जिनशब्द का विश्लेषण
'जिन' के द्वारा कहा गया धर्म अर्थात् जिन ने जिस धर्म का कथन किया, उपदेश दिया वह धर्म है, जैन धर्म। 'जिन' ईश्वरीय अवतार नहीं होते, वे स्वयं अपने पौरुष के बल पर स्वयं के काम - क्रोधादि विकारों को जीतकर जिन बनते हैं, 'जिन' शब्द का अर्थ होता है जीतने वाला। जो जिन बनते हैं, वे हम प्राणियों में से ही बनते हैं। प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बन सकता हैं जैसे दूध में घी शक्ति के रूप में विद्यमान हैं उसी प्रकार आत्मा में 'जिन' बनने की शक्ति विद्यमान है। विशेष साधना के बल से कर्मों को आत्मा से पृथक कर सभी जीव भगवान बन सकते हैं।
जैन धर्म और तीर्थकर -
जैन धर्म अनादि काल से चला आ रहा हैं और आगे भी अनंतकाल तक चलेगा। यह धर्म किसी विशेष महापुरुष के द्वारा प्रवर्तित धर्म नहीं हैं अत: भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक मानना ठीक नहीं हैं। समय-समय पर आत्म साधना के द्वारा जिन्होंने जिनत्व को प्राप्त किया है ऐसे सर्वज्ञ भगवान द्वारा जिन धर्म का उपदेश दिया जाता रहा है। उसी परम्परा के प्रत्येक काल में चौबीस - चौबीस तीर्थकर एवं अनेक केवली भगवान द्वारा जिन धर्म को आगे बढ़ाया गया। भगवान महावीर इस युग के चौबीसवें तीर्थकर थे। इन्होंने जिन धर्म की स्थापना नहीं की अपितु जिन धर्म का प्रवर्तन किया उसके सिद्धान्तों से जन- जन को परिचित कराया।
जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त -
१. अहिंसा, २. प्राणी स्वातन्त्र्य, ३. ईश्वर कर्ता नहीं, ४. अवतार वाद नहीं, ५. अनेकान्त और स्याद्वाद, ६. अपरिग्रहवाद।
अहिंसा -
सृष्टि के सभी प्राणी हमारे जैसे सुख दु:ख का वेदन करने वाले हैं, वे दु:खों से बचना चाहते हैं और सुख पाना चाहते हैं। अत: किसी भी प्राणी को मन वचन और काय से कष्ट नहीं पहुचाना ही श्रेष्ठ अहिंसा हैं।
अहिंसा शब्द हिंसा के अभाव को प्रदर्शित करता हैं। अत: हम हिंसा को समझ लें, द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा के भेद से हिंसा दो प्रकार की है। अपने परिणामों में दूसरों को कष्ट पहुँचाने, मारने का भाव होना, क्रोधादि कषाय की तीव्रता होना भाव हिंसा है। भाव हिंसा होने पर अन्य का घात होना, पीड़ा पहुँचना द्रव्य हिंसा है। हिंसा के चार भेद कहे हैं :-
१. संकल्पी हिंसा २. आरंभी हिंसा ३. उद्योगी हिंसा ४. विरोधी हिंसा
'मैं अमुक जीव को मारूंगा' ऐसा संकल्प करना संकल्पी हिंसा है। गृहस्थी संबंधी कार्यों में होने वाली हिंसा आरंभी हिंसा है। व्यापार, खेती आदि कार्यों में होने वाली उद्योगी हिंसा है। अपने देश, धर्म, परिवार की रक्षा के उद्देश्य से हुई हिंसा विरोधी हिंसा है। हिंसा कर्म का त्याग ही अहिंसा धर्म है। अहिंसा कायरता नहीं अपितु मानव में मानवता को प्रतिष्ठित करने का अनुष्ठान है।
प्राणी स्वातंत्र्य -
इस सृष्टि में रहने वाले प्रत्येक प्राणी में/आत्मा में भगवान/परमात्मा बनने की क्षमता है, चाहें वह एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक अथवा वनस्पतिकायिक आदि जीव ही क्यों न हो। जैसे की स्वर्ण प्राप्ति हेतु (भूगर्भ से) उसके ऊपर पड़ी मिट्टी को हटाना(खोदना) पड़ता है, उसी प्रकार आत्मा पर पड़े कर्म रूप आवरण को हटाने पर परमात्मा दशा प्राप्त हो सकती है।
ईश्वर अकर्तृत्व –
इस सृष्टि को, सृष्टि में रहने वाले प्राणियों को, पर्वतों को, नदियों को करने वाला (बनाने वाला) कोई ईश्वर या बह्मा नहीं हैं। यदि यह कहा जाये कि इन्हें ईश्वर ने बनाया तो फिर ईश्वर को किसने बनाया यह प्रश्न उठेगा। जिसका समाधान नहीं हैं, अत: यह सृष्टि और उसमें रहने वाले प्राणी सभी अनादि काल से हैं तथा भविष्य में अनंतकाल तक रहेंगे, इनका कोई स्रष्टा व विध्वंसक ईश्वर नहीं है।
