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1 point11 जुलाई 2019 - मुनि श्री निकलंकसागर जी महाराज प्रवचन
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1 pointजो प्राणियों को संसार के दु:ख से उठाकर उत्तम सुख (वीतराग सुख) में धरता है उसे धर्म कहते हैं। यहाँ पर उत्तम क्षमादि रूप दश प्रकार का धर्म कहा गया है - १. उत्तम क्षमा धर्म २. उत्तम मादर्व धर्म ३. उत्तम आर्जव धर्म ४. उत्तम शौच धर्म ५. उत्तम सत्य धर्म ६. उत्तम संयम धर्म ७. उत्तम तप धर्म ८. उत्तम त्याग धर्म ९. उत्तम अकिंचन्य धर्म १०. उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म । १. क्रोध उत्पन्न होने के साक्षात् बाहरी कारण मिलने पर तथा अपराधी के प्रति प्रतिकार करने की क्षमता होने पर भी क्रोध न करना, उन पर क्षमा भाव रखना उत्तम क्षमा धर्म है। क्षमा धर्म के पालनार्थ निम्न भावना भानी चाहिए अ. यदि अविद्यमान दोषों को कह रहा है तो वह अज्ञानी है अत: उस पर क्षमा धारण करना चाहिए। ब. यदि विद्यमान दोषों को कह रहा है तो वह उपकारी है वह मेरे दोष मुझे बताकर, दोष रहित होने की ओर प्रेरित कर रहा है। २. मृदुता, नम्रता का होना मार्दव है, श्रेष्ठ कुल, जाति, रूप, तप, बुद्धि, व्रत, आज्ञा-ऐश्वर्यादि होने पर भी घमंड नहीं करना उत्तम मार्दव धर्म है। मार्दव धर्म के पालनार्थ निम्न भावना भानी चाहिए अ. मैं इस संसार में अनेक बार नीच कुल, नीच अवस्थाओं को प्राप्त कर चुका हूँ। ब. मुझसे भी श्रेष्ठ कुल वाले, श्रेष्ठ रूपवान आदि लोग इस जगत में भरे पड़े हैं। स. बाहरी वैभव, शरीरादि सब पूर्व पुण्य के उदय से प्राप्त हैं परन्तु ये सभी पदार्थ अनित्य, शीघ्र ही नष्ट होने वाले हैं। द. मान कषाय इह लोक व परलोक सभी जगह दु:ख देने वाली है। ३. ऋजुता, सरलता का होना आर्जव है। कुटिलता पूर्वक मन, वचन, काय की प्रवृति नहीं करना। छल-कपट नहीं करना, अपने दोष नहीं छिपाना उत्तम आर्जव धर्म है। आर्जव धर्म के पालनार्थ निम्न भावनाएँ भानी चाहिए अ. सैकड़ों उपाय कर के छुपाया दोष भी कालान्तर में प्रगट हो ही जाता है। ब. यश, वैभव आदि छल-कपट से नहीं अपितु पूर्व पुण्य से प्राप्त होते हैं। स. मायाचार दुर्गतियों का कारण है। ४. निलभता, संतोष रूप परिणाम का होना उत्तम शौच धर्म है। समभाव और संतोष रूपी जल तृष्णा और लोभ रूपी मल को धोने वाला, भोजनादि के प्रति गृद्धता का अभाव रूप शौच धर्म है। शौच धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. पुण्य रहित मनुष्य को लोभ करने पर भी इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है। ब. अनन्त बार ग्रहण कर धनादिकों का त्याग कर चुका हूँ अथवा वह स्वयं ही छूट चुका है। स. यह लोभ सद्गुणों को दूर भगाने में कारण है तथा नरकादि दुर्गतियों में ले जाने वाला, अनेक दु:खों की बीज भूत है। ५. अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना अथवा दूसरों को कष्ट न हो ऐसे अपने व दूसरों के हित करने वाले वचनों को बोलना उत्तम सत्य धर्म है। यदि कदाचित सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत हो तो मौन रहना उचित है। सत्य धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. सभी गुण, सम्पदाएँ सत्य वत्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। ब. झूठ के बोलने वाले का कोई मित्र नहीं होता, सभी जगह उसका तिरस्कार होता है। स. असत्यवादी इस लोक में जिह्वा छेद आदि दु:खों को एवं परलोक अशुभ गति, मूकता आदि को प्राप्त होता है। ६. सम्यक् रूप से यम अर्थात् नियन्त्रण सो संयम है। पृथ्वीकायिक आदि पंचस्थावर एवं त्रस कायिक जीवों की विराधना, हिंसा नहीं करना तथा पाँच इन्द्रिय और मन को वश में रखना उत्तम संयम धर्म है। संयम धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ कर्मों का संचय करता है। ब. संयम के बिना स्वर्ग-मोक्ष आदि की संपदा नहीं मिल सकती है। स. संयम योग्य पर्याय की दुर्लभता का चिंतन। ७. कर्म क्षय के लिए, अन्तरंग में समता भाव धारण करते हुए विवेक पूर्वक (शक्ति के अनुसार) बाह्य -अभ्यन्तर तपों को धारण करना उत्तम तप धर्म है। तप धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. तप के द्वारा ही पूर्व संचित कर्म नष्ट हो सकते हैं। ब. तप के द्वारा सहिष्णुता, परीषह जय आदि गुणों की प्राप्ति होती है। स. अभ्यन्तर एवं बहिरंग शुद्धि का मूल कारण तप है। ८. आत्मा के विकारी भावों का परित्याग करने के लिए प्रयत्न करना एवं चौदह प्रकार के अंतरंग तथा दस प्रकार के बाहय परिग्रह का त्याग करना अथवा अपेक्षा रहित ज्ञान दानादि का देना उत्तम त्याग धर्म है। त्याग धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. त्याग ही समस्त आकुलता, संकल्प विकल्प को नष्ट करने का साधन है। ब. त्याग को स्वीकार किए बिना मुक्ति संभव नहीं। स. विषय कषाय एवं परिग्रह का त्याग करने वाला बड़े-बड़े राजा महाराजा तथा इन्द्रों के द्वारा भी पूज्य हो जाता है। ९. शरीर एवं बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व न रखते हुए स्व तत्व (आत्म तत्व) में उपादेय बुद्धि रखना उत्तम अकिंचन्य धर्म है। अकिंचन्य धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. जब निरन्तर पाल-पोष कर पुष्ट किया यह शरीर भी मेरा नहीं है तो अन्य पदार्थ मेरे कैसे हो सकते हैं। ब. जीव अकेला ही जन्मता-मरता, सुख-दु:ख का भोता होता है। स. मैं शाश्वत्, अजर-अमर, सुख स्वभाव वाला हूँ। १०. मानुषी, देवी, तिर्यञ्चनी और अचेतन (चित्र, काष्ठादि में निर्मित) इन चारों प्रकार की स्त्रियों के संसर्ग से सर्वथा मुक्त होकर, त्रिकाली, शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव वाली निज आत्मा में रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है। ब्रह्मचर्य धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य ही सर्व ऋद्धि-सिद्धि को देने वाला है। ब. स्त्री संसर्ग से उत्पन्न दोष एवं शरीर की अशुचिता का चिंतन करें।स. इन्द्रिय सुख की नश्वरता एवं अतीन्द्रिय सुख शाश्वतता का विचार करें।