दशलक्षण पर्व - जैन श्रावकों का सबसे पवित्र पर्व दशलक्षण अथवा पर्युषण पर्व है। यह पर्व प्रतिवर्ष में तीन बार माघ, चैत एवं भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पंचमी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है। ये दश दिन दशलक्षण धर्म के दिन कहे जाते हैं। दश धर्मों के नाम पर ही इन पर्वो का नाम उद्घोषित किया जाता है इनके नाम उत्तमक्षमा पर्व, उत्तम मार्दव पर्व, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम अकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य पर्व है। इन दिनों श्रावक लोग यथाशक्ति व्रतों का पालन करते हैं, पूजन-पाठ कर संयम के साथ दिन व्यतीत करते हैं।
भादों शुक्ला चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहते हैं, इस दिन प्राय: सभी जैन श्रावक व्रत-उपवास करते हैं। अश्विनी कृष्णा प्रतिपदा के दिन अथवा अन्य किसी दिन क्षमावाणी पर्व मनाते हैं, अपने द्वारा हुए अपराधों की एक-दुसरों से क्षमा मांगते हैं एवं परस्पर गले मिलते हैं। यह पर्व अनादि अनिधन माना गया है जैन सिद्धान्तानुसार अवसर्पिणी काल के अंत में भरत-ऐरावत क्षेत्र के आर्य खण्ड में महाप्रलय होता है। उसके बाद नवीन सृष्टि का प्रारंभ शुभ दिन माघ सुदी पंचमी से होता है। अत: आर्यखण्ड की इस पुन: स्थापना के स्मरण रूप भी यह पर्व मनाया जाता है।
अष्टाहनिका पर्व - यह पर्व कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ माह के अन्त के आठ दिनों (शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक) में मनाया जाता है। अष्टम द्वीप नन्दीश्वर में स्थित बावन जिनालयों की पूजा करने चतुर्णिकाय के देव इन दिनों यहाँ आते हैं। चूंकि मनुष्य वहां नहीं जा सकते इसलिए उत्त दिनों में पर्व मनाकर यहीं पर पूजन करते हैं। इन दिनों में मुख्य रूप से सिद्ध चक्र मण्डल विधान का आयोजन किया जाता है। साधु संघो में नंदीश्वर भक्ति का पाठ किया जाता है। साधु एवं श्रावक गण इन दिनों यथाशक्ति व्रत उपवास रखते हैं।
महावीर जयन्ती - चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (१३) भगवान महावीर की जन्म तिथी है। इसे सम्पूर्ण जैन समाज मिलकर बड़े धूमधाम से मनाती है। केन्द्रीय सरकार के द्वारा इस दिन सभी सरकारी कार्यालयों की छुट्टी रहती है। प्रात:काल प्रभात फेरी निकाली जाती है। दोपहर को नगर में विशाल जुलूस, शोभायात्रा निकाली जाती है जिसमें श्री जी का विमान भी रहता है। लौटकर आने के पश्चात् श्री जी का अभिषेक होता है एवं रात्रि में भगवान के जीवन एवं उपदेश पर विद्वानों द्वारा व्याख्यान, कवि सम्मेलन, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि होते हैं। इस दिन प्राय: सभी श्रद्धालु जैन श्रावक व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रखते हैं एवं जिनधर्म की प्रभावना में अपना सहयोग प्रदान करते हैं। इस दिन अस्पताल आदि संस्थाओं के लिए दान एवं रोगियों के लिए दूध, फल, औषध आदि भी नि:शुल्क वितरण किये जाते हैं।