प्राणियों की सुखी-दु:खी, अमीर-गरीब, जीवन-मरण, रोगी-निरोगी इत्यादि विभिन्न दशाओं को करने वाला कोई ईश्वर नहीं है वह तो उदासीन रूप से सब पदार्थों को जानने देखने वाला मात्र है।
प्राणी जैसा अच्छा या बुरा कार्य/कर्म करता हैं उसी के अनुसार पुण्य, पाप कर्म प्रकृतियों का बंध होता है उन बंधी हुई कर्म प्रकृतियों के उदय आने पर सुख-दुख, जीवन-मरण आदि जीव की विभिन्न दशाएं होती है।
अवतारवाद नहीं -
भगवान धरती पर पुन: जन्म नहीं लेते। जिन्होंने कर्म रूपी शत्रुओं को जीतकर भगवत् दशा प्राप्त की है ऐसे जीव पुन: धरती के प्राणियों के उद्धार, कल्याण हेतु धरती पर जन्म नहीं लेते। जैसे दूध से घी बन जाने पर पुन: दूध रूप में परिवर्तन संभव नहीं हो सकता वैसे ही कर्म बंध के कारणों का अभाव होने पर भगवान का पुन: मनुष्य बनना संभव नहीं। पूर्व भव में जिन्होंने विशेष पुण्य किया था ऐसे संसारी जीव ही महापुरुष के रूप में धरती पर जन्म लेकर तीन लोक के जीवों का उपकार करते हैं |
अनेकान्त और स्यादवाद -
एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्म पाये जाते हैं जैसे वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है, एक भी अनेक भी, सत् भी असत् भी आदि। इस बात को स्वीकारना भी अनेकान्त है। अत: वस्तु अनेकान्त रूप है।
अनेकान्तात्मक वस्तु के स्वरूप को कथन करने वाली शैली स्याद्वाद कहलाती है। इसका अर्थ कथचित् किसी दृष्टि से, किसी अपेक्षा से वस्तु के स्वरूप का कथन करना जैसे वस्तु कथचित् नित्य है। कथचित् अनित्य है।
अपरिग्रहवाद -
परिग्रह का अभाव सो अपरिग्रह है। मूच्छी भाव, आसक्ति भाव, पर पदार्थों का ममत्व मूलक संग्रह करना परिग्रह कहलाता है।
खेत, मकान, सोना, चाँदी, गाय आदि धन, गेहूँ आदि धान्य, दासी दास, वस्त्रादि कुष्य और बर्तनादि भांड की अपेक्षा से परिग्रह के दस भेद कहे हैं। परिग्रह ही दु:ख का मूल स्रोत/कारण हैं। अत: दु:ख से बचने हेतु परिग्रह का त्याग करना चाहिए। इस ही का नाम अपरिग्रहवाद हैं। अपरिग्रहवाद ही सुख प्राप्ति का अचूक साधन है।
विशेष ध्यान रखने योग्य -
जैन धर्म हिन्दु धर्म नहीं है और ना ही हिन्दु धर्म की शाखा है। जैन धर्म एक स्वतंत्र धर्म है एवं सबसे प्राचीन धर्म है। जैनधर्म और हिन्दुधर्म में मूलभूत अंतर निम्न हैं -
जैन धर्म - जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट द्वादशांग रूपी श्रुतज्ञान ही प्रमाण भूत, सत्य हैं।
हिन्दु धर्म - वेद, स्मृतिग्रन्थ, ब्राह्मणों के अन्य प्रमाण भूत एवं अपौरुषेय ग्रन्थ प्रमाण है |
जैन धर्म - धार्मिक तत्व और सारणी स्पष्ट और निश्चित हैं।
हिन्दु धर्म - परस्पर विरोधी अनेक सिद्धान्त हैं।
जैन धर्म - यह जगत् अनादि अनिधन है इसका कोई स्रष्टा नहीं हैं।
हिन्दु धर्म - जगत का सृष्टा ईश्वर हैं और यह जगत नष्ट भी हो जाता हैं।
जैन धर्म - प्रत्येक काल में (उ. अ.) में तीर्थकर होते हैं, वे सत्य धर्म का उपदेश देते हैं।
हिन्दु धर्म - सनातन धर्म ईश्वर की प्रेरणा से बह्मा ने प्रकट किया हैं।
जैन धर्म - मनुष्य ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है देवता नहीं।
हिन्दु धर्म - देवता मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।
जैन धर्म - कर्म सूक्ष्म पौद्गलिक तत्व है जो आत्मा के साथ बंधते हैं एवं स्वयं फल देते हैं।
हिन्दु धर्म - कर्म एक अदृष्ट सत्ता है, जो ईश्वर के इशारे पर फल देता हैं।
जैन धर्म - मुक्त जीव लोक के अग्रभाग पर स्थित रहते हैं।
हिन्दु धर्म - मुक्त जीव बैकुण्ठ में अनंत काल तक सुख भोगता हैं।
जैन धर्म - अवतारवाद नहीं मानते हैं।
हिन्दु धर्म - अवतारवाद मानते हैं।
जैन धर्म - अपने शुभ कर्मों से सुख मिलता हैं।
हिन्दु धर्म - ईश्वर की कृपा से सुख मिलता हैं।
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव