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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 10 अ - सृष्टि का उत्थान - पतन : काल परिवर्तन

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    मनुष्यादि प्राणियों को किसने बनाया ? ये कब से हैं और कब तक रहेंगे ? इत्यादि प्रश्नों के समाधान हेतु अनके दर्शन व मत हमारे सामने हैं। कुछ दर्शनकार कहते हैं ब्रह्मा नाम वाले ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों की रचना की। कुछ कहते हैं पृथ्वी आदि पंचभूतों से मिलकर जीव की रचना होती है और पंचभूतों के पृथक – पृथक होने पर जीव नष्ट हो जाता है। कुछ वैज्ञानिक मनुष्य को बंदर का ही सुधरा हुआ रूप मानते हैं अर्थात् लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य बंदर ही था धीरे-धीरे वह मनुष्य बन गया।उपरोक्त मान्यताएं अज्ञानियों द्वारा प्रचलित होने से असत्य ही हैं। वास्तव में सृष्टि के सभी प्राणी अनादि काल से हैं और आगे अनन्त काल तक रहेंगे, उन्हें कोई बना नहीं सकता और न ही कोई नष्ट कर सकता है। क्योंकि सत्ता का कभी उत्पादन तथा नाश नहीं होता। मनुष्यादि पर्यायें हैं, जो बदलती रहती हैं जैसे मनुष्य मर कर बंदर हो सकता है हाथी हो सकता है, बंदर मरकर मनुष्य हो सकता है इत्यादि। कालक्रम के परिवर्तन के अनुसार उनकी उम्र, लंबाई, चौड़ाई, आहारादि में परिवर्तन देखा जाता है।

     

    भरत और ऐरावत क्षेत्र में काल-परिवर्तन उत्सर्पिणी काल एवं अवसर्पिणी काल के रूप में होता है। जिसमें जीवों की आयु, बल, बुद्धि तथा शरीर की अवगाहना आदि में क्रम से वृद्धि होती रहे उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। इसके छह भेद हैं१. दुषमा दुषमा काल, २. दुषमाकाल, ३. दुषमा सुखमा काल, ४. सुषमा दुषमाकाल, ५. सुषमा काल, ६. सुषमा-सुषमा काल। जिसमें जीवों की आयु, बल, बुद्धि और शरीर की अवगाहना आदि में क्रम से हानि होती रहे वह अवसर्पिणी काल है। इसके छह भेद है -

    १. सुषमा–सुषमा काल, २. सुषमा काल ३. सुषमा–दुषमा काल ४. दुषमा–सुषमा काल ५. दुषमा काल ६. दुषमा - दुषमा काल।

     

    दस कोड़ा - कोड़ी सागर का उत्सर्पिणी और इतने ही वर्षों का अवसर्पिणी काल होता है। दोनों ही मिलकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्प काल होता है। वर्तमान में जहाँ हम रह रहे हैं वह भरत क्षेत्र है यहाँ पर अभी अवसर्पिणी काल चल रहा है। यहाँ पर हुए/ हो रहे परिवर्तन को हम केवली भगवान द्वारा कहे गये वचनों के अनुसार समझने का प्रयास करेंगे।

     

    सुषमा - सुषमा काल

    अवसर्पिणी का यह प्रथम काल है, इस काल में सुख ही सुख होता है यह काल भोग प्रधान होता है, इसे उत्कृष्ट भोगभूमि का काल भी कहते हैं।

