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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 12अ - संसार परिभ्रमण का मूल कारण - कषाय

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    आत्मा से पुद्गल कर्म चिपक जाते हैं और उदय में आने पर अनेक प्रकार से दु:ख देते हैं। सामान्यत: कषाय चार प्रकार की है - (१) क्रोध कषाय, (२) मान कषाय, (२) माया कषाय, (२) लोभ कषाय

     

    क्रोध कषाय -

    अपने और पर के घात आदि करने रूप क्रूर परिणाम करने को क्रोध कहते है। गुस्सा, रोष, क्षोभ, आवेश आदि इसी के रूप है। क्रोध जलते हुए अंगारे की तरह है, जिसे दूसरे की तरफ फेंकने पर पहले अपना हाथ ही जल जाता हैं। परम तपस्वी द्वीपायन मुनि क्रोध के कारण ही नरक गति गये। तुंकारी (जिसे कोई तू नहीं बोल सकता था) ने अनेक प्रकार के कष्ट भोगे। राजा अरविन्द क्रोध के कारण स्वयं अपनी तलवार के घात से मरण को प्राप्त हो नरक गया।

     

    मान कषाय -

    अहंकार, गर्व, घमण्ड करने को मान कषाय कहते हैं। ज्ञान, पूजा, कुल, धन रूपादि से दूसरों को तिरस्कृत करना, नीचा दिखाने का भाव रखना आदि मान के स्वरूप हैं। मारीचि को अहंकार (मान कषाय) के कारण अनेक दुर्गतियों में भटकना पड़ा। रावण विद्याधर अहंकार के कारण मरकर नरक गया। दुर्गन्धा नाम की कन्या ने अनेक दु:ख भोगे।

     

    माया कषाय -

    दूसरों को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल-कपट आदि किये जाते हैं। उसे माया कषाय कहते है। मायाचारी व्यक्ति के जप-तप, पूजा-विधान, व्रताचरण आदि सभी धार्मिक अनुष्ठान मोक्षमार्ग में अकार्यकारी/निष्फल है। मायाचार के कारण की मृदुमति नामक मुनिराज हाथी की पर्याय को प्राप्त हुए। नारद महापुरुष नरकगामी हुआ।

     

    लोभ कषाय - 

    धन-धान्यादि पर पदार्थों की प्राप्ति के लिए तीव्र आकांक्षा या गृद्धि लोभ कषाय है। लोभ से बड़ा कोई दूसरा अवगुण नहीं है इसे सब पापों का बाप कहा हैं। तृष्णा या लालच इसी के पर्यायवाची शब्द है।

    एक और रत्नमयी बैल की चाह रखने वाला सेठ मरकर खजाने में सर्प हुआ फिर मरकर नरक गया। वेश्या ने बाह्मण को पाप का बाप कौन है ज्ञात कराया। क्रोधादि चारों कषायों के शक्ति, कार्य, स्थिती तथा सम्यक्त्वादि घातने की अपेक्षा चार-चार भेद कुल सोलह हो जाते हैं।

    १. अनन्तानुबन्धी क्रोध २. अनन्तानुबन्धी मान ३. अनन्तानुबन्धी माया ४. अनन्तानुबन्धी लोभ ५. अप्रत्याख्यान क्रोध ६. अप्रत्याख्यान मान ७. अप्रत्याख्यान माया ८. अप्रत्याख्यान लोभ ९. प्रत्याख्यान क्रोध १०. प्रत्याख्यान मान ११. प्रत्याख्यान माया १२. प्रत्याख्यान लोभ

     

    उपरोक्त कषायों की शक्तियों के दृष्टान्तों को हम सारणी में समझने का प्रयास करें।

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    अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व व चारित्र दोनों का घात करती है, अप्रत्याख्यान कषाय देश संयम का तथा प्रत्याख्यान कषाय सकल संयम का घात करती हैं। संज्वलन कषाय यथाख्यात चरित्र का घात करती है अर्थात् यथाख्यात चारित्र नहीं होने देती।

     

    उपरोक्त सोलह कषायों के अतिरिक्त नौ नो कषाय भी आगम में कही गई है। जिनके नाम क्रमश: हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद हैं।

     

    हंसने को हास्य कहते हैं। मनोहर वस्तुओं में प्रीति होना रति है। अरति इससे विपरीत है। उपकार करने वाले से सम्बन्ध टूट जाने पर जो विकलता होती है वह शोक है। उद्वेग का नाम भय है। ग्लानि को जुगुप्सा कहते हैं। पुरुष में आकांक्षा उत्पन्न होना स्त्रीवेद है। स्त्री की आकांक्षा होना पुरुष वेद है। स्त्री पुरुष दोनों की अभिलाषा से सहित परिणाम नंपुसक वेद हैं।

     

    जैन तत्त्व - विवेचन

    तत्व शब्द भाववाची है, जो पदार्थ जिस रूप में है उसके उसी स्वरूप, भाव का होना 'तत्व' कहलाता है जैसे जीव का चेतनपना, ज्ञान दर्शन स्वभाव, जल का शीतलपना आदि।

     

    तत्व सात होते हैं - १. जीव तत्व, २. अजीव तत्व, ३. आस्रव तत्व, ४. बंध तत्त्व, ५. संवर तत्त्व, ६. निर्जरा तत्त्व, ७. मोक्ष तत्त्व।

     

    इनमें से जीव का लक्षण चेतना है जो ज्ञानादिक के भेद से अनेक प्रकार की है। जीव से विपरीत लक्षण वाला अजीव है। शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वार रूप आस्रव है। आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है। आस्रव का रोकना संवर है। कर्मों का एकदेश अलग होना निर्जरा है और सब कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष है।

     

    सब फल जीव को मिलता है अत: प्रारम्भ में जीव को लिया गया है। अजीव जीव का उपकारी है यह दिखलाने के लिए जीव के बाद अजीव का कथन किया। आस्त्रव जीव और अजीव दोनों को विषय करता है अत: इन दोनों के बाद आस्त्रव का ग्रहण किया। बन्ध आस्रव पूर्वक होता है इसलिए आस्रव के बाद बन्ध का कथन किया। व्रत, गुति आदि धारण करने वाले जीव में बन्ध नहीं होता अत: संवर बन्ध का उल्टा हुआ इस बात का ज्ञान कराने के लिए बन्ध के बाद संवर का कथन किया। संवर होने पर निर्जरा होती है इसलिए संवर के बाद निर्जरा कही। मोक्ष अन्त में प्राप्त होता है इसलिए उसका कथन अन्त में किया।

     

    अथवा मोक्ष का प्रकरण होने से मोक्ष का कथन आवश्यक है वह संसार पूर्वक होता है और संसार के प्रधान कारण आस्त्रव और बन्ध है तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा है।

     

    इन सात तत्चों को एक उदाहरण के माध्यम से समझ लें। एक यात्री बस, जिसमें ड्राइवर (चलाने वाला) हो गया जीव, बस हो गई अजीव, यात्रियों का बस में प्रवेश करना आस्त्रव, सीट पर बैठ जाना बन्ध, दरवाजे का बंद हो जाना संवर मंजिल आने पर यात्रियों का क्रम क्रम से बाहर निकलना निर्जरा अंत में ड्राइवर सहित विशेष की संज्ञा नहीं है अपितु पूर्ण रूप से कमें से रहित दशा का प्राप्त होना ही मोक्ष है।


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