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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 9अ - निर्भय बनाने वाली भावना - बारह अनुप्रेक्षा

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    किसी वस्तु अथवा परिस्थिती के विषय में बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। वैराग्य रूप परिणामों को उत्पन्न करने के लिए अनुप्रेक्षा माता के समान मानी गई है।

     

    अनुप्रेक्षा बारह होती हैं, इन्हें बारह-भावना भी कहा जाता है, इनके नाम क्रमश:

    १. अनित्य भावना, २. अशरण भावना, ३. संसार भावना, ४. एकत्व भावना, ५. अन्यत्व भावना, ६. अशुचि भावना, ७. आस्रव भावना, ८. संवर भावना, ९. निर्जरा भावना, १०. लोक भावना, ११. बोधि दुर्लभ भावना और १२. धर्म भावना है।

     

    1. अनित्य अनुप्रेक्षा - अनित्य का अर्थ नष्ट होने वाला, नाशवान। धन परिवार आदि समस्त वैभव बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है, इन्हें कितना भी स्थायी रखने का प्रयास किया जाय ये स्थिरता को प्राप्त नहीं होते हैं। यौवनावस्था कुछ ही समय पश्चात् बुढ़ापे में परिवर्तित हो मृत्यु में ढल जाती है।

     

    भावना का फल - इस प्रकार संसार, शरीर, भोगों की अनित्यता का चिंतन करने पर, अशुभ कर्मोदय से इष्ट वस्तुओं का वियोग होने पर, अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होने पर मन संताप को प्राप्त नहीं होता, शरीर आदि पर पदार्थों की क्षणभंगुरता का ज्ञान होने से उनमें घमंड, मद पैदा नहीं होता, पर पदार्थों के प्रति राग भाव कम होता है। मोह की श्रृंखला टूट जाती है।

     

    2. अशरण अनुप्रेक्षा - अशरण का अर्थ सहारा देने वाला नहीं। माता-पिता आदि परिजन, धन-सम्पति, मंत्र-तंत्र, रागी-द्वेषी, देवी-देवता कोई भी मृत्यु से इस जीव को बचाने वाला नहीं है। बड़े-बड़े शक्तिशाली महापुरुष भी काल के गाल में समा गये।

     

    भावना का फल - अत: इस संसार में कोई भी हमारा रक्षक नहीं हैं, ऐसा विचार करते हुए धर्म में बुद्धि लगाना चाहिए। सच्चे दवे, गुरु, शास्त्र ही एक मात्र संसार के दु:खों से बचाने वाले हैं, वे ही एक मात्र शरण भूत है ऐसा विचार करना चाहिए।

     

    3. संसार अनुप्रेक्षा - अज्ञान के कारण यह प्राणी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप पंचपरिवर्तन कर रहा हैं। नरक गति में यह जीव निरंतर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, शस्त्र घात आदि के कष्टों को सहन करता है। तिर्यञ्च गति में यह जीव छेदा भेदा जाना, बोझा ढोना, एक स्थान पर बंधे रहना इत्यादि अकथनीय सैकड़ों दु:खों को, कष्टों को सहन करता है। मनुष्य गति में इष्ट पुत्रादि के वियोग से उत्पन्न दु:ख, संतान का नहीं होना, खोटा पुत्र, कलह कारिणी स्त्री, धनहीनता, विकलांगता आदि नाना दु:खों को भोगता है। देवगति में इंद्रिय भोगों से तृप्त न होता हुआ, दूसरों देवों के वैभव से इष्य करता हुआ, मरण समय के पूर्व माला मुरझाने पर पीड़ा का अनुभव करता हुआ दु:खी होता है।

     

    भावना का फल - अत: इस संसार में वास्तव में कहीं सुख नहीं है, मोह के कारण यह जीव विषय-भोग से उत्पन्न पीड़ा को ही सुख मान लेता है। ऐसा बार-बार चिंतन करता हुआ जीव सांसारिक विषय भोगों से उदासीन होता हुआ, सच्चे धर्म में प्रवृत्ति करता है।

     

    4. एकत्व भावना - यह जीव अकेला ही जन्मता और मरता है, अकेला ही सारे पुण्य-पाप के फलों को भोगता है, जन्म से साथ रहने वाला शरीर भी अंत समय में यहीं छूट जाता है। यहाँ कोई भी जीवन भर साथ नहीं निभाता, थोड़े दिनों के ये सभी स्वार्थवश साथी बने हुए हैं, परगति को जाते समय कोई भी साथ नहीं जाता है।

     

    भावना का फल - ऐसा विचार करता हुआ जीव स्त्री-पुत्रादि से राग भाव को कम करता है, उनके संयोग-वियोग में विशेष हर्ष-विषाद नहीं करता हुआ अपने स्वरूप का विचार करता है। पर निमित से अपने परिणामों को नहीं बिगाड़ता हुआ एकत्व/ आत्म तत्व की आराधना करता है।

     

    5. अन्यत्व अनुप्रेक्षा - मेरा यह परिवार, शरीर, मकान आदि वैभव ये सब मुझसे अत्यन्त भिन्न/अलग है। मैं चेतन स्वभाव वाला ज्ञानी हूँ अन्य सब पुद्गल जड़ स्वभाव वाले, अज्ञानी हैं।

    इस प्रकार चिंतन करने से शरीरादि से राग भाव कम होता, पर के वियोग से उत्पन्न तनाव कम होता है, क्योंकि जो अपना है ही नहीं उसके अभाव में क्यों दु:खी होना।

     

    6. अशुचि अनुप्रेक्षा - यह शरीर अत्यन्त अपवित्र है, गंदा है, घिनावने पदार्थ मल-मूत्र, पीव खून आदि को उत्पन्न करने वाला है, शुक्र शोणित से बना हुआ है। दुर्जन के समान स्वभाव वाले इस शरीर से मूर्ख लोग ही प्रीति रखते है।

    इस प्रकार अशुचि भावना का चिंतन करने पर शरीर के प्रति राग भाव कम होता है, विषय-वासनाओं से मन दूर हट जाता हैं, रूप, बलादि का मद उत्पन्न नहीं होता हैं। रत्नत्रय के प्रति प्रीती उत्पन्न होती है।

     

    7. आस्त्रव अनुप्रेक्षा - कर्मों का आना आस्रव है। पाँच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पन्द्रह योग और पच्चीस कषाय मुख्य रूप से आस्रव के कारण हैं। आस्रव इहलोक और परलोक दोनो में दु:खदायी है, इस प्रकार आस्रव के दोषों का चिंतन करना चाहिए।

    अत: कछुए के समान इंद्रिय को वश में रखना चाहिए। समता भाव धारण कर, मोह-आकुलता का त्याग करना चाहिए।

     

    8. संवर अनुप्रेक्षा - कर्म जिस द्वार से आ रहे है, उस द्वार को बंद कर देना सो संवर है। आत्म उत्थान के हेतु पाँच महाव्रत, पाँच समिती, तीन गुप्ति, दस प्रकार के धर्म का पालन करना चाहिए एवं बाबीस परीषह सहन करना चाहिए। बारह भावनाओं का निरन्तर चिंतन करना चाहिए। यह संवर ही स्वर्ग एवं मोक्ष को देने वाला है, संवर सहित तप ही मुक्ति का कारण है। ऐसा विचार कर मोक्ष पुरुषार्थ में मन को स्थिर करना चाहिए।

     

    9. निर्जरा अनुप्रेक्षा - आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मों का एक देश झड़ना, थोड़ा-थोड़ा अलग होना निर्जरा है। वह निर्जरा दो प्रकार की है :- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। पहली निर्जरा चारों गतियों में जीवों के कर्मोदय होने पर होती है, इससे मोक्षामार्ग संबंधी कोई कार्य संभव नहीं। दूसरी अविपाक निर्जरा से ही संसार परिभ्रमण मिटता है एवं मोक्ष दशा प्राप्त होती है। इस प्रकार निर्जरा भावना का चिंतन करते हुए कर्म निर्जरा हेतु उद्यम करना चाहिए।

     

    10. लोक भावना - चौदह राजू प्रमाण ऊँचा पुरुषाकार यह लोक है जिसमें जीवादि छह द्रव्य रहते हैं, इसकी लम्बाई - चौड़ाई आकार आदि के विषय में चिंतन करना लोक भावना है। चतुर्गति युक्त यह लोक एक मात्र दु:ख का हेतु होने के कारण छोड़ने योग्य है ऐसा विचार करते हुए निज स्वरूप में लीन होना चाहिए।

     

    11. बोधि दुर्लभ भावना - मोक्ष सुख के साधन भूत रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र) का प्राप्त होना बोधि कहलाता है, इस बोधि की दुर्लभता के विषय में चिंतन करना बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा है। तप की भावना, समाधि मरण और अंत में मोक्ष सुख की उपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ है। ऐसा चिंतन करते हुए प्राप्त अवस्था की दुर्लभता को समझते हुए आगे-आगे पुरुषार्थ करना चाहिए।

     

    12. धर्म अनुप्रेक्षा - संसारी प्राणियों को दु:ख से उठाकर, उत्तम सुख में जो धरता है, उसे धर्म कहते हैं। इस संसार में धर्म को छोड़कर अन्य कोई सच्चा मित्र नहीं है, धर्म की आराधना से ही दु:खों से छुटकारा, मोक्ष सुख की प्राप्ति संभव है। अत: ऐसा चिंतन करते हुए पाप कार्यों को छोड़ना चाहिए एवं धर्म में बुद्धि लगाना चाहिए।

     

    संस्मरण -

    चित्र की सीख

    चित्र यदि सही-सही आकार प्रकार ले लेता है, तो चित्त के परिवर्तन का कारण बन सकता है। चित्त का परिवर्तन ही जीवन की सही चित्रकारी है जब बालक विद्याधर स्कूल में पढ़ते थे, उस समय वे चित्रकला भी सीखा करते थे। तब चित्र बनाना तो पूरा आता था, लेकिन नाक का नक्सा बिगड़ जाता था बचपन के चित्रकार आचार्य विद्यासागर जी महाराज आज वीतरागता के चलते फिरते जीवंत तीर्थ का निर्माण कर रहे हैं। जो जिनशासन की न केवल नाक अपितु संपूर्ण अंगों की बेहतर चित्रकारी कर दिगदिगन्त तक प्रभावना कर रहे हैं।


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    आचार्य श्री  तो  दुनिया के चित्रकार, शिल्प कार  हैं।

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    रतन लाल

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    बारह भावनाओं का अप्रतिम वर्णन

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