लगभग २६०० वर्ष पूर्व इस भारत भूमि पर एक महापुरुष का जन्म हुआ। जिसने इस धरती पर फैले अज्ञान को दूर कर सत्य, अहिंसा और प्रेम का प्रकाश फैलाया। उन महापुरुष को जन-जन अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के नाम से जानते हैं। भगवान महावीर संक्षिप्त जीवन-दर्शन इस प्रकार है :-
मधु नाम के वन में एक पुरुरवा नाम का भील रहता था। कालिका उसकी पत्नी का नाम था। एक दिन रास्ता भूलकर सागरसेन नाम के मुनिराज उस वन में भटक रहे थे, कि पुरुरवा हिरण समझकर उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ, तब उसकी पत्नी ने कहा कि स्वामी! ये वन के अधिष्ठाता देव हैं। इन्हें मारने से तुम संकट में पड़ जाओगे, कहकर रोका।
तब दोंनो प्रसन्नचित्त हो मुनिराज के पास पहुँचे तथा उपदेश सुनकर शक्त्यानुसार मांस का त्याग किया। आयु के अंत में निर्दोष व्रतों का पालन करते हुए, शान्त परिणामों से मरण प्राप्त कर वह भील सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।
स्वर्ग सुख भोगकर भरत चक्रवर्ती की अनन्तमति नामक रानी से मारीचि नाम का पुत्र हुआ तथा प्रथम तीर्थकर वृषभनाथ जी के साथ देखा-देखी दीक्षित हो गया। भूख प्यास की बाधा सहन न कर सकने के कारण भ्रष्ट हो, अहंकार के वशीभूत होकर तापसी बन सांख्य मत का प्रवर्तक बन गया। तथा अनेक भवों तक पुण्य-पाप के फलों को भोगता हुआ, सिंह की पर्याय को प्राप्त हुआ।
एक समय वह हिरण का भक्षण कर रहा था, तभी अजितञ्जय और अमितदेव नाम के दो मुनिराजों के उपदेश सुन जातिस्मरण होने पर व्रतों को धारण किया तथा सन्यास धारण किया जिसके प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में सिंह केतु नाम का देव हुआ। आगे आने वाले भवों में चक्रवर्ती आदि की विभूति का उपभोग कर जम्बूद्वीप में नंद नाम का राजपुत्र हुआ। प्रोष्ठिल नाम के मुनिराज से दीक्षा ले सोलह कारण भावना भाते हुए महापुण्य तीर्थकर प्रकृति का बंध किया फिर आयु के अंत में आराधना पूर्वक मरण कर अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र हुआ। वहां से च्युत होकर अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर हुआ।
भगवान महावीर का जन्म वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर राज्य के काश्यप गोत्रीय नाथ वंश के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ और त्रिशला रानी के आँगन में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के शुभ दिन हुआ। बालक सौभाग्यशाली, अत्यन्त सुन्दर, बलवान, तेजस्वी, मुक्तिगामी जीव था। सौधर्म इन्द्र ने सुमेरू पर्वत पर भगवान बालक का अभिषेक करने के बाद 'वीर' नाम रखा। जन्म समय से ही पिता सिद्धार्थ का वैभव, यश, प्रताप, पराक्रम और अधिक बढ़ने लगा। इस कारण उस बालक का नाम वर्द्धमान भी पड़ा। राजकुमार वर्द्धमान असाधारण ज्ञान के धारी थे। संजयन्त और विजयन्त नामक दो मुनि अपनी तत्व विषयक कुछ शंकाओं को लिए आकाश मार्ग से गमन कर रहे थे तभी बालक वर्द्धमान को देखते ही उनको समाधान प्राप्त हो जाने से उन्होंने उस बालक का नाम 'सन्मति' रखा। एक दिन कुण्डलपुर में एक बड़ा हाथी मदोन्मत्त होकर गजशाला से बाहर निकल भागा। वह मार्ग में आने वाले स्त्री पुरुषों को कुचलता हुआ नगर में उथल-पुथल मचाते हुए घूम रहा था। जिससे जनता भयभीत हो प्राण बचाने हेतु इधर-उधर भागने लगी। तब वर्द्धमान ने निर्भय हो हाथी को वश में कर मुट्ठियों के प्रहार से उसे निर्मद बना दिया। तब जनता ने बालक की वीरता से प्रसन्न हो बालक को 'अतिवीर' नाम से सम्मानित किया। वर्द्धमान एक बार मित्रों के साथ खेल रहे थे तभी संगम नामक देव विषधर का रूप धरकर आया। जिसे देखकर सभी मित्र डर के मारे भाग गये। परन्तु वर्द्धमान सर्प को देख रंच मात्र भी नहीं डरे, अपितु निर्भयता से उसी के साथ खेलने लगे। तब देव प्रकट होकर भगवान की स्तुति करने लगा एवं उनका नाम 'महावीर' रखा।
जब वर्द्धमान यौवन अवस्था को प्राप्त हुए। तब माता-पिता ने वर्द्धमान का विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ करने का निर्णय लिया। अपने विवाह की बात जब महावीर को ज्ञात हुई तो उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। गृहस्थ जीवन के बंधन में न फंसते हुए तीस (30) वर्ष की यौवनावस्था में स्वयं ही दिगम्बर दीक्षा अंगीकार की। बारह वर्ष तक मौन पूर्वक साधना करते हुए व्यालीस (42) वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया फिर लगभग तीस (30) वर्ष तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए बहात्तर (72) वर्ष की आयु में कार्तिक वदी अमावस्या के ब्रह्ममुहूर्त में (सूर्योदय से कुछ समय पहले) पावापुर ग्राम के सरोवर के मध्य से निवाण को प्राप्त किया।
भगवान महावीर का शेष परिचय
गर्भ - तिथी - आषाढ़ शुक्ल ६
जन्म - तिथी - चैत्र शुक्ल १३
दीक्षा - तिथी - मार्ग कृष्ण १०
केवलज्ञान - तिथी वैशाख शुक्ल १०
उत्सेध/वर्ण - ७ हाथ/ स्वर्ण वैराग्य
कारण - जाति स्मरण
दीक्षोपवास - बेला
दीक्षावन/वृक्ष - नाथवन/साल वृक्ष
सहदीक्षित - अकेले
सर्वऋषि संख्या - २४,०००
गणधर संख्या - ११
मुख्य गणधर - इन्द्रभूत
आर्यिका संख्या - ३६,०००
तीर्थकाल - २९,०४२
वर्ष यक्ष - गुहयक
यक्षिणी - सिद्धायिनी योग
निवृत्तिकाल - दो दिन पूर्व
केवलज्ञान स्थान - ऋजुकूला
चिहन - सिंह
समवशरण में श्रावक संख्या - १ लाख
श्राविका - ३ लाख
मुख्य श्रोता - श्रेणिक
विशेष - केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् गणधर के अभाव में छयासठ (६६) दिन तक भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि नहीं हुई। जिस दिन भगवान महावीर की प्रथम देशना हुई भी उसे वीर शासन जयन्ती के रूप में (श्रावण कृ. १) मनाते हैं।
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