मोही कहे कि शुभ भाव सुशील प्यारा, खोटा बुरा अशुभभाव कुशील खारा।
संसार के जलधि में जब जो गिराता, कैसे सुशील शुभभाव! मुझे न भाता ॥१५२॥
दो बेड़ियाँ, कनक की इक लोह की है, ज्यों एक-सी पुरुष को कस बाँधती है।
लो कर्म भी अशुभ या शुभ क्यों न ह्येवें, त्यों बाँधते नियम से जड़-जीव को वे ॥१५३॥
दोनों शुभाशुभ कुशील, कुशील त्यागो, संसर्ग राग इनका तज नित्य जागो।
संसर्ग राग इनका यदि जो रखेगा, स्वाधीनता विनशती, दुख ही सहेगा ॥१५४॥
संरक्षणार्थ निज को लख तस्करों को, जैसा यहाँ मनुज सज्जन, दुर्जनों को।
संसर्ग राग उनका झट छोड़ देता, देता न साथ, उनसे मुख मोड़ लेता ॥१५५॥
वैसा हि दुःख सुखदों अशुभों-शुभों को, कर्मो असार जड़-पुद्गल के फलों को।
शुद्धात्म में निरत साधु विसारते हैं, सानन्द वे समय-सार निहारते हैं ॥१५६॥
जो राग में रेंग रहा वसुकर्म पाता, योगी विराग भवमुक्त बने प्रमाता।
ऐसा जिनेश कहते शिव हैं विधाता, रागी! विराग बन क्यों रति गीत गाता ॥१५७॥
ये केवली समय औ मुनि शुद्ध ध्यानी, एकार्थ के वचन हैं परमार्थ ज्ञानी।
साधू स्वभाव रत वे निज धाम जाते, आते न लौट भव बीच विराम पाते ॥१५८॥
आतापनादि तप से तन को तपाना, अध्यात्म से स्खलित हो व्रत को निभाना।
हे सन्त बाल तप संयम वो कहाता, ऐसा जिनेश कहते भव में घुमाता ॥१५९॥
लो! अज्ञ साधु यम संयम शीलधारी, शास्त्रानुसार करता तप धीर भारी।
मानो कि लीन परमार्थ समाधि में है, पाता न पार दुख पाय भवाब्धि में है ॥१६०॥
साधू समाधि-च्युत मूढ़ यथार्थ में हैं, दूरातिदूर परमार्थ पदार्थ से हैं।
संसार हेतु, शिव हेतु न जानते हैं, वे पुण्य को इसलिए बस चाहते हैं ॥१६१॥
तत्त्वार्थ की रुचि सुदर्शन नाम पाता, औ तत्त्व को समझना वह ज्ञान साता।
रागादि त्याग करना वह वृत्त होता, तीनों मिले बस वही शिव पन्थ होता ॥१६२॥
ज्ञानी कभी न भजते व्यवहार व्याधि, हो निर्विकल्प, तजते न सुधी समाधि।
होते विलीन परमार्थ पदार्थ में हैं, काटे कुकर्म बस साधु यथार्थ में है॥१६३॥
ज्यों वस्त्र पे चिपकती मल-धूल-माती, तो वस्त्र की धवलता मिट क्या न जाती?
मिथ्यात्व की मलिनता मुझको न भाती, सम्यक्त्व की उजलता शुचिता मिटाती ॥१६४॥
ज्यों वस्त्रपे चिपकती मल-धूल-माती, तो वस्त्र की धवलता मिट क्या न जाती?
अज्ञान की मलिनता चिपकी जभी से, विज्ञान की उजलता मिटती तभी से ॥१६५॥
ज्यों वस्त्र पे चिपकती मल धूल-माती, तो वस्त्र की धवलता मिट क्या न जाती?
काषायिकी मलिनता लगती जभी से, चारित्र की उजलता मिटती तभी से ॥१६६॥
आत्मा विशुद्ध-नय से निज भाव स्पर्शी, होगा भले सकलविज्ञ त्रिकालदर्शी।
पै वर्तमान! विधि से कस के बँधा है, है जानता कुछ नहीं समझो मुधा है॥१६७॥
सम्यक्त्व का यदि रहा जग में विरोधी, मिथ्यात्व है, कह रहे जिन, धार बोधि।
मिथ्यात्व के उदय में यह जीव होता, मोही कुदृष्टि, दुख से दिन-रैन रोता ॥१६८॥
आलोक का तम विरोधक ज्यों बताया, अज्ञान ज्ञान गुण का जिनदेव गाया।
अज्ञान के उदय में यह जीव होता, कर्त्तव्य मूढ़ फिरता भव बीच रोता ॥१६९॥
चारित्र का रिपु कषाय, कषाय-त्यागी, ऐसा जिनेश कहते, प्रभु-वीतरागी।
दुःखात्मिका उदय में कुकषाय आती, तो जीव को चरितहीन बना, सताती ॥१७०॥