श्रुत पञ्चमी पर्व - भगवान महावीर के मुक्त हो जाने के लगभग ६०० वर्ष पश्चात् जब अंगश्रुतज्ञान लोप हो गया। तब गिरनार पर्वत की गुफा में निवास करने वाले धरसेनाचार्य महाराज के मन में श्रुत संरक्षण का विचार आया। निमित्त ज्ञान से उन्होंने जाना कि मेरी आयु अल्प रह गई है, मेरे बाद इस अंगज्ञान का लोप हो जावेगा। अत: योग्य शिष्यों को मुझे अंग आदि श्रुत का ज्ञान करा देना चाहिए। ऐसा विचार कर उन्होंने महिमा नगरी के यति सम्मेलन में पत्र भेजा। पत्र प्राप्त कर अहद्बलि आचार्य ने नरवाहन और सुबुद्धि नामक मुनिराज को उनके पास भेजा। ये दोनों मुनि जिस दिन आचार्य धरसेन के पास पहुंचने वाले थे, उसकी पिछली रात्रि को स्वप्न में उन्होंने दो हष्टपुष्ट, सुडौल और सफेद बैलों को बड़ी भक्ति से अपने पांवो में पड़ते देखा। सवेरा होते ही दो मुनियों ने जिनकी उन्हें चाह थी, आकर गुरुचरणों में सिर झुकाकर स्तुति की। दो-तीन दिनों के पश्चात् उनकी बुद्धि, शक्ति, सहनशीलता, कर्तव्य बुद्धि का परिचय प्राप्त कर दोनों को दो विद्याएं सिद्ध करने के लिए दी। गुरु आज्ञानुसार वे गिरनार पर्वत पर भगवान नेमिनाथ की निर्वाण शिला पर पवित्र मन से विद्या सिद्ध करने बैठ गये। मंत्र साधन का अवधि पूरी होने पर दो देवियां उनके पास आई। इन देवियों में एक देवी तो आँखों से अन्धी थी और दूसरी के दाँत बड़े और बाहर निकले थे। देवियों के असुन्दर रुप को देख इन्हे बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने सोचा देवों का तो ऐसा रूप होता नहीं फिर ऐसा क्यों ? तब इन्होंने मंत्रों की जाँच की, मंत्रों की गलती का उन्हें भास हुआ। फिर उन्होंने ने शुद्ध कर जपा। अबकी बार उन्हें दो देवियाँ सुन्दर वेष में दिखाई पड़ी। गुरु के पास आकर उन्होंने समस्त वृतान्त सुनया। धरसेनाचार्य बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि उन्होंने परीक्षा हेतु जानबूझ कर ही हीनाधिक मात्राओं वाला मंत्र दिया था। परीक्षा में उतीर्ण शिष्यों को सब तरह योग्य पा उन्हें खूब शास्त्राभ्यास कराया तथा ग्रन्थ समाप्ति पर भूतों द्वारा मुनियों की पूजा करने पर नरवाहन मुनि का नाम भूतबलि तथा सुबुद्धि मुनि की अस्त-व्यस्त दंत पक्ति सुव्यवस्थित हो जोने से उनका नाम पुष्पदन्त रखा। आषाढ़ शु. ११ को अध्ययन पूरा हो जाने पर धरसेन गुरु से विदा ले दोनों गिरनार के निकट अंकलेश्वर आ गए वहाँ चातुर्मास किया। कुछ समय पश्चात् उन मुनिराजों ने षट्खण्डागम नामक सिद्धान्त ग्रंथ को लिपिबद्ध कर ज्येष्ठ शु पंचमी को पूर्ण किया। उस दिन बहुत उत्सव मनाया गया। तभी से प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को श्रुत (ग्रन्थों)की पूजा की जाती है तथा शास्त्रों को निकालकर धूप में सुखाया जाता है तथा वेष्टन आदि बदलें जाते हैं।
रक्षाबन्धन पर्व - भगवान अरनाथ तीर्थकर के काल में जब बलि आदि चार ब्राह्मण मंत्रियों ने धार्मिक द्वेष वश श्री अकम्वनाचार्य को ७०० मुनियों के संघ सहित जीवित जला देने की इच्छा से हस्तिनापुर के बाहर मुनि संघ के चारों ओर धुएंदार अग्नि जला दी, साधुगण अपने ऊपर महाविपत्ति समझकर आत्मध्यान में लीन हो गये। तब श्री विष्णुकुमार मुनि जो कि विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, धार्मिक प्रेम वश एवं साधर्मी वात्सल्य वश तुरन्त हस्तिनापुर आये। और अपने शरीर को विक्रिया ऋद्धि से बौने ब्राह्मण का रूप बना कर बलि मंत्री से अपने लिए तीन पैड (३ कदम) पृथ्वी माँगी। उसने देना स्वीकार कर लिया तब उन्होंने विक्रिया से बड़ा रुप बना कर दो पैर (कदम) में ही मानुषोत्तर पर्वत तक सारी पृथ्वी नाप ली। तीसरा चरण बलि के कहने पर उसकी पीठ पर रखा। इस प्रकार पृथ्वी पर अधिकार पाकर उन्होंने तुरन्त अकम्पनाचार्य के संघ के चारों ओर से अग्नि हटवाकर उनकी विपत्ति दूर की। जनता को इससे शान्ति, संतोष हुआ, उपसर्ग दूर होने पर श्रावकों ने दूध की सिमेयो का हल्का आहार तैयार किया और मुनियों को दिया क्योंकि धुए से उनके गले भी भर आए थे। वह दिन श्रावण शुक्ला १५ का था। अत: उस दिन से प्रतिवर्ष उनके स्मरण में 'रक्षाबंधन पर्व'चालु हुआ और मुनिरक्षा के स्मरण स्वरूप रक्षा सूत्र हाथ में बाँधा जाता है। राखी धर्म की रक्षार्थ एक दूसरे की कलाई में बांधी जाती है। अत: रक्षा सूत्र बहन भाई को ही बाँधे ऐसा कोई नियम नहीं है। धर्म की रक्षार्थ, परस्पर में प्रेमभावना से रक्षासूत्र बाँधना लोक व्यवहार की अपेक्षा से मिथ्यात्व नहीं है।
दीपावली पर्व - विक्रम स. से ४७० वर्ष पहले कार्तिक वदी अमावश्या के प्रात: से कुछ समय पहले अंतिम तीर्थकर श्री भगवान महावीर पावापुरी से निर्वाण को प्राप्त हुए थे अर्थात मोक्ष गये। उस समय रात्रि का कुछ अन्धकार शेष था। अतएवं देवों ने तथा मनुष्यों ने वहाँ पर अगणित दीपक जलाकर प्रकाश करके मोक्ष उत्सव मनाया। तदनुसार तबसे ही प्रतिवर्ष भारत में कार्तिक वदी अमावस्या को अनेक दीपकों का प्रकाश करके दीपावली उत्सव मनाया जाता है। चतुर्दशी की रात्रि व्यतीत होने पर प्रात: भगवान महावीर की पूजा करके निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता है। शाम को उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर के केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। मुक्ति और ज्ञान ही जैन धर्म में सबसे बड़ी लक्ष्मी मानी जाती है।
प. गुलाबचन्द जी पुष्प के लेखानुसार – दीपावली के दिन संध्याबेला में घर में सामान्य पूजव श्रावक कर सकता है, शुद्धि पूर्वक यह पूजन सूर्यास्त के पहले ही कर लेना चाहिए। पूजन करने का स्थान शुद्ध होना चाहिए जहाँ अटैच शौचालय न हो, जूते चप्पल न पहुँचते हों, भोजन न किया जाता हो। उपर्युक्त शुद्ध स्थल को जल से स्वच्छ कर, चौकी लगाकर उस पर जिनवाणी स्थापित कर, मंगल कलश एवं दीपक की स्थापना करे। मंगलाष्टक पढ़ते हुए दिग्बंधन करके अपनी मन्त्र शुद्धि पूर्वक, कार्य का शुभारम्भ करें। तत्पश्चात् गणधर भगवान की पूजा करना चाहिए। महावीराष्टक पढ़कर दीप प्रज्वलन आदि करें। आर्य ग्रन्थों में चित्रों की पूजा का विधान नहीं है अत: चित्र की पूजा न करके जिनवाणी की स्थापना कर पूजन सम्पादित करना चाहिए। किन्तु सजा हेतु यदि तीर्थकर आदि का चित्र लगाया जाता है तो अनुचित नहीं है। कम से कम पाँच कल्याणकों की अपेक्षा पाँच दीप प्रज्वलित करना चाहिए। अन्यत्र यह व्यवस्था भी दृष्टिगोचर होती है। चौमुखी सोलह दीपक १६x४ = ६४ ऋद्धियों का प्रतीक मानकर तथा दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का प्रतीक मानकर दीप प्रज्वलित किये जाते हैं।
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