मिथ्यात्व औ अविरती कुकषाय योग, ये हैं अचेतन सचेतन से द्वियोग।
संयोग रूप जड़ है पुनि आत्म रूप, होते अनेक विध हैं अघ दुःख कूप ॥१७१॥
संयोग रूप जड़ प्रत्यय हेतु होते-दुष्टाष्ट कर्म दल के दुख बीज बोते ॥
रागादिमान उनके पुनि हेतु होते-होते तभी नित दुखी जग जीव रोते ॥१७२॥
ना कर्म बंध करता समदृष्टि होता, पै रोक आस्रव, सुसंवर तत्त्व जोता।
प्राचीन बंध भर को बस जानता है, पूजें उसे झट तजूँ अभिमानता मैं ॥१७३॥
ज्यों जीव राग करता निज भूल जाता, तो कर्म बंध करता प्रतिकूल जाता।
जो राग से मुनि-सुधी मन मोड़ लेता, होता अबंध भव-बंधन तोड़ देता ॥१७४॥
आ, जा रहा उदय में फल दे तथापि, वो ही पुनः करम ना बँधता कदापि।
लो वृक्ष से फल पका गिरता मही पे, जाके पुनः वह वही लगता नहीं पै ॥१७५॥
रागादिरूप उपयोग ढला नहीं है, ज्ञानी तभी निरखता विधि को सही है।
अज्ञान से कुछ बँधे विधि हो पुराणे, दीवार पे चिपकती रज के प्रमाणे ॥१७६॥
प्रत्येक काल चउ प्रत्यय कर्म-भारा, बाँधे सरागमय-दर्शन-बोध द्वारा।
ज्ञानी अतः न बँधता विधि-बंधनों से, होता विभूषित सदा मुनि सद्गुणों से ॥१७७॥
ना निर्विकल्प, सविकल्पक हो तना है, वो ज्ञान-ज्ञान नहिं रागमयी बना है।
है बार-बार वह ज्ञान कुकर्म लाता, स्वामिन्! नहीं परम पूरण वृत्त पाता ॥१७८॥
सम्यक्त्व-बोध-व्रत ये जबलौं न पूरे, होते सराग फलतः रहते अधूरे।
ज्ञानी नितान्त तबलौं विधि-बंध बाँधे, साधे न मोक्ष निज को न लखे अराधे ॥१७९॥
बाँधे हुए विगत में विधि-बंध सारे, सम्यक्त्व युक्त मुनि में रहते विचारे।
आते यदा उदय में यदि राग होता, होता नवीन विधि-बंधन, साम्य खोता ॥१८०॥
जैसी यहाँ नव लता सम सौम्य बाला, होती युवा पुरुष की नहिं भोग शाला।
ज्यों ही वही मद भरे कुचधार पाती, भोग्या, बनी, पुरुष के मन को चुराती ॥१८१॥
वे सुप्त-गुप्त विधि भी नहिं भोग्य होते, आते यदा उदय में फिर भोग्य होते।
रागादि, जीवकृत-भाव निमित्त पाते, सप्ताष्ट भेदमय कर्म तभी बनाते ॥१८२॥
शुद्धोपयोग बल से समदृष्टि योगी, होता न बंधक अतः तज भोग भोगी।
औचित्य आस्रव बिना विधि-बंध कैसा? हो जाय कारण बिना फिरकार्य कैसा? ॥१८३॥
योगी विराग समदृष्टि वही सही है, संमोह रोष रति ये जिनमें नहीं है।
रागादि आस्रव बिना, विधि-बंध हेतु, होते न प्रत्यय कभी यह जान रे तू ॥१८४॥
सिद्धान्त में कथित प्रत्यय चार होते, दुष्टाष्ट कर्म जिस कारण बंध होते।
रागादि हेतु बनते चउ प्रत्ययों के, रागादिका विलय ही विधि-बंध रोके ॥१८५॥
जैसा यहाँ उदर के अनलानुसार, औ क्षेत्र आयु निजकाय बलानुसार।
खाया हुआ अशन मांस-वसादिकों में, कालानुसार ढलता तन-धातुओं में ॥१८६॥
वैसा अनेक विधि पुद्गल प्रत्ययों में, ज्ञानी बँधा विगत में विधि-बंधनों से।
हो! कर्म-बन्ध, पर से मन जोड़ता है, आधार शुद्धनय का जब छोड़ता है॥१८७॥