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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 11अ - विश्व संरचना के प्रमुख घटक - द्रव्य

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    जिसका कभी नाश न हो ऐसी त्रिकालवर्ती वस्तु द्रव्य कहलाती है। द्रव्य सत् लक्षण वाला, उत्पाद व्यय श्रौव्य से युक्त होता है। गुण और पर्याय वाला द्रव्य होता है। द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को गुण और द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। उदाहरण - सोना सत् होने से द्रव्य, पीलापन, भारीपन सदा साथ रहने से गुण, मुकुट कुण्डल आदि नाशवान् होने से पर्याय कहलाती है तथा कुण्डल का बनना-उत्पाद, मुकुट का मिटना-व्यय, इन दोनों दशाओं में स्वर्ण का ज्यों का त्यों रहना श्रीव्य है। द्रव्य छह होते हैं:-

    1. जीव द्रव्य - जो इन्द्रिय आदि चार प्राणों के द्वारा जीता था, जीता है एवं जीवेगा उसे जीव कहते है।
    2. पुदगल द्रव्य - स्पर्श-रस-गंध और वर्ण वाला पुद्गल द्रव्य होता है। हमारे आस-पास जो कुछ भी देखने में आ रहा हैं वह सब पुद्गल द्रव्य का ही परिणमन है जैसे टेबल, पुस्तक, शरीर इत्यादि।
    3. धर्म द्रव्य - चलते हुए जीव एवं पुद्गल के चलने में जो उदासीन निमित्त कारण है वह धर्म द्रव्य है जैसे पानी मछली के चलने में सहायक है, पटरी, रेल के चलने में सहायक है।
    4. अधर्म द्रव्य - ठहरते हुए जीव एवं पुद्गल के ठहरने में जो सहायक कारण। वह अधर्म द्रव्य है। जैसे- ठहरने वाले पथिक के लिए पेड़ की छाया, हवाई जहाज के लिए हवाई अड्डा ठहरने में निमित्त कारण है।
    5. आकाश द्रव्य - सभी द्रव्यों को रहने के लिए जो स्थान दे/ अवकाश दे उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। जैसे मनुष्यों को रहने के लिए मकान, पक्षियों के रहने के लिए घोंसला स्थान देता है।
    6. काल द्रव्य - जो परिणमन करते हुए जीवादि द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है उसे कालद्रव्य कहते हैं। सेकंड, मिनट, घण्टा आदि काल द्रव्य की पर्याये हैं। जैसे घूमते हुए चक्र की कील।

    छहों द्रव्य लोकाकाश में सर्वत्र पाये जाते हैं अर्थात् लोकाकाश में ऐसा एक भी स्थान नहीं है जहाँ छहों द्रव्य न पाये जाते हों। आलोकाकाश में मात्र आकाश द्रव्य पाया जाता है।

     

    जीव द्रव्य अनन्त हैं, उनसे पुद्गल परमाणु अनन्त हैं। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य एक-एक हैं। काल द्रव्य असंख्यात है। आकाश द्रव्य एक है, छह द्रव्यों के निवास स्थान की अपेक्षा लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो भेद आकाश के हो जाते हैं।

     

    एक अविभागी पुद्गल आकाश के जितने स्थान को घेरता हैं उसे प्रदेश कहते हैं। एक जीव द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते हैं। जीव संकोच - विस्तार स्वभाव वाला होने से छोटे से छोटे शरीर में अथवा बड़े से बड़े शरीर में भी रह सकता है। पुद्गल द्रव्य संख्यात, असंख्यात व अनन्त प्रदेश वाला होता है। धर्म द्रव्य व अधर्म द्रव्य के असंख्यात प्रदेश है एवं आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेशी है। काल द्रव्य एक प्रदेश वाला है अत: काल द्रव्य को अप्रदेशी कहा गया है शेष द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए।


    परस्पर जीवों का उपकार करना ही जीव द्रव्य का उपकार हैं। शरीर, वचन, मन, प्राणापान, सुख,दुख, जीवन, मरण ये सब पुद्गल द्रव्य के उपकार है। गति और स्थिती में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्य के उपकार है। प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय होने वाला परिवर्तन वर्तना कहलाता है। परिस्पदन रहित द्रव्य की पूर्व पर्याय की निवृत्ति, नवीन पर्याय की उत्पत्ति परिणाम है। परिस्पदन रूप परिणमन क्रिया कहलाती है। छोटे - बड़े के व्यवहार को परत्व-अपरत्व कहते हैं।


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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    द्रव्यानुयोग पर अध्ययन

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