मिट्टी की दुर्गन्ध से यहाँ पर एक कोस के भीतर स्थित जीव मर सकते हैं। इसके आगे द्वितीयादि पृथ्वियों में इसकी घातक शक्ति आधा-आधा कोस और भी बढ़ जाती है। (ति. प., 2/347-349) 

     

    10. इन पृथ्वियों में रहने वाले नारकियों की आयु कितनी होती है ?
    उत्कृष्ट आयु क्रमशः प्रथम पृथ्वी से 1, 3, 7, 10, 17, 22 एवं 33 सागर एवं जघन्य आयु क्रमशः 10,000 वर्ष, 1, 3, 7, 10, 17 और 22 सागर होती है। 

     

    11. नारकियों की उत्कृष्ट एवं जघन्य अवगाहना कितनी है ?

    पृथ्वी 

    उत्कृष्ट अवगाहना  जघन्य अवगाहना
    1. 7 धनुष, 3 हाथ, 6 अङ्गुल 3 हाथ
    2. 15 धनुष, 2 हाथ, 12 अङ्गुल 8 धनुष, 2 हाथ, 2-2/11 अङ्कुल 
    3.

    31 धनुष, 1 हाथ

    17 धनुष, 1 हाथ, 10-2/3 अङ्गुल
    4.

     62 धनुष, 2 हाथ

     35 धनुष, 2 हाथ, 20-4/7 अङ्गुल
    5. 125 धनुष 75 धनुष
    6.  250 धनुष 166 धनुष, 2 हाथ, 16 अङ्गुल 
    7.  500 धनुष 500 धनुष


     

     

    12. नरकों में कितने प्रकार के दु:ख हैं ?
    नरकों में अनेक प्रकार के दु:ख होते हैं। जिनमें कुछ प्रमुख हैं

    1. क्षेत्र सम्बन्धी दु:ख - बिलों में गहन अंधकार रहता है, दुर्गन्ध युक्त मिट्टी रहती है, छाया चाहते हैं। पर सेमर के वृक्ष मिलते हैं, वे छाया तो नहीं देते, किन्तु नारकियों के ऊपर छुरी, कांटे के समान वह पत्र (पता) गिराते हैं। प्रथम पृथ्वी से पाँचवीं पृथ्वी के 3/4 भाग तक अत्यन्त उष्ण एवं चतुर्थ भाग में शीत, छठी पृथ्वी में भी शीत एवं सप्तम पृथ्वी में महाशीत रहती है। (ति.प.2/29-30,34-36)
    2. मानसिक दुख - हाय-हाय! पापकर्म के उदय से हम इस भयानक नरक में पड़े हैं।” ऐसा विचारते हुए पश्चाताप करते हैं। हमने सत्पुरुषों व वीतरागी साधुओं के कल्याणकारी उपदेशों का तिरस्कार किया था। विषयान्ध होकर मैंने पाँच पाप किए थे। जिनको मैंने सताया था, वे यहाँ मुझको मारने के लिए तैयार हैं। अब मैं किसकी शरण में जाऊँ। यह दुख अब मैं कैसे सहूँगा। जिनके लिए पाप किए थे, वे कुटुम्बीजन अब क्यों आकर मेरी सहायता नहीं करते। इस संसार में धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई सहायक नहीं। इस प्रकार निरन्तर अपने पूर्वकृत पापों का पश्चाताप करते रहते हैं। (ज्ञा, 36/33,59)
    3. शारीरिक दु:ख - नारकियों का उपपाद जन्म होता है। उपपाद स्थान नीचे की भूमि पर नहीं है,ऊपर के भाग में ऊँटादि के मुख की तरह हैं। वहाँ जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्तियाँ पूर्ण कर उपपाद स्थान से च्युत हो, उल्टे नरक भूमि में 36 आयुधों (तलवार, बरछी आदि) के मध्य गिरकर प्रथम पृथ्वी वाले 7 योजन 3 /, कोस अर्थात् 31/, कोस ऊपर उछलते हैं, आगे की भूमियों में दूने-दूने उछलते हैं। अर्थात् 62 / कोस, 125 कोस, 250 कोस, 500 कोस, 1000 कोस एवं 2000 कोस उछलते हैं। 1 योजन में 4 कोस होते हैं। (त्रि.सा., 182)
    4. असुरकृत दु:ख - तृतीय पृथ्वी तक असुरकुमार जाति के देव वहाँ के नारकियों को उनके पूर्वभव के वैर का स्मरण कराकर परस्पर में लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। जैसे-यहाँ मनुष्य मेढ़े, भैंसे आदि को लड़ाते हैं, वैसे ही अम्बरीष आदि कुछ ही प्रकार के असुरकुमार देव नरकों में जाकर लड़ाते हैं और स्वयं भी मारते हैं। (तिप, 2/353)
    5. परस्परकृत दु:ख - नारकी कभी शांति से नहीं बैठ सकते न दूसरे को बैठने देते हैं। वे दूसरे नारकी को देखते ही मारते हैं, उसके हजारों टुकड़े कर उबलते हुए तेल के कढ़ाव में फेंक देते हैं तो कभी तप्त लोहे की पुतलियों से आलिंगन न कराते हैं और कैसे-कैसे दु:ख देते हैं, उसे तो केवली भगवान् भी नहीं कह सकते हैं। (ति.प, 2/318-327,341-345)
    6. रोग सम्बन्धी दु:ख - दुस्सह तथा निष्प्रतिकार जितने भी रोग इस संसार में हैं, वे सब नारकियों के शरीर के रोम-रोम में होते हैं। (ज्ञा, 36/20)
    7. भूख-प्यास सम्बन्धी दु:ख - नारकियों को भूख इतनी लगती है कि तीन लोक का अनाज खा लें तो भी भूख न मिटे तथा प्यास इतनी लगती है कि सारे समुद्रों का पानी पी लें तो भी प्यास न बुझे। किन्तु वे वहाँ की दुर्गन्धित मिट्टी खाते हैं एवं अत्यंत तीक्ष्ण खारा व गरम वैतरणी नदी का जल पीते हैं।

     

    13. एक जीव नरकों में लगातार कितनी बार जा सकता है ? 
    प्रथम पृथ्वी से क्रमशः सप्तम पृथ्वी तक 8, 7, 6, 5, 4, 3 एवं 2 बार तक लगातार जा सकता है। विशेष - नारकी मरण कर पुनः नारकी नहीं बनता है, अत: एक भव बीच में मनुष्य या तिर्यञ्च का लेकर पुन: नरक जा सकता है। किन्तु सप्तम पृथ्वी से पुन: सप्तम पृथ्वी जाने के लिए बीच में दो भव लेने पड़ेंगे। प्रथम तिर्यञ्च का दूसरा मनुष्य या मस्त्य का।

     

    14. नाना जीव की अपेक्षा नरक में उत्पन्न होने का अंतर कितना है ?
    प्रथम पृथ्वी से क्रमश: सप्तम पृथ्वी तक, यदि कोई भी जीव उत्पन्न न हो तो उत्कृष्टतया 48 घड़ी (19 घंटे 12 मिनट) एक सप्ताह, एक पक्ष, एक माह, दो माह, चार माह एवं छ: माह का अन्तर हो सकता है।

     

    15. नारकियों का अवधिज्ञान क्षेत्र कितना है ?

    नाम उपर तिर्यक्रु नीचे

    नाम

    ऊपर

    तिर्यक

    नीचे

    रत्नप्रभा

     

     

    सर्वत्र अपने बिल के शिखर तक

     

     

    सर्वत्र अंसख्यात कोड़ा कोडी योजना

    4 कोस तक

    शर्कराप्रभा

    3.5 कोस तक

    बालुकाप्रभा

    3 कोस तक

    पंकप्रभा

    2.5 कोस तक

    धूमप्रभा

    2 कोस तक

    तमःप्रभा

    1.5 कोस तक

    महातमःप्रभा

    1 कोस तक 


    गणना - 1 कोस = 2000 धनुष। 1 धनुष = 4 हाथ । 1 हाथ = 24 अज़ुल। (त्रिसा, 202)

    Edited by admin


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