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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अनित्यानुप्रेक्षा

     

     

     

    सर्वोत्तमा भवन वाहन यान सारे, ये आसनादि शयनादिक प्राण प्यारे।

    माता पिता स्वजन सेवक दास दासी, राजा प्रजाजन सुरेश विनाश राशी ॥३॥

     

    लावण्य-लाभ बल यौवन रूप प्यारा, सौभाग्य इन्द्रिय सतेज अनूप सारा।

    आरोग्य संग सबमें पल आयु वाले, हो नष्ट ज्यों सुरधनु बुध यों पुकारें ॥४॥

     

    होके मिटे कि बलदेव नरेन्द्र का भी, नागेन्द्र का सुपद त्यों न सुरेन्द्र का भी।

    ये मेघ दृश्य सम या जल के बबूले, विद्-युत् सुरेश धनु से नसते समूले ॥५॥

     

    लो! क्षीर नीर सम, मिश्रित, काय यों ही, जो जीव से दृढ़ बंधा नश जाय मोही !

    भोगोपभोग अघकारण द्रव्य सारे, कैसे भले ध्रुव रहें व्यय शील-वाले ॥६॥

     

    है वस्तुतः नर सुरासुर वैभवों से, आत्मा रहा पृथक भिन्न भवों-भवों से।

    ऐसा करो सतत चिंतन, जी रहा है, आत्मा वही अमर शाश्वत ही रहा है ॥७॥

     

    अशरणानुप्रेक्षा

     

    घोड़े बड़े, रथ खड़े, मणि मंत्र हाथी, विद्या दवा सकल रक्षक संग साथी।

    पै मृत्यु के समय में जग में हमारे, होंगे नहीं शरण ये बुध यों विचारे ॥८॥

     

    है स्वर्ग-दुर्ग सुरवर्ग सुभृत्य होता, है वज्र शस्त्र जिसका वह इन्द्र होता।

    ऐरावता गज गजेन्द्र सवार होता, ना! ना! उसे शरण अंतिम बार होता ॥९॥

     

    अश्वादि पूर्ण बल है चतुरंग सेना, दो सात रत्न निधियाँ नव रंग लेना।

    चक्रेश को शरण ये नहिं अन्त में हो, खा जाय काल लखते लखते इन्हें वो ॥१०॥

     

    लो रोग से जनन-मृत्यु-जरादिकों से, रक्षा निजात्म निज की करता अघों से।

    त्रैलोक में इसलिए निज आतमा ही, है वस्तुत; शरण लो अघ खातमा ही ॥११॥

     

    ये पाँच इष्ट अरहंत सुसिद्ध प्यारे, आचार्यवर्य उवझाय सुसाधु सारे।

    आत्मा निजात्ममय ही करता इन्हें है, आत्मा अतः शरण ही नमता मुझे है॥१२॥

     

    सद्ज्ञान और समदर्शन भी लखे हैं, सच्चा चरित्र तप भी जिसमें बसे हैं।

    आत्मा वही नियम से समझो कहाता, आत्मा अतः शरण हो मम प्राण त्राता ॥१३॥

     

    एकत्वानुप्रेक्षा

     

    आत्मा यही विविध कर्म करे अकेला, संसार में भटकता चिर से अकेला।

    है एक ही जनमता मरता अकेला, है भोगता करम का फल भी अकेला ॥१४॥

     

    है एक ही विषय की मदिरा सदा पी, औ तीव्र लोभवश हो, कर पाप पापी।

    तिर्यञ्च की नरक की दुख योनियों में, भोगे स्व-कर्म फल एक भवों भवों में ॥१५॥

     

    दे पात्र दान उस धर्म निमित्त आत्मा, है एक ही करत पुण्य अये महात्मा।

    होता मनुष्य फलतः दिवि देव होता, पै एक ही फल लखे स्वयमेव ढोता ॥१६॥

     

    उत्कृष्ट पात्र वह साधु अहो रहा है, सम्यक्त्व से सहित शोभित हो रहा है।

    सम्यक्त्व धार इक देशव्रती सुहाता, है पात्र मध्यम सुश्रावक ही कहाता ॥१७॥

     

    सम्यक्त्व पा अविरती रहता सरागी, होता जघन्य वह पात्र न पाप-त्यागी।

    सम्यक्त्व से रहित मात्र अपात्र जानो, भाई अपात्र अरु पात्र सही पिछानो ॥१८॥

     