    1. नर-नारी युगल (जोड़ के) के रूप में जन्म लेते हैं।इस युगल के जन्म लेते ही पुरुष (पिता) को छींक एवं स्त्री (माता) को जंभाई जाती है। जिससे दोनों का मरण हो जाता है एवं शरीर कपूरवत् उड़ जाता है।
    2. जन्म लेने वाले युगल शिशुओं का शय्या में अगूठा चूसते तीन दिन, उपवेशन (बैठना सीखने) में तीन दिन, अस्थिर गमन में तीन दिन, स्थिर गमन में तीन दिन, कला गुण प्राप्ति में तीन दिन, तारुण्य में तीन दिन और सम्यक्र ग्रहण की योग्यता में तीन दिन इस प्रकार कुल इक्कीस(२१) दिनों का काल जन्म से पूर्ण वृद्धि होते हुए व्यतीत होता है। इनका व्यवहार आपस में पति-पत्नी के समान ही होता है।
    3. मनुष्य अक्षर, गणित, चित्र, शिल्पादि चौसठ कलाओं में स्वभाव से ही अतिशय निपुण होते हैं। मनुष्यों में नौ हजार हाथियों के बराबर बल पाया जाता है। इनका अकाल मरण नहीं होता है। ये विक्रिया से अनेक रूप बना सकते हैं। मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई ६००० धनुष प्रमाण होती है शरीर स्वर्ण के समान कांतिवाला, मल-मूत्रादि से रहित होता है। सभी मनुष्य एवं तिर्यच्चों का शरीर समचतुरस्र संस्थान वाला एवं वज़वृषभ नाराच संहनन वाला होता है। इस काल के जीव अत्यन्त अल्पाहारी होते हैं। तीन दिन के अनशन के बाद चौथे दिन हरड़ अथवा बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। इन जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य (असंख्यात वर्ष) प्रमाण होती है।

    इस प्रकार की स्थिति वाला चार कोड़ा - कोड़ी सागर प्रमाण यह प्रथमकाल व्यतीत होता है इसके बाद अवसर्पिणी का द्वितीय काल प्रारम्भ होता है।

     

    सुषमा - काल

    प्रथम काल की अपेक्षा इस काल में सुख, आयु, शक्ति, अवगाहना आदि की हीनता पाई जाती है इसे मध्यम भोग-भूमि का काल माना गया है।

    1. इस काल में उत्पन्न युगलों का पाँच-पाँच दिन अमूँठा चूसने आदि में व्यतीत होने पर कुल पैंतीस (३५) दिन पूर्ण वृद्धि होने में लगता है। मनुष्यों की उत्कृष्ट ऊँचाई घटकर चार हजार धनुष प्रमाण ही बचती है। शरीर का वर्ण शंख के समान श्वेत होता है एवं उत्कृष्ट आयु दो पल्य प्रमाण होती है।
    2. इस काल में जीव दो दिन के बाद बहेड़ा के बराबर आहार ग्रहण करते हैं यह आहार अमृतमय होता है। इस प्रकार तीन कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण वाला द्वितीय काल व्यतीत होता है। उत्सेध आदि के क्षीण होते-होते तीसरा सुषमादुषमा काल प्रवेश करता है।

     

    सुषमा - दुःषमा काल

    द्वितीय काल की अपेक्षा इस काल में सुख आदि की हीनता पाई जाती है इसे जघन्य भोग भूमि का काल कहा जाता है।

    1. इस काल में उत्पन्न युगल सात-सात दिन उपवेशन आदि क्रिया में व्यतीत करते हुए उनचास (४९) दिन में पूर्ण युवास्था को प्राप्त हो जाते हैं। मनुष्य के शरीर की ऊँचाई २००० धनुष प्रमाण तथा शरीर नील कमल के समान वर्ण वाला होता है।
    2. मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों की उत्कृष्ट आयु १ पल्य एवं आहार एक दिन के बाद आँवले के बराबर होता है।
    3. कुछ कम पल्य के आठवें भाग प्रमाण तृतीय काल के शेष रहने पर प्रथम कुलकर उत्पन्न होता है फिर क्रमश: चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं। जिनके द्वारा कर्मभूमि की व्यवस्था की जाती है। इस काल का शेष वर्णन प्रथम-द्वितीय काल के सदृश्य ही जानना चाहिए।

    इस प्रकार दो कोड़ा-कोड़ी सागर वाला तृतीय काल व्यतीत होने पर सम्पूर्ण लोक प्रसिद्ध त्रेसठ शलाका पुरुषों के जन्म योग्य चतुर्थ काल प्रवेश करता है।

