वर्तमान अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में जो चौबीस तीर्थकर हुए उनमें सर्वप्रथम धर्मतीर्थ प्रवर्तक ऋषभ देव हुए। उनका संक्षिप्त जीवन परिचय इस प्रकार है।
वज़जंघ और श्रीमति (ऋषभदेव व राजा श्रेयांस के पूर्व भव के जीव) ने पुण्डरीकिणी पुरी को जाते समय सरोवर के तट पर मुनि युगल के लिए आहार दान दिया, जिसके फलस्वरूप सम्यक्त्व रहित होने से मरण होने पर उत्तम भोग भूमि उत्तर कुरुक्षेत्र में आर्य-आर्या हुए। तथा वहाँ पर प्रीतिंकर नामक मुनिराज से संबोधन प्राप्त कर उन्होंने सम्यग्दर्शन धारण किया एवं मरण कर स्वर्ग गये। पुन: वज़सेन तीर्थकर के पुत्र वज़नाभि की पर्याय में चक्रवर्तित्व को प्राप्त कर पुन: राज-पाट त्याग कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर सोलह कारण भावना भाते हुए तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। आयु के अन्त समय में सल्लेखना पूर्वक मरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। वे ही अगले भव में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव हुए।
अंतिम कुलकर नाभिराय और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋषभदेव का जन्म अयोध्या नगरी में हुआ। इन्हे वृषभनाथ व आदिनाथ भी कहते हैं। इस युग में जैनधर्म का प्रारंभ इन्हीं से माना जाता है। भोगभूमि के अवसान होने पर जबकि कल्पवृक्षों ने भोग्य सामग्री देना बंद कर दी तब उन्होंने आजीविका के साधनभूत असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों की विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश, नगरों को सुविभाजित कर संपूर्ण भारत को ५२ जनपदों में विभाजित किया। लोगों को कर्मों के आधार पर इन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था दी, इसीलिए इन्हें प्रजापति कहा जाने लगा |
ऋषभदेव की दो पत्नियाँ थी सुनन्दा और नन्दा। इनके सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ थी, जिनमें सुनंदा से भरत और ब्राह्मी तथा नंदा से बाहुबली और सुंदरी प्रमुख हैं। इन्होंने अपनी ब्राह्मी और सुंदरी नामक दोनों पुत्रियों को क्रमश: अक्षर और अंक विद्या सिखाकर समस्त कलाओं में निष्णात किया। बाह्मी लिपि का प्रचलन तभी से हुआ। आज की नागरी लिपि को विद्वान उस ही का विकसित रूप मानते हैं।
एक दिन राजमहल में नीलांजना नामक देवी अप्सरा (नृत्यागना) की नृत्य करते हुए आकस्मिक मृत्यु हो जाने से इन्हे वैराग्य उत्पन्न हो गया। फलत: अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को समस्त राज्य का भार सौंपकर दिगम्बरी दीक्षा धारण कर वन को तपस्या करने चले गये। दीक्षा के बाद वे छह माह तक ध्यान में बैठे रहे तथा उसके बाद छह सात माह तक विधी पूर्वक आहार न मिलने से अन्तराय होता रहा। अत: लगभग १ वर्ष पश्चात् राजा श्रेयांस के यहाँ मुनिराज का आहार हुआ। आहार में मात्र इक्षु रस ही लिया। एक हजार वर्ष की कठोर तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप उन्होंने कैवल्य (सम्पूर्ण ज्ञान) प्राप्त कर समस्त भारत भूमि को अपने धर्मोपदेश से उपकृत किया। चूंकि उन्होंने अपने समस्त घातियाँ कर्मों को जीत लिया था, इसीलिए वे जिन कहलाए तथा उनके द्वारा प्ररूपित धर्म 'जैन-धर्म' कहलाने लगा। अपने जीवन के अंत में तृतीय सुषमादुषमा काल की समाप्ति के तीन वर्ष आठ माह पन्द्रह दिन शेष रहने पर कैलाश पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया।
भरत बहुत प्रतापी राजा हुए। उन्होंने अपने दिग्वजय द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। दीक्षा लेते ही उन्हे अन्तमुहूर्त में केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया था, कैलाश पर्वत से वे मोक्ष पधारें।
- भ. ऋषभदेव के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष थी एवं आयु ८४ लाख पूर्व थी। शरीर का वर्ण स्वर्ण सदृश था।
- भ. ऋषभदेव के समवशरण का विस्तार १२ योजन था। इनके ८४ गणधर थे, जिनमें प्रमुख ऋषभ सेन थे।