नरक गति में रहने वाले जीव नारकी कहलाते हैं। वे आपस में कभी भी प्रीति - स्नेह को प्राप्त नहीं होते अत: इन्हें नारत भी कहते हैं। नारकियों का शरीर टेढ़ा-मेढ़ा (हुण्डक संस्थान वाला), अत्यन्त डरावना, धुए के रंग वाला, अत्यन्त दुर्गध युक्त, वैक्रियक किन्तु खून-पीव-मांस से युक्त होता है। सभी नारकी नपुंसक वेद वाले होते हैं। नीचे-नीचे के नारकी सदा अशुभ से अशुभ लेश्या वाले, परिणाम वाले, देह वाले और विक्रिया वाले होते हैं। प्रथम पृथ्वी के नारकियों में शरीर की जघन्य ऊँचाई तीन हाथ प्रमाण होती है वही नीचे की ओर बढ़ते-बढ़ते अंतिम सप्तम पृथ्वी में ५०० धनुष प्रमाण हो जाती है अर्थात् नारकियों की उत्कृष्ट ऊँचाई ५०० धनुष प्रमाण होती है।
नारकी अधोलोक में एक के नीचे एक जो सात पृथ्वियाँ है, उनमें बने हुए बिलों में रहते हैं।
- नारकों में उत्पत्ति के निम्न कारण हैं :- बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह का भाव, हिंसादि क्रूर कार्यों में निरंतर प्रवृति, परधन हरण की वृत्ति, इंद्रिय विषयों में तीव्र आसक्ति, मरण के समय क्रूर परिणाम, सप्त व्यसनों में लिप्तता, कुत्ते, बिल्ली, मुर्गी आदि क्रूर प्राणियों का पालन, शील और व्रतों से रहितता, जीर्णोद्धार, जिनपूजा, प्रतिष्ठा और तीर्थ यात्रा आदि के निमित्त समर्पित धन का उपभोग, अत्याधिक हिंसा वाले व्यापार जैसे चमड़ा, शराब, कीटनाशक, विष, शस्त्र आदि हिंसक वस्तुओं का व्यापार।
रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियों के नाम, पटल, बिल एवं नारकियों की जघन्य, उत्कृष्ट आयु सारणी से समझते हैं।
- नारकियों को भूख इतनी अधिक लगती है कि तीन लोक का अनाज खा ले तो भी न मिटे और प्यास इतनी अधिक लगती है कि सारे समुद्र का पानी पी ले तो भी तृप्त न हो किन्तु वहाँ खाने के लिए अन्न का एक दाना व पीने के लिए पानी की एक बूंद भी नहीं मिलती।
- जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ, कुएँ का जल फिर से मिल जाता है उसी प्रकार बहुत सारे शस्त्र से छेदा गया नारकियों का शरीर भी फिर से मिल जाता है।
- नारकियों को चार प्रकार के दु:ख होते हैं शारीरिक दु:ख, क्षेत्रकृत दु:ख, असुरदेवो कृत दु:ख एवं मानसिक दु:ख।
- असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मरकर प्रथम नरक तक जा सकता है उसके आगे नहीं उसी प्रकार सरीसर्प द्वितीय नरक तक, पक्षी तीसरे नरक तक, सर्प चौथे नरक तक, सिंह पाँचवे नरक तक, महिला छटवे नरक तक एवं पुरुष सातवे नरक तक जा सकता है। स्वयंभूरमण समुद्र में रहने वाला सम्मूछनज महामत्स्य एवं तंदुल मत्स्य भी सप्तम नरक तक जा सकता है।
- प्रथम पृथ्वी से क्रमश: ८,७, ६, ५, ४, ३ एवं २ बार तक एक जीव लगातार नरकों में जन्म ले सकता है। इतना विशेष है कि नारकी मरण कर पुन: नारकी नहीं बनता, अत: बीच में मनुष्य अथवा तिर्यञ्च में जन्म धारण करता है।