     

    दुषमा – सुषमा काल

    काल के ह्रास क्रम से भोग भूमि का समापन तथा कर्म भूमि का प्रारंभ इस दुषमा-सुषमा काल से हो जाता है इस काल में विशेष रूप से निम्न परिवर्तन देखा जाता है -

    1. यह काल कर्म प्रधान होता है। कल्पवृक्ष समाप्त हो जाते हैं, असि मसि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य इन षट्कर्मों के द्वारा मनुष्य अपनी आजीविका चलाते हैं। सामाजिक व्यवस्थाएं विवाह संस्कार आदि प्रारंभ हो जाते हैं।
    2. बालक-बालिकाओं का पृथक-पृथक जन्म होने लगता है, माता-पिता उनका पालन पोषण करते हैं। यथा योग्य काल में बच्चे वृद्धि को प्राप्त होते हैं। उनका व्यवहार आपस में भाई-बहन के समान होता है।
    3. सभी शलाका पुरुष (तीर्थकर आदि) एवं महापुरुष (कामदेव आदि) इसी काल में उत्पन्न होते हैं।
    4. मनुष्यों के शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सौ अथवा पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण होती है। मनुष्य प्रतिदिन कवलाहार करते हैं, इस काल में मनुष्य एवं तिर्यच्चों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि की होती है।
    5. दु:ख की अधिकता और सुख की अल्पता के कारण यह काल दुषमा-सुषमा कहलाता है।
    6. इस प्रकार ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण वाला यह चतुर्थ काल व्यतीत होता है। इसके बाद आयु, शक्ति, बुद्धि आदि की हानि के क्रम से पंचम दुषमा काल प्रारंभ होता है।

     

    दुषमा काल

    भगवान महावीर के मोक्षगमन के पश्चात् तीन वर्ष आठ माह पंद्रह दिन पूर्ण होने पर दुषमा नामक पंचमकाल प्रवेश करता है इस काल में प्राय: दु:ख ही मिलता है। अभी हुण्डा अवर्पिणी काल का पाँचवा दुषमा काल चल रहा है। इस काल में निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं।

    1. इस काल में मनुष्य हीन संहनन धारी, मंद बुद्धि एवं वक्र (कुटिल) परिणामी होवेंगे। मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष एवं शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई सात हाथ होगी।
    2. अंतिम कल्की द्वारा मुनिराज से शुल्क स्वरूप आहार के समय प्रथम ग्रास मांगने पर अन्तराय करके तथा पंचमकाल का अन्त आने वाला है ऐसा जानकर वे मुनिराज सल्लेखना ग्रहण करेंगे। उस समय वीरागंज नामक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत एवं पंगुश्री नामक श्रावक-श्राविका होंगे। ये चारों ही सल्लेखना धारण कर स्वर्ग में देव होंगे। उस दिन क्रोध को प्राप्त हो असुर देव कल्की को मार देता है, सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जावेंगी। अर्थात् पूर्वाहण में धर्म का नाश, मध्याहण में राजा का नाश एवं अपराहण में अग्नि नष्ट हो जाती है। इस प्रकार धर्म के पूर्ण नाश के साथ ही २१ हजार वर्ष प्रमाण वाला यह पंचम काल समाप्त हो जावेगा। इसके पश्चात् अत्यन्त दु:ख पूर्ण छटवा दुषमा-दुषमा काल प्रारंभ होवेगा।

     

    दुषमा-दुषमा काल

    पंचम काल के व्यतीत होने पर अत्यन्त दुःखप्रद, नरक तुल्य, छटवाँ काल प्रारंभ होवेगा। इस काल में मनुष्यों की निम्नलिखित स्थिती होवेगी ।