    वे भ्रष्ट हैं पतित, दर्शन भ्रष्ट जो हैं, निर्वाण प्राप्त करते न निजात्म को हैं।

    चारित्र भ्रष्ट पुनि चारित ले सिजेंगे, पे भ्रष्ट दर्शनतया नहिं वे सिजेंगे ॥१९॥

     

    मैं हूँ विशुद्धतम निर्मम हूँ अकेला, विज्ञान दर्शन सुलक्षण मात्र मेरा।

    एकत्व का सतत चिंतन साधु ऐसा, आदेय मान करते रहते हमेशा ॥२०॥


     

    अन्यत्वानप्रेक्षा

     

    माता पिता सुत सुता वनिता व भ्राता, हैं जीव से पृथक हैं रखते न नाता।

    ये बाह्य में सहचरी दिख भी रहे हैं, मोहाभिभूत मदिरा नित पी रहे हैं ॥२१॥

     

    स्वामी मरा मम, रहा मम प्राण प्यारा, यों शोक नित्य करता जड़ ही विचारा।

    पै डूबता भव पयोनिधि में निजी की, चिंता कभी न करता गलती यही की ॥२२॥

     

    मैं शुद्ध चेतन, अचेतन से निराला, ऐसा सदैव कहता समदृष्टिवाला।

    रे देह नेह करना अति दुःख पाना, छोड़ो उसे तुम यही गुरु का बताना ॥२३॥

     

    संसारानुप्रेक्षा

     

    संसार पंच विध है दुख से भरा है, है रोग शोक मृति जन्म जहाँ जरा हैं।

    जो मूढ़ गूढ़ निज को न निहारता है, संसार में भटकता चिर हारता है॥२४॥

     

    संसार में विषय पुद्गल में अनेकों, भोगे तजे बहुत बार नितान्त देखो।

    संसार द्रव्य परिवर्तन वो रहा है, अध्यात्म के विषय में जग सो रहा है ॥२५॥

     

    ऐसा न लोक भर में थल ही रहा हो, तूने गहा न तन को क्रमशः जहाँ हो।

    छोटे बड़े धर सभी अवगाहनों को, संसार क्षेत्र' पलटे बहुशः अनेकों ॥२६॥

     

    उत्सर्पिणीव अवसर्पिण की अनेकों, कालावली वरतती अयि भव्य देखो।

    यों जन्म मृत्यु उनमें बहु बार पाये, हो मूढ़ काल परिवर्तन भी कराये ॥२७॥

     

    तूने जघन्य नरकायु लिए बिताये, ग्रैवेयकांत तक अंतिम आयु पाये।

    मिथ्यात्व धार भव के परिवर्तनों को, पूरे किये बहु व्यतीत युगों युगों को ॥२८॥

     

    लो सर्व कर्म स्थिति यों अनुभाग बंधों, बाँधे प्रदेश विधि के अयि भव्यबंधो!

    मिथ्यात्व के वश हुए भव में भ्रमाये, ऐसे अनंत भव भावमयी बिताये ॥२९॥

     

    स्त्री पुत्र मोह वश ही धन है कमाता, पापी बना विषम जीवन है चलाता।

    तो दान धर्म तजता निज भूल जाता, संसार में भटकता प्रतिकूल जाता ॥३०॥

     

    स्त्री पुत्र धान्य धन ये मम कोष प्यारे, यों तीव्र लोभ-मद पी सब होश टारे।

    सद्धर्म से बहुत ही बस ऊब जाते, मोही अगाध भव सागर डूब जाते ॥३१॥

     

    मिथ्यात्व के उदय से जिन धर्म निंदा, पापी सदैव करता नहिं आत्म निंदा।

    जाता कुतीर्थ, व कुलिंग कुधर्म माने, संसार में भटकता, सुन तू सयाने ॥३२॥

     

    हो क्रूर जीव वध भी कर मांस खाता, पीता सुरा मधु-चखे तन दास भाता।

    पापी पराय धन स्त्री हरता सदा है, संसार में गिर, सहे दुख आपदा है॥३३॥

     

    संसार में विषय के वश जो रहेगा, सो यत्न रात-दिन भी अघ का करेगा।

    मोहांधकार युत जीवन जी रहा है, संसार में भटकता ‘लघुधी रहा है॥३४॥

     

    दोनों निगोद चउ थावर सप्त सप्त, हैं लक्ष हो विकल इन्द्रिय है षडत्र।

    हैं वृक्ष लक्ष दश चौदह लक्ष मर्त्य, चौरासि-लक्ष सब योनि सुजान मर्त्य ॥३५॥

     

    मानापमान मिल जाय अलाभ होता, होता कभी सुख कभी दुख लाभ होता।

    होता वियोग विनियोग सुयोग होता, संसार को निरख तू उपयोग जोता ॥३६॥

     

    हैं कर्म के उदय से जग जीव सारे, दिग् मूढ़ घोर भव कानन में विचारे।

    संसार-तत्त्व नहिं निश्चय से तथापि, हैं जीव मुक्त विधि से चिर से अपापी ॥३७॥

     

    होता अतीत भव से पढ़ आत्म गाथा, आदेय-ध्येय वह जीव सदा सुहाता।

    संसार दुःख सहता दिन-रैन रोता, ऐसा विचार वह केवल हेय होता ॥३८॥

     

    लोकानुप्रेक्षा

     

    जीवादि द्रव्य-दल शोभित हो रहा है, है लोक स्वीकृत सुनो तुम वो रहा है।

    पाताल-मध्य पुनि ऊर्ध्व प्रभेद द्वारा, सो लोक भी त्रिविध है दुख का पिटारा ॥३९॥

     

    नीचे जहाँ नरक, नारक नित्य रोते, हैं मध्य में जलधि द्वीप असंख्य होते।

    हैं ऊर्ध्व में स्वरग त्रेसठ भेदवाले, लोकान्त में परम मोक्ष मुनीश पाले ॥४०॥

     

    हैं एकतीस पुनि सात व चार दो हैं, है एक एक छह यों क्रमवार जो हैं।

    औ तीन बार त्रय हैं इक एक सारे, ऋज्वादि ये पटल त्रेसठ है उजाले ॥४१॥

     

    स्वर्गीय मर्त्य सुख हो शुभ से सुनो रे! शुद्धोपयोग बल से शिव हो गुणो रे।

    पाताल हो अशुभ से पशु या विचारो, यों लोक चिंतन करो अघ को विसारो ॥४२॥

     

    अशुच्यानुप्रेक्षा

     

    पूरी ढकी चरम से बहु अस्थियों से, काया बंधी व लिपटी पल पेशियों से।

    कीड़े जहाँ बिलबिला करते सदा हैं, मैली घृणास्पद यही तन संपदा है ॥४३॥

     

    बीभत्स है तन अचेतन है विनाशी, दुर्गन्ध मांस पल का घर रूपराशी।

    धारा स्वभाव सड़ना गलना सदा ही, ऐसा सुचिंतन करो शिव राह राही ॥४४॥

     

    मज्जा व मांस रस रक्त व मेद वाला, है मूत्र पीव कृमिधाम शरीर कारा।

    दुर्गन्ध है अशुचि चर्ममयी विनाशी, जानो अचेतन अनित्य अरे विलासी ॥४५॥

     

    है कर्म से रहित है तन से निराला, होता अनन्त सुखधाम सदा निहाला।

    आत्मा सचेतन निकेतन है अनोखा, भा भावना सतत तू इस भाँति चोखा ॥४६॥

     

    आस्रवानुप्रेक्षा

     

    मिथ्यात्व औ अविरती व कषाय चारों, औ योग आस्रव रहें इनको विसारो।

    ये पाँच पाँच क्रमशः चउ तीन भाते, सत् शास्त्र शुद्ध इनका शुचि गीत गाते ॥४७॥

     

    एकान्त औ विनय औ विपरीत चौथा, अज्ञान संशय करे निजरीत खोता।

    मिथ्यात्व यों नियम से वह पंचधा है, हिंसादि से अविरती वह पंचधा है॥४८॥

     

    माया प्रलोभ पुनि मान व क्रोध चारों, होते कषाय दुख दे इनको विसारो।

    वाक्काय और मन ये त्रय योग होते, वे सिद्ध योग बिन हो उपयोग ढोते ॥४९॥

     

    होता द्विधा वह शुभाशुभ भेद द्वारा, प्रत्येक योग समझो गुरु ने पुकारा।

    आहार आदिक रही यह चार संज्ञा, होता वही अशुभ है ‘मन’ मान अज्ञा ॥५०॥

     

    लेश्या सभी अशुभ जो प्रतिकूल बाना, धिक्कार इन्द्रिय सुखों नित झूल जाना।

    ईर्षा विषाद, इनको जिनशास्त्र गाता, ये ही रहे अशुभ सो मन, दुःखदाता ॥५१॥

     

