इस युग में घोर उपसर्ग को सहन करने वाले तेइसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ स्वामि हुए। वर्तमान में सबसे अधिक जिनबिम्ब तथा जिन मन्दिर भगवान पार्श्वनाथ के दिखाई देते हैं। इनके बिम्ब के ऊपर प्राय: फण फैलाया हुआ सर्प दृष्टिगोचर होता है, जो उनपर हुए उपसर्ग की घटना का प्रतीक है। पार्श्वनाथ भगवान का संक्षिप्त जीवन – दर्शन इस प्रकार है।
राजा अरविन्द के दो मंत्री कमठ और मरुभूति थे। कमठ बड़ा भाई अत्यन्त दुष्ट प्रकृति का, दुव्र्यवहारी था, जबकि छोटा भाई मरुभूति सज्जन और सद्व्यवहारी था। एक दिन मरुभूति को राज्य कार्य से नगर से बाहर जाना पढ़ा तब कमठ ने छोटे भाई की पत्नी के साथ दुव्यवहार करना चाहा। जब राजा को यह बात ज्ञात हुई तो उसने कमठ को देश निकाला दे दिया, अत: वह तापसी बनकर जंगल में रहने लगा और कुतप करने लगा, मरुभूति के लौट आने पर, सब घटना ज्ञात होने पर भातृ-प्रेम के कारण वह कमठ के पास गया और पैर पड़ते हुए क्षमा-याचना पूर्वक घर चलने की प्रार्थना करने लगा। तब कमठ ने और अत्यधिक क्रोधित हो उस पर शिला पटक दी, जिससे मरुभूति दुध्यान पूर्वक मरण कर वज़घोष नाम का हाथी हुआ तथा मुनि अरविन्द के उपदेशों को सुन पंचाणुव्रत को धारण किया, अंत समय कीचड़ में फंस जाने पर सांप के द्वारा डसे जाने पर अणुव्रतों के प्रभाव से सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से च्युत हो अग्निवेग नाम का राजपुत्र हुआ दीक्षा धारण की। एक दिन जंगल में ध्यान करते समय बड़े भारी अजगर द्वारा निगले जाने पर मरण कर अच्युत स्वर्ग के पुष्कर विमान में देव हुआ। वहाँ से आकर पुन: व्रजनाभि नाम का चक्रवर्ती हुआ, क्षेमंकर मुनि के उपदेशों से प्रभावित हो जिन दीक्षा धारण की, तब कुरंग नाम के भील द्वारा उपसर्ग किये जाने पर मरण कर मध्यम ग्रेवेयक में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ से चयकर आनन्द नमाक राजपुत्र हो जिन दीक्षा धारण कर सोलहकारण भावनाओं का चिंतन कर तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। तब सिंह के द्वारा भक्षण किये जाने पर समाधि पूर्वक मरण कर आनत स्वर्ग में इन्द्र हुआ। यह जीव स्वर्ग से च्युत हो, श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर बना।
जम्बूद्वीप संबंधी भरत क्षेत्र के काशी देश स्थित वाराणसी (बनारस) नगरी में काश्यप गोत्री, उग्रवंशी राजा अश्वसेन राज्य करते थे। वामादेवी उनकी महारानी थी। महारानी वामादेवी ने आनत स्वर्ग के इन्द्र को पौष कृष्णा एकादशी को तीर्थकर सुत के रूप में जन्म दिया। सोलह वर्ष की अवस्था में ये नगर के बाहर वन बिहार करते हुए अपने नाना महीपाल के पास पहुँचे। वह पंचाग्नि तप के लिए लकड़ी फाड़ रहा था, इन्होंने उसे रोका और बताया कि लकड़ी में नागयुगल है। वह नहीं माना और क्रोध से युक्त होकर उसने वह लकड़ी काट डाली। उसमें जो नागयुगल था वह कट गया। मरणासन्न सर्पयुगल को इन्होंने संबोधित किया जिससे शान्तचित हो वे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए।
तीस वर्ष की उम्र के पश्चात् जातिस्मरण होने पर संसार से विरक्त हो पौष कृष्ण एकादशी के दिन अश्व वन में प्रात: काल तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हुए। पारणा के दिन गुल्मखेट नगर में धन्य नामक राजा ने आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। छद्मस्थ अवस्था के चार माह व्यतीत कर अश्व वन में जब प्रभु तेला का नियम लेकर देवदारु वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में थे तब कमठ के जीव शम्बर नामक देव ने सात दिन तक इन पर विभिन्न प्रकार के घोर उपसर्ग किया। उस समय उन धरणेन्द्र और पदमावती ने आकर उपसर्ग का निवारण किया। चैत्र कृष्णा त्रयोदशी के दिन प्रात:काल घातिया कर्म नष्ट हो जाने से प्रभु को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ।
समवशरण में अष्ट महाप्रातिहार्यों से युक्त होते हुए अनेक भव्य जीवों को समीचीन धर्म का उपदेश देते हुए उनहतर वर्ष सात मास तक पृथ्वी तल पर विहार किया तथा श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: बेला में अष्टकर्मों को नाश कर निर्वाण को प्राप्त किया। भगवान पार्श्वनाथ के शरीर की ऊँचाई नौ हाथ थी, आयु १०० वर्ष की एवं शरीर का वर्ण हरा था।