    1. मनुष्य धर्म-कर्म से भ्रष्ट, पशुवत् आचरण करने वाले होवेंगे। वे नग्न रहेंगे और वनों में विचरण करेंगे। बंदर जैसे रूप वाले, कुबड़े, काने, दरिद्र, अनेक रोगों से सहित, अति कषाय युक्त, दुर्गन्धित शरीर वाले होंगे।
    2. इनके शरीर का वर्ण धूम्र के समान काला होगा एवं शरीर की ऊँचाई उत्कृष्ट तीन हाथ एवं कम होते-होते एक हाथ हो जावेगी। आयु अधिकतम बीस वर्ष होवेगी। इस काल में मनुष्य नरक और तिर्यञ्च गति से ही आकर पश्चात् मरकर वही पहुचेंगे।

    इस प्रकार धर्म-कर्म एवं मानवीय सभ्यता का ह्रास होते-होते जब इस छटवे काल के मात्र ४९ दिन शेष बचेंगे तब जन्तुओं को भयदायक घोर प्रलय होगा। यही पर अवसर्पिणी काल का अन्त हो जावेगा। इसके पश्चात् उत्सर्पिणी काल का प्रारंभ होता है।

     

    विशाल अवगाहना के प्रमाण

    पूर्व काल में मनुष्य एवं तिर्यञ्चों की विशाल अवगाहना की सिद्धी हेतु कुछ तर्क व प्रमाण इस प्रकार है।

    1. राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के पुरातत्व विभाग की खोज के अनुसार समुद्र में डूबी द्वारिका के मकानों की ऊँचाई २०० से ६०० मीटर तक है एवं इनके कमरो के दरवाजे ३० मीटर (लगभग १०० फुट) ऊँचे है। इससे सिद्ध होता है कि उसमें रहने वाले मनुष्य ५०-६० फुट ऊँचे होंगे ही, जैन शास्त्रों के अनुसार भ. नेमिनाथ की अवगाहना १० धनुष = ६० फीट थी।
    2. ज्ञात जानकारी के अनुसार मास्कों के म्यूजियम में २-३ लाख वर्ष पुराना नरकंकाल रखा है जिसकी ऊँचाई २३ फुट है एवं बड़ोदा (गुजरात) के म्यूजियम में एक छिपकली अस्थिपंजर रखा है जो १०-१२ फीट लम्बा है।
    3. फ्लोरिडा मे दस लाख वर्ष पुराना एक बिल्ली का धड़ मिला है जिसमें बिल्ली के दाँत सात इंच लम्बे हैं।
    4. रोम के पास कैसल दी गुड्डों में तीन लाख साल पुरानी हाथियों की हड्डी मिली है। इनमें से कुछ हाथी दाँत १० फुट की लंबाई के है। अत: विचारणीय है कि जब हाथी का दाँत 10 फुट लम्बा तो हाथी कितना लंबा हो सकता है।

    विशेष जानकारी हेतु गूगल पर 'स्केलेटन' सर्च करें 

     

    पात्र के भेद

    पात्र के तीन भेद हैं- १. सुपात्र २. कुपात्र ३. अपात्र

    सुपात्र - सम्यक दर्शन एवं व्रतों से सहित।

    कुपात्र - सम्यक दर्शन से रहित एवं व्रतों से सहित।

    अपात्र - सम्यक दर्शन एवं व्रतों से रहित।

    सुपात्र के तीन भेद हैं -

    उत्तम सुपात्र - भावलिंग-द्रव्यलिंग से सहित रत्नत्रयधारी मुनि।

    मध्यम सुपात्र – सम्यक्त्व सहित प्रतिमाधारी श्रावक, आर्यिका।

    जघन्य सुपात्र - सम्यक्त्व सहित अव्रती श्रावक।


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    रतन लाल

       2 of 2 members found this review helpful 2 / 2 members

    जैनागम के अनुसार काल विवेचना

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    काल विभाजन  क्यो  होती है?  उसे  कैसे  बदले?  यही  नियम है  तो उसे  तोड़ने के लिए  क्या-क्या  करना चाहिए? 

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