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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ्यक्रम 1अ - अष्ट द्रव्य से पूजनीय- हमारे नवदेवता

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    पूज्य पुरुषों की वंदना - स्तुति हमें पूज्य बनने की प्रेरणा देती है। इतना ही नहीं उनके द्वारा बताये जाने वाले मार्ग पर चलकर हम उन जैसा भी बन सकते हैं। हमारे आराध्य पूज्य नवदेवता हैं-

     

    १. अरिहन्त जी       ५. साधुजी

    २. सिद्ध जी            ६. जिन धर्म

    ३. आचार्य जी         ७. जिन अागम

    ४. उपाध्याय जी     ८. जिन चेत्य   

    ९. जिन चैत्यालय

     

    परमेष्ठी का स्वरूप

    धर्म स्थान में जिनका पद महान होता है, जो गुणों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं तथा चक्रवर्ती, राजा, इन्द्र एवं देव आदि भी जिनके चरणों की वन्दना करते हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं।

    जीव जिस पद में स्थित होकर आत्म - साधना करते हुए अन्तत: मोक्ष-सुख को प्राप्त करते हैं उस पद को परम पद अथवा श्रेष्ठ पद कहा जाता है।

    परमेष्ठी पांच होते है  - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्ठी। 

     

    अरिहन्त परमेष्ठी का स्वरूप -

    जिन्होंने चार घातिया कमों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय) को नष्ट कर दिया हैं तथा जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुख रूप अनंत चतुष्टय से युक्त हैं। समवशरण में विराजमान होकर दिव्यध्वनि के द्वारा सब जीवों को कल्याणकारी उपदेश देते हैं, वे अरिहंत परमेष्ठी कहलाते हैं।

     

    सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप - जो ज्ञानावरणआदि आत कर्मो से रहित है एवं क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक वीर्य सुक्ष्मत्व अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों से युक्त हैं। शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं।

     

    आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप - जो दीक्षा-शिक्षा एवं प्रायश्चित आदि देकर भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में लगाते हैं, संघ के संग्रह (एकत्रित करना), निग्रह (नियंत्रण करना, कंट्रोल) में कुशल होते हैं आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं।

     

    उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप - जो मुनि शिष्यों एवं भव्य जीवों को निरन्तर दया, धर्म का उपदेश देते हैं तथा सिद्धान्त आदि ग्रन्थों का ज्ञान करवाते हैं, उन्हें उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं।

     

    साधु परमेष्ठी का स्वरूप - जो ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहते हैं, आरंभ परिग्रह से रहित पूर्ण दिगम्बर मुद्राधारी साधु परमेष्ठी कहलाते हैं।

     

    जिन धर्म का स्वरूप - जो संसार के दुखों से छुड़ाकर उत्तम सुख मोक्ष मे पहुंचा देता है वह जिनेन्द्र देव द्वारा कहा हुआ जिनधर्म है। वह उत्तम क्षमादि रूप, अहिंसादि रूप, वस्तु के स्वभावरूप एवं रत्नत्रय रूप है।

     

    जिनागम का स्वरूप - जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित वीतराग वाणी को जिनागम कहते हैं जिनागम वस्तु स्वरूप का पूर्ण ज्ञान प्रतिपादित करता है इसे जिनवाणी, सच्चा शास्त्र, श्रुत देव, जैन सिद्धान्त ग्रन्थ भी कहते हैं।

     

    जिन चैत्य का स्वरूप - साक्षात् तीर्थकर, केवली भगवान के अभाव में धातुपाषाण आदि से तद्रूप जो रचना की जाती है उसे चैत्य कहते हैं। जिन चैत्य को जिन बिम्ब अथवा जिन प्रतिमा भी कहते हैं। जिन चैत्यालय का स्वरूपजिन चैत्य जहाँ विराजमान होते हैं उसे चैत्यालय कहते हैं। जिन चैत्यालय को समवशरण, मंदिर, जिनगृह, देवालय इत्यादि अनेक शुभ नामों से जाना जाता है। जिन चैत्य-चैत्यालय मनुष्य एवं देवों द्वारा निर्मित (कृत्रिम) तथा किसी के द्वारा नहीं बनाये गये (अकृत्रिम) दोनों प्रकार के होते हैं। नन्दीश्वर द्वीप आदि अनेक स्थानों पर अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालय हैं।

     

    ओोंकार की रचना :-

    पाँचो परमेष्ठियों के प्रतीक प्रथम अक्षर जोड़ने से ओम् बनता है।

    अरिहंत का = अ 

    सिद्ध (अशरीरी) का = अ + अ = आ

    आचार्य का = आ + आ = आ

    उपाध्याय का = आ + उ = ओ 

    साधु (मुनि) का = ओ + म् = ओम्

     

    अरिहंत से बड़े सिद्ध परमेष्ठी होते हैं फिर भी अरिहंतो के द्वारा हमें धर्म का उपदेश मिलता है एवं सिद्ध भगवान के स्वरूप का ज्ञान कराने वाले अरिहंत भगवान ही हैं। इसीलिए णमोकार मंत्र में सिद्धों से पहले अरिहंतो को नमस्कार किया गया हैं।

     

    सुनना भार बढ़ाने के लिये नहीं हल्के/निर्भार बनने के लिए'। जो सुनते हैं उसे जीवन में घोल दें तो भार नहीं बढ़ेगा और आचरण भी सुस्वादु हो जायेगा। जैसे पानी में शक्कर।

     

     

    पाँचों परमेष्ठियों के मूलगुण क्रमश: ४६, ८, ३६, २५, व २८ होते हैं। उनका कुल योग ४६ + ८ + ३६ + २५ + २८ = १४३ होता हैं।

     

    तीर्थकर केवली और सामान्य केवली में निम्न अंतर पाया जाता है -

    तीर्थकर केवली - तीर्थकरों के कल्याणक होते हैं।

    सामान्य केवली - कल्याणक नहीं होते हैं।

    तीर्थकर केवली - केवल ज्ञान होने के पश्चात् नियम से समवशरण की

    सामान्य केवली - केवल ज्ञान होने के पश्चात् अनियम (जरूरी नहीं) से रचना होती है। गंधकुटी की रचना होती है।

    तीर्थकर केवली - तीर्थकरों के नियम से गणधर होते हैं और दिव्य ध्वनि

    सामान्य केवली - सामान्य केवलियों की दिव्य ध्वनि एवं गणधरों का नियम खिरती है। नहीं।

    तीर्थकर केवली - एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी काल में चौबीस ही

    सामान्य केवली - संख्या निश्चित नहीं। तीर्थकर होते हैं।

    तीर्थकर केवली - चिह्न नहीं होते हैं।

    सामान्य केवली - तीर्थकरों के चिह्न होते हैं।

    Edited by admin


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