    नौ नोकषायमय जो परिणाम होना, संमोह रोष रति को अविराम ढोना।

    हो स्थूल सूक्ष्म कुछ भी जिन का बताना, वे ही रहे अशुभ सो मन दु:ख बाना ॥५२॥

     

    स्त्री राज चोर अरु भोजन की कथायें, माना बुरा वचन योग, करें व्यथा ये।

    औ छेदनादि वधनादि बुरी क्रियायें, सो काय का अशुभ योग, यती बतायें ॥५३॥

     

    पूर्वोक्त जो अशुभ भाव उन्हें विसारे, छोड़े तथा अशुभ द्रव्य अशेष सारे।

    हो संयमी समिति शील व्रतों निभाना, जानो उसे शुभ रहा मन योग बाना ॥५४॥

     

    बोलो वही वचन जो भव दु:खहारी, सो योग है वचन का शुभ सौख्यकारी।

    सद्देव शास्त्र गुरु पूजन लीन काया, सो काय योग शुभ है जिन ईश गाया ॥५५॥

     

    जो दुःखरूप जल जंगम से भरा है, ले दोषरूप लहरें लहरा रहा है।

    खाता, भवार्णव जहाँ यह जीव गोता, है कर्म-आस्रव सहेतु सदीव होता ॥५६॥

     

    ज्यों ही कुधी करम-आस्रव खूब पाता, त्यों ही अगाध भवसागर डूब जाता।

    सज्ञान मंडित क्रिया कर तू जरा से, है मोक्ष का वह निमित्त परंपरा से ॥५७॥

     

    ज्यों ही कुधी करम-आस्रव खूब पाता, त्यों ही अगाध भवसागर डूब जाता।

    जो आस्रवा वह क्रिया शिव का न हेतु, ऐसा विचार कर नित्य नितान्त रे तू ॥५८॥

     

    हो सास्रवी वह क्रिया न परंपरा से, निर्वाण हेतु तुम तो समझो जरा से।

    संसार के गमन का वह हेतु होता, है निंद्य आस्रव हमें भव में डुबोता ॥५९॥

     

    पूर्वोक्त आस्रव विभेद निरे निरे हैं, आत्मा विशुद्ध नय से उनसे परे है।

    आत्मा रहा उभय आस्रव मुक्त ऐसा, चिंते सभी तज प्रमाद सुधी हमेशा ॥६०॥

     

    संवरानुप्रेक्षा

     

    सम्यक्त्व का दृढ़ कपाट विराट प्यारा, जो शून्य है चलमलादि अगाढ़ द्वारा।

    मिथ्यात्वरूप उस आस्रव द्वार को है, जो रोकता जिन कहे जग सार सो है ॥६१॥

     

    पाले मुनीश-मन पंच महाव्रतों को, रोके सही अविरतीमय आस्रवों को।

    जो निष्कषायमय पावन भाव-धारे, रोके कषायमय आस्रव द्वार सारे ॥६२॥

     

    औचित्य है कि शुभ योग विकास पाता, सद्यः स्वतः अशुभ योग विनाश पाता।

    शुद्धोपयोग शुभयोगन को नशाता, ऐसा वसंततिलका यह छन्द गाता ॥६३॥

     

    शुद्धोपयोग बल वो मिलता जिसे है, तो धर्म शुक्लमय ध्यान मिले उसे है।

    है ध्यान हेतु विधि संवर का इसी से, ऐसा करो सतत चिंतन भी रुची से ॥६४॥

     

    जीवात्म में न वर संवर भाव होता, वो तो विशुद्ध नय से शुचि भाव ढोता।

    आत्मा विमुक्त वर संवर भाव से रे! ऐसा सुचिंतन सदा कर चाव से रे॥६५॥

     

    निर्जरानुप्रेक्षा

     

    जो भी बंधा पृथक हो विधि आतमा से, सो निर्जरा जिन कहे निज की प्रभा से।

    हो संवरा जिस निजी परिणाम द्वारा, हो निर्जरा वह उसी परिणाम द्वारा ॥६६॥

     

    सो निर्जरा द्विविध, एक असंयमी में, होती सभी गतिन में इक संयमी में।

    आद्या स्वकाल विधि का झरना कहाती, दूजी तपश्चरण का फल रूप भाती ॥६७॥

     

    धर्मानुप्रेक्षा

     

    है धर्म ग्यारह तथा दश भेदवाला, सम्यक्त्व से सहित है निज वेद शाला।

    सागार और अनगार जिसे निभाते, पा श्रेष्ठ सौख्य जिन यों हमको बताते ॥६८॥

     

    सद्दर्शना सुव्रत सामयिकी सुभक्ति, औ प्रौषधी सचित त्याग दिवाभिभुक्ति।

    है ब्रह्मचर्य व्रत सार्थक नाम पाता, आरंभ संग अनुमोदन त्याग साता।

    उद्दिष्टत्याग व्रत ग्यारह ये कहाते, हैं एकदेश व्रत श्रावक के सुहाते ॥६९॥

     

    प्यारी क्षमा मृदुलता ऋजुता सचाई, औ शौच संयम धरो तप धार भाई।

    त्यागो परिग्रह अकिंचन गीत गा लो, तो! ब्रह्मचर्य सर में डुबकी लगा लो ॥७०॥

     

    साक्षातकार यदि हो उससे, खड़ा है, जो क्रोध का जनक बाहर में अड़ा है।

    पै क्रोध-लेश तक भी मन में न लाते, पाते क्षमा धरम वे मुनि हैं कहाते ॥७१॥

     

    हूँ श्रेष्ठ जाति कुल में श्रुत में यशस्वी, ज्ञानी सुशील अतिसुन्दर हूँ तपस्वी।

    ऐसा नहीं श्रमण हो मन मान लाते, औचित्य! वे “परम मार्दव धर्म' पाते ॥७२॥

     

    कौटिल्य-छोड़ मुनि चारित पालता है, हीराभ सा विमल मानस धारता है।

    सो तीसरा परम आर्जव धर्म पाता, है अन्त में नियम से शिवशर्म पाता ॥७३॥

     

    मिश्री मिले वचन ये रुचते सभी को, संताप हो श्रवण से न कभी किसी को।

    कल्याण हो स्वपर का मुनि बोलता है, सो सत्य धर्म उसका दृग खोलता है॥७४॥

     

    भोगाभिलाष जिसने मन से हटाया, वैराग्य भाव दृढ़ से निज में जगाया।

    ऐसा महा मुनिपना मुनि ही निभाता, सो, शौच धर्ममय जीवन है बिताता ॥७५॥

     

    जो पालता समिति इन्द्रिय जीतता है, है योग-रोध करता, व्रत धारता है।

    ऐसा महाश्रमण जीवन जी रहा है, सद्धर्म संयम-सुधा वह पी रहा है॥७६॥

     

    फोड़ा कषाय घट को, मन को मरोड़ा, लो साधु ने विषय को विष मान छोड़ा।

    स्वाध्याय ध्यान बल से निज को निहारा, पाया नितान्त उसने तप धर्म प्यारा ॥७७॥

     

    वैराग्य धार भव भोग स्वदेह से वो, देखा स्व को यदि सुदूर विमोह से हो।

    तो त्याग धर्म समझा उसने लिया है, संदेश यों जगत को प्रभु ने दिया है॥७८॥

     

    जो अंतरंग-बहिरंग निसंग नंगा, होता दुखी नहिं सुखी बस नित्य चंगा।

    निर्द्वन्द्व हो विचरता अनगार होता, भाई वही वर अकिंचन धर्म ढोता ॥७९॥

     

    सर्वांग देखकर भी वनिता जनों के, होते न मुग्ध उनमें मुनि हैं अनोखे।

    तो ब्रह्मचर्य व्रत धारक वे रहे हैं, कन्दर्प-दर्प-अपहारक वे रहे हैं ॥८०॥

     

    सागार-धर्म तज के अनगार होते, शास्त्रानुसार यति के व्रतसार जोते।

    रीते रहे न शिव से अनिवार्य पाते, यों धर्म चिंतन करो अयि! आर्य तातें ॥८१॥

     

    सागार-धर्म यति-धर्म निरे-निरे हैं, आत्मा विशुद्ध नय से उनसे परे है।

    मध्यस्थ भाव उनमें रखना इसी से, शुद्धात्मचिंतन सदा करना रुची से ॥८२॥

     

    सद्दज्ञान होय जिस भाँति उपाय द्वारा, चिंता करें उस उपायन की सुचारा।

    चिंता वही परम बोधि अहो कहाती, सो बोधि दुर्लभ अतीव मुझे सुहाती ॥८३॥

     

    जो भी क्षयोपशम ज्ञानन की छटायें, हैं हेय कर्मवश लो उपजी दशायें।

    आदेय मात्र निज आतमद्रव्य होता, सद्ज्ञान सो यह सुनिश्चय भव्य होता ॥८४॥

     

    होते असंख्यतम लोक प्रमाण सारे, मूलