Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अध्याय 59 - ध्यान

       (1 review)

    ध्यान किसे कहते हैं, कितने प्रकार के होते हैं, कौन से ध्यान स्वर्ग एवं मोक्ष के कारण हैं। इसका वर्णन इस अध्याय में है।

     

    1. ध्यान किसे कहते हैं ?

    1. “उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता निरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्' (तसू,9/27) उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्त की वृत्ति को रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है।
    2. निश्चयनयापेक्षा - इष्टानिष्ट बुद्धि के मूल, मोह का छेद हो जाने से चित्त स्थिर हो जाता है। उस चित्त की स्थिरता को ध्यान कहते हैं।
    3. ‘चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम्'-चित्त के विकल्पों का त्याग करना ध्यान है। (स सि, 9/20/858)

     

    2. ध्यान कितने प्रकार के होते हैं ?

    ध्यान चार प्रकार के होते हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धम्र्यध्यान एवं शुक्ल ध्यान।

     

    3. आर्तध्यान किसे कहते हैं एवं इसके कितने भेद हैं ?

    आर्त नाम दु:ख का है। दुखानुभव में चित्त का रुकना आर्तध्यान है, इसके चार भेद हैं। इष्ट वियोगज, अनिष्ट संयोगज, वेदनाजन्य एवं निदान।

    1. इष्टवियोगज  - इष्ट गुरु शिष्य, मित्र, भाई, स्त्री, धन, क्षेत्र आदि केवियोग होने से, उसके संयोग के लिए जो निरंतर चिंतित रहता है, उसे इष्ट वियोगज आर्तध्यान कहते हैं।
    2. अनिष्ट संयोगज - अनिष्ट नेता, वस्तु, क्षेत्र, बंधु आदि के संयोग होने पर उसके वियोग के लिए जो निरंतर चिंतन होता है, उसे अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान कहते हैं।
    3. वेदनाजन्य - कैंसर, ब्लडप्रेशर, एड्स, हार्टअटैक, टी.वी., ट्यूमर आदि महारोग की वेदना होने पर उसे दूर करने के लिए हमेशा चिंतन करता है, उसे वेदना जन्य या पीड़ा चिंतन आर्तध्यान कहते हैं।
    4. निदान - आगामी भोगों की आकांक्षा से पीड़ित होकर उसकी प्राप्ति के लिए चिंतन करना निदान आर्तध्यान है।

    नोट - निदान ध्यान 1 से 5 वें गुणस्थान एवं शेष तीन आर्तध्यान 1 से 6 वें गुणस्थान तक रहते हैं।

     

    4. रौद्रध्यान किसे कहते हैं एवं इसके कितने भेद हैं ?

    क्रूर परिणामों से उत्पन्न हुए ध्यान को रौद्रध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं

    1. हिसानंद - हिंसा करने, कराने व अनुमोदना में आनंद मानने को हिंसानन्द रौद्रध्यान कहते हैं।
    2. मृषानन्द - झूठ बोलने में, दूसरों से झूठ बुलवाने में व झूठ बोलने वाले की अनुमोदना करने में तथा चुगली आदि में आनंद मानने को मृषानंद रौद्रध्यान कहते हैं।
    3. चौर्यानन्द - चोरी करने में, कराने में, चोरी की अनुमोदना करने में, चोर को न्याय दिलाने में और चोरी का माल खरीदने में आनंद मानने को चौर्यानन्द रौद्रध्यान कहते हैं।
    4. परिग्रहानन्द या विषय संरक्षणानंद - परिग्रह संचय करके आनंदित होना, विषयभोगों की वस्तुओं का संरक्षण करना, उसके संरक्षण व संचय में आनंद मानना परिग्रहानंद रौद्रध्यान है।

    नोट - सभी रौद्रध्यान 1 से 5 गुणस्थान तक होते हैं।

     

    5. धम्र्यध्यान किसे कहते हैं ?

    शुभ विचारों में मन का स्थिर होना धम्र्यध्यान है। अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र को धर्म कहते हैं और उस धर्म से युक्त जो चिंतन होता है, उसे धम्र्यध्यान कहते हैं। (र.क.श्रा, 3) अथवा मोह तथा क्षोभ से रहित जो आत्मा का परिणाम है, वह धर्म कहलाता है। उस धर्म से उत्पन्न जो ध्यान है, उसे धम्र्यध्यान कहते हैं। (त.अ., 52) इसके चार भेद हैं -

    1. आज्ञाविचय - जो इन्द्रियों से दिखाई नहीं देते ऐसे बंध, मोक्ष आदि पदार्थों में जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा के अनुसार निश्चय कर ध्यान करना सो आज्ञाविचय धम्र्यध्यान है।
    2. अपायविचय - संसार में भटकते प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान एवं मिथ्याचारित्र से कैसे दूर हों, इस प्रकार निरंतर चिंतन करना अपाय विचय धम्र्यध्यान है।
    3. विपाकविचय - (अ) कर्मों के उदय से सुख-दु:ख होता है, ऐसा चिंतन करना विपाक विचय धम्र्यध्यान है। (ब) जीवों को जो एक, अनेक भव में पुण्य-पाप कर्मों का फल प्राप्त होता है, उसके उदय, उदीरणा,संक्रमण, बंध और मोक्ष का चिंतन करना विपाकविचय धम्र्यध्यान है। (मू,401)
    4. संस्थानविचय - तीन लोक के आकार, प्रमाण आदि का चिंतन करना संस्थानविचय धम्र्यध्यान है।धम्र्यध्यान गुणस्थान 4 से 7 तक होते हैं। (स.सि., 9/36/890)

     

    6. धम्र्यध्यान के दस भेद कौन-कौन से हैं ?

    1. आज्ञा विचय, 2. अपाय विचय, 3. उपाय विचय, 4. जीव विचय, 5. अजीव विचय, 6. भव विचय, 7. विपाकविचय, 8. विराग विचय, 9. हेतुविचय, 10.संस्थान विचय (भा.पा.टी., 119)

     

    7. संस्थान विचय धम्र्यध्यान के कितने भेद हैं ?

    संस्थान विचय धम्र्यध्यान के चार भेद हैं -

    (अ) पिण्डस्थ ध्यान - शरीर में स्थित आत्मा का चिंतन करना पिण्डस्थ ध्यान है। इसके पाँच भेद हैं

    1. पार्थिवीधारणा - एकान्त में बैठकर साधक विचारे कि-संसार गहन समुद्र है, समुद्र जल से भरा है, यह संसार दुखों से भरा है। यत्र-तत्र स्वर्गादि विषय सुख रूप कमल खिले हैं। मध्य में 1000 पैंखुड़ियों का एक कमल है, ठीक इसके बीच में सुमेरुपर्वत है। उस पर एक आसन है। इस आसन पर मैं आसीन हूँ।

    2.आग्नेयधारणा - आगे साधक विचार करता है कि अपने नाभिमण्डल में एक कमल विराजमान है, जिसमें 16 पैंखुड़ियाँ हैं, जिनमें क्रमश: अ आदि 16 अक्षर लिखे हैं। कमल की कर्णिका में ही महामन्त्र विराजमान है जिसमें से मन्द-मन्द धूम (धुएँ) की शिखा निकल रही है, धीरे-धीरे धूम के साथ स्फुलिंगे निकलने लगे हैं। ये पंक्ति बद्ध चिनगारियाँ क्रमश: शनै:-शनै: अग्नि रूप प्रज्वलित होकर कर्मरूपी ईंधन में लग चुकी हैं। अब धीरे-धीरे कर्म वन जलने लगा इसके बाद नोकर्म भी जलने लगा एवं जलकर मात्र भस्म ही शेष बची है।

    3.वायुधारणा - इसके बाद ध्यानी चिंतन करता है कि महावेगवान वायु पर्वतों को कंपित करती हुई चल रही है और जो शरीरादि की भस्म है उसको इसने तत्काल उड़ा दिया है और वायु शांत हो गई है।

    4.जलधारणा - इसके बाद ध्यानी चिंतन करता है कि बिजली, इन्द्रधनुष अादि सहित चारों तरफ से मूसलाधार वर्षा कर रहा है। यह जल शरीर के जलने से उत्पन्न हुई समस्त भस्म को प्रक्षालित कर देता है।

    5.तत्त्वरूपवतीधारण - तत्पश्चात् ध्यानी पुरुष अपने को सप्त-धातु | रहित, पूर्णिमा के चन्द्रमा समान प्रभावाला, सिंहासन पर विराजमान, | दिव्य अतिशयों से युक्त, कल्याणकों की महिमा सहित, मनुष्यों-देवों |े से पूजित और कर्मरूपी कलंक से रहित चिंतन करे। पश्चात् अपने शरीर में स्थित आत्मा को अष्ट कर्मों से रहित पुरुषाकार चिंतन करे। 

    (ब) पदस्थ ध्यान -

    1. एक अक्षर को आदि लेकर अनेक प्रकार के पञ्च परमेष्ठी वाचक पवित्र मन्त्र पदों का उच्चारण करके जो ध्यान किया जाता है, उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। जैसे-ओम्, हीं आदि।

    2. जिसको योगीश्वर अनेक पवित्र मन्त्रों के अक्षर स्वरूप पदों का अवलम्बन करके चिंतन करते हैं, उसे पदस्थ ध्यान कहते हैं। किसी नियत स्थान पर जैसे-नासिकाग्र या ललाट के मध्य में मन्त्र को स्थापित कर उसको देखते हुए चित्त को एकाग्र करता है। हृदय में आठ पैंखुड़ी वाले कमल का चिन्तन करे और आठ पत्रों में से पाँच पत्रों पर णमो अरिहंताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण,

    का चिंतन करे।

    इसी प्रकार हीं बीजाक्षर में तीर्थङ्कर ऋषभदेव से महावीर तक चौबीस तीर्थङ्कर अपने-अपने वर्णों (रंगों) से युक्त हैं, उनका ध्यान करे। (स) रूपस्थ ध्यान - समवसरण में विराजमान अरिहन्त परमेष्ठी के स्वरूप का चिंतन रूपस्थ ध्यान है। इस ध्यान में बारह सभाओं के मध्य विराजित अष्ट प्रातिहार्यों और चार अनंत चतुष्टय से सहित अरिहन्त परमेष्ठी के स्वरूप का चिंतन किया जाता है।

    (द) रूपातीत ध्यान - अमूर्त, अजन्मा, इन्द्रियों के अगोचर ऐसे परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान करता है। पुन: वह योगी अपनी आत्मा को ही शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार परमात्मस्वरूप चिंतन करता है। मैं ही सर्वज्ञ हूँ, सर्वव्यापक हूँ सिद्ध हूँ इत्यादि रूप से अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है। इस प्रकार ध्यानी रूपातीत ध्यान में सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान का अभ्यास करके शक्ति की अपेक्षा से अपने आपको भी उनके समान जानकर और अपने आपको भी उनके समान व्यक्त करने के लिए उसमें (अपने आप में) लीन हो जाता है। तब आप ही कमाँ का नाश करके व्यक्त रूप से सिद्ध परमेष्ठी हो जाता है।

     

    8. हीं आदि का ध्यान किस प्रकार से करना चाहिए ?

    हीं का ध्यान - हीं में चौबीस तीर्थङ्कर समाहित हो जाते हैं और अत: उनका स्मरण सामायिक में अलगअलग रंग में कर सकते हैं। जैसे - सफेद रंग में - चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त। श्याम रंग में नेमिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ। हरे रंग में सुपाश्र्वनाथ एवं पाश्र्वनाथ। लाल रंग में पद्मप्रभ एवं वासुपूज्य। पीत रंग में शेष सोलह तीर्थङ्करों का। प्रत्येक तीर्थङ्कर की स्तुति अथवा अर्घ (बिना द्रव्य के) सामायिक में पढ़ सकते हैं। उनके जन्म का स्थान, मोक्ष का स्थान, चिह्न, आयु, ऊँचाई एवं उनके अनन्तचतुष्टय आदि का भी स्मरण कर सकते हैं। एकाग्रता से शरीर के रोग भागते एवं मन प्रसन्न होता है।

    पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान - अरिहन्त परमेष्ठी का श्वेत रंग में, नाभि में सिद्ध परमेष्ठी का लाल रंग में मस्तक में आचार्य परमेष्ठी का पीले रंग में कंठ में, उपाध्याय परमेष्ठी का हरे रंग में हृदय में, साधु परमेष्ठी का, काले रंग में मुख में ध्यान करना चाहिए तथा इनके मूलगुणों आदि का भी चिन्तन किया जा सकता है।

     

    9. तीर्थराज सम्मेद शिखर जी का ध्यान किस प्रकार करना चाहिए?

    सर्वप्रथम अपने आसन को सही तरह से लगाकर, नासा पर दृष्टि रखते हुए दोनों हाथ की हथेली एक के ऊपर एक गोद में रखकर बैठ जाइए। आज अपने को तीर्थराज सम्मेदशिखर जी की वन्दना करना है। वैसे तो सभी तीर्थङ्करों का जन्म अयोध्याजी में एवं मोक्ष शिखरजी से होता है,किन्तु हुण्डावसर्पिणी काल के कारण जन्म भी अयोध्याजी के अलावा अन्य स्थानों में हुआ। इसी प्रकार मोक्ष भी शिखरजी के अलावा अन्य स्थानों से हुआ। जैसे - ऋषभदेव का कैलाश पर्वत से, वासुपूज्य का चम्पापुर से, नेमिनाथ का गिरनार से एवं महावीर स्वामी का पावापुर से किन्तु शिखरजी में भी इन चार तीर्थङ्करों के चरण चिह्न स्थापित किए हैं। अत: हम सभी शिखरजी में ही चौबीस तीर्थङ्करों के चरण चिहों का ध्यान करेंगे। सर्वप्रथम वन्दना प्रारम्भ करते समय गन्धर्व नाला, सीता नाला पार करते हुए चौपड़ा कुण्ड में पाश्र्वनाथ की प्रतिमा के दर्शन करते हुए, गौतम स्वामी के कूट पर पहुँचकर स्तुति अथवा अर्घ (बिना द्रव्य के) पढ़ते हुए क्रमश: कुन्थुनाथ आदि चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति अथवा अर्घ (बिना द्रव्य के) पढ़ते हुए उनके चरण चिहों का दर्शन करते हुए ध्यान कर सकते हैं। और वृद्धि करना चाहे तो उन तीर्थङ्करों का चिह्न, शरीर का रंग आदि का भी ध्यान कर सकते हैं। और उस टोंक से जितने मुनि मोक्ष पधारे उनकी संख्या भी मन में स्मरण कर सकते हैं, तथा मन-ही-मन में प्रत्येक टोंक की तीन-तीन परिक्रमा एवं कायोत्सर्ग भी कर सकते हैं।

     

    10. ध्यान के लिए मन्त्रों को शरीर के किन-किन स्थानों पर स्थापित किया जाता है ?

    ध्यान के लिए मन्त्रों को शरीर के निम्न स्थानों पर स्थापित करना चाहिए - 1. नेत्र युगल, 2. दोनों कान, 3. नासिका का अग्रभाग,4.ललाट,5.मुख,6.नाभि,7.मस्तक,8. हृदय,9.तालु, 10.दोनों भौहोका मध्यभाग। इन दस स्थानों में से किसी भी एक स्थान में अपने ध्येय को स्थापित करना चाहिए। (ज्ञा, 30/13)

     

    11. धम्र्यध्यान तो मिथ्यादृष्टियों के भी देखा जाता है ?

    यहाँ मोक्षमार्ग का प्रकरण है, मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन के बिना प्रारम्भ नहीं होता है, अत: धम्र्यध्यान के लिए सम्यग्दृष्टि होना अनिवार्य है। मिथ्यादृष्टियों को जो ध्यान होता है, उसे शुभ भावना कहते हैं।

     

    12. ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिंता में क्या अंतर है ?

    जिन परिणामों से स्थिरता होती है, उसका नाम ध्यान है और जो मन का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना होता है, वह या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है या चिंता है। यहाँ चिंता का अर्थ चिंतन है। ‘‘चिंतनं चिंता' (स.सि., 1/13/182)

     

    13. शुक्लध्यान किसे कहते हैं एवं इसके कितने भेद हैं ?

    मन की अत्यन्त निर्मलता होने पर जो एकाग्रता होती है, उसे शुक्लध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं

    1. पृथक्त्ववितर्क वीचार - पृथक्-पृथक् अर्थ, व्यञ्जन, योग की संक्रान्ति और श्रुत जिसका आधार है, वह पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान है।

    वितर्क = श्रुतज्ञान। वीचार = संक्रान्ति। संक्रान्ति तीन प्रकार की होती है-अर्थ संक्रान्ति, व्यञ्जन संक्रान्ति एवं योग संक्रान्ति।

    अर्थ संक्रान्ति - ध्यान करने योग्य पदार्थ में द्रव्य को छोड़कर उसकी पर्याय का ध्यान किया जाता है अथवा पर्याय को छोड़कर द्रव्य का ध्यान किया जाता है।

    व्यञ्जन संक्रान्ति - वचन को व्यञ्जन कहते हैं। एक श्रुतवचन का आलम्बन लेकर दूसरे श्रुतवचन का आलम्बन होता है और उसे भी छोड़कर अन्य वचन का आलम्बन होना व्यञ्जन संक्रान्ति है।

    योग संक्रान्ति - मनोयोग को छोड़कर वचनयोग का ग्रहण करना उसे भी छोड़कर काययोग को ग्रहण करना योग संक्रान्ति है। (रावा, 9/44)

    2. एकत्व वितर्क अवीचार - जो शुक्ल ध्यान तीन योगों में से किसी एक योग के साथ होता है तथा अर्थ, व्यञ्जन और योग की संक्रान्ति से रहित है, वह एकत्ववितर्क अवीचार शुक्ल-ध्यान है। (ससि., 9/40/898)

    3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति - जब सयोग केवली भगवान्का आयु कर्म अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब सब प्रकार के वचनयोग, मनोयोग और बादरकाययोग को त्यागकर मात्र सूक्ष्म काययोग रहता है तब सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता है। सूक्ष्म-सूक्ष्म। क्रिया =योग। अप्रतिपाति = गिरता नहीं, अर्थात् ऊपर ही जाता है। (स.सि., 9/44/906)

    4. व्युपरतक्रियानिवृत्ति - वि+उपरत +क्रिया+अनिवृत्ति।

    विशेष रूप से उपरत अर्थात् दूर हो गई है, क्रिया (योग) जिसमें वह व्युपरत क्रिया है। व्युपरत क्रिया हो और अनिवृत्ति हो वह व्युपरतक्रिया निवृत्ति ध्यान है। अर्थात् योग रहित अवस्था में जो ध्यान होता है, उसे व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान कहते हैं। (तसू, 9/39)

    शुक्लध्यान गुणस्थान पृथक्त्ववितर्क वीचार में 8 से 11 तक। एकत्ववितर्क अवीचार में 12 वाँ। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति में 13 वाँ। व्युपरतक्रियानिवृत्ति में 14 वाँ।

     

    14. ध्यान का फल क्या है ?

    आर्तध्यान और रौद्रध्यान का फल संसार एवं धर्मध्यान और शुक्लध्यान का फल मोक्ष है।

     

    15. ध्यान के विषय में चार अधिकार कौन-कौन से हैं ?

    धन्यता ध्यान करने वाला धयान चिन्तन क्रिया धयान का फल - संवर एवं निर्जरा ध्येय चिंतन योग्य पदार्थ (ज्ञा, 4/5)

     

    16. ध्याता कैसा होना चाहिए ?

    पञ्चशील का पालन करने वाला हो अर्थात् पाँचों पापों से रहित हो। ध्यान के लिए मौन पथ्य है। मौन कैसा हो ? मन से, वचन से और काय से अर्थात् मन में बोलने के भाव नहीं लाना। वचन से हूँ हूँ भी नहीं करना एवं काय से कुछ भी न करना अर्थात् न इशारा करना, न लिखकर बताना। भोजन एक बार वह भी सीमित मात्रा में एवं भोजन सात्विक हो, अधिक तले, मिर्च मसाले एवं गरिष्ठ पदार्थ न हों, जनसम्पर्क न हो, मन को वश में करने वाला हो, जितेन्द्रिय हो, आसन स्थिर हो, धीर हो अर्थात् उपसर्ग आने पर न डिगे। ऐसे ध्याता की ही शास्त्रों में प्रशंसा की गई है।

     

    17. ध्यान के लिए योग्य स्थान कौन-कौन से हैं ?

    ध्यान के लिए योग्य स्थान इस प्रकार हैं-पर्वत, गुहा, वृक्ष की कोटर, नदी का तट, श्मशान, उद्यान, वन, सागर का तट, नदियों का संगम जहाँ होता है, सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, तीर्थक्षेत्र आदि योग्य स्थान हैं एवं वह स्थान स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशील जनों से रहित हो। (रावा, 9/44) किन्तु समर्थजनों के लिए क्षेत्र का नियम नहीं है, कहीं भी कर सकते हैं। (ज्ञा, 28/22)

     

    18. ध्यान के लिए दिशा एवं आसन कौन-कौन-सी हों ?

    ध्यान के लिए पूर्व और उत्तर दिशा में मुख करके ध्यान करना प्रशंसनीय है। अन्धकार का नाश करने वाले सूर्य का पूर्व दिशा में उदय होता है। अत: पूर्व दिशा प्रशस्त है। सूर्य के उदय के समान हमारे कार्य में भी दिन-प्रतिदिन उन्नति हो ऐसी इच्छा से व्यक्ति पूर्व दिशा की तरफ अपना मुख करके ध्यानादि इष्ट कार्य करते हैं। विदेहक्षेत्र में हमेशा तीर्थङ्कर रहते हैं। विदेहक्षेत्र उत्तर दिशा की ओर है। अत: उन तीर्थङ्करों को हृदय में धारणकर उस दिशा की तरफ मुख करके ध्यानादि इष्ट कार्य करते हैं। (भ.आ.टी., 562)

    ध्यान के लिए पद्मासन अथवा कायोत्सर्ग आसन श्रेष्ठ है। विषम आसन से बैठने वाले के शरीर में अवश्य पीड़ा होती है। उसके कारण मन में पीड़ा होती है और उससे आकुलता उत्पन्न होती है। आकुलता उत्पन्न होने पर क्या ध्यान होगा? नहीं अत: इन्हीं आसनों में ध्यान करना चाहिए। (म.पु.21/69-72)

    विशेष - समर्थजनों के लिए दिशा, आसन का कोई नियम नहीं है। (ज्ञा, 28/24)

    ध्यान के दृष्टान्त -

    1. सिनेमा देखने के लिए जब आप जाते हैं तब वहाँ सिनेमा घर के दरवाजे, खिड़की, छिद्र बंद कर देते हैं। फिर सिनेमा घर के भीतर की बिजली भी बंद कर देते हैं। तब पर्दे पर दृश्य स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसी तरह आत्म दर्शन के लिए सर्वप्रथम इन्द्रियों के दरवाजे, खिड़की, छिद्र, बंद कर देते हैं। फिर मन के संकल्पों-विकल्पों की बिजली बंद की जाती है। तब कहीं जाकर अंदर की पिक्चर अर्थात् आत्मदर्शन होता हैं।

    2. घड़ी में तीन काँटे होते हैं, घंटा, मिनट एवं सैकेण्ड का। घंटे का काँटा चलता है किन्तु चलता-सा दिखाई नहीं देता। उसी प्रकार मिनट का काँटा चलता है, किन्तु चलता-सा दिखाई नहीं देता, किन्तु सैकेण्ड का काँटा चलता नहीं भागता है। उसी प्रकार हम सब के पास तीन योग हैं। काययोग घंटे के काँटे के समान। वचनयोग मिनट के कॉटे के समान तथा मनोयोग सैकेण्ड के काँटे के समान। जब ध्यान करते हैं तब काय, वचन, तो स्थिर हो जाते हैं, किन्तु मन भागता है। तीनों काँटे 12 बजे मिल जाते हैं और तुरन्त सैकेण्ड का काँटा वहाँ से भाग जाता है। जब घंटे का काँटा, मिनट का काँटा बहुत पुरुषार्थ करता है। तब वह तीनों 1 बजकर 5 मिनट, 2 बजकर 10 मिनट आदि में मिल जाते हैं। उसी प्रकार जब घंटों ध्यान करते हैं तब तीनों मन, वचन और काय एक क्षण के लिए स्थिर हो जाते हैं और वहाँ से मन तुरन्त भाग जाता है। ध्यान के लिए यह भी आवश्यक है कि हम वर्षों की न सोचें, अभ्यास के लिए हम एक वर्ष के बाद की नहीं सोचेंगे, फिर एक माह के बाद की नहीं सोचेंगे। फिर एक पक्ष के बाद की नहीं सोचेंगे फिर एक सप्ताह, फिर एक दिन, एक घंटा ऐसा करते-करते एक समय पर आ जाइए यह भी एकाग्रता के लिए एक कला है।

     

    18. एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय एवं असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय में कितने ध्यान होते हैं ?

    दो ध्यान होते हैं। आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान होते हैं।

     

    19. पञ्चेन्द्रिय जीवों के कितने ध्यान होते हैं ?

    पञ्चेन्द्रिय जीवों के सभी ध्यान होते हैं।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    सरल शब्दों में समझाया गया है

    • Like 1
    Link to review
    Share on other sites


×
×
  • Create New...