समाधिसुधा-शतक
(1971)
आचार्य पूज्यपाद के द्वारा चित्त को विभाव परिणति से हटाकर स्वभाव में स्थिर करने के लिए समाधितंत्र ग्रन्थ का सृजन हुआ। आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने वसंततिलका छन्द के १०५ पद्यों में पद्यानुवाद करके अंत में रचनाकार के स्मरणपूर्वक स्व-नाम का उल्लेख करते हुए उनके श्री-चरणों में प्रणाम निवेदित किया है। अध्यात्म-परक छन्द का पद्यानुवाद दृष्टव्य
काया अचेतन-निकेतन दृश्यमान,
दुर्गन्ध-धाम पर है। क्षण नश्यमान।
तो रोष-तोष किसमें मम हो महात्मा!,
मध्यस्थ हूँ इसलिए जब चेतनात्मा ॥४६॥
समाधि-सुधा-शतकम् नामक यह पद्यानुवाद सन् १९७१ के मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राजस्थान) में हुए वर्षायोग काल के दौरान पूर्ण हुआ था।
इस कृति में उन देहानुरागी जीवों को चेतावनी दी गई है जिन्होंने मिथ्यात्व के उदय से जड़ देह को ही आत्मा समझ रखा है। ऐसा मोहग्रस्त रागी अपने स्वभाव' को कभी नहीं समझ सकता। अतः रचयिता कहते हैं
जो ग्रन्थ त्याग, उर में शिव की अपेक्षा,
मोक्षार्थी मात्र रखता, सबकी उपेक्षा।
होता विवाह उसका शिवनारि-संग;
तो मोक्ष चाह यदि है बन तू निसंग ॥७१॥
जो आत्म ध्यान करता दिन-रैन त्यागी,
होता वही परम आतम वीतरागी।
संघर्ष में विपिन में स्वयमेव वृक्ष;
होता यथा अनल है अयि भव्य दक्ष! ॥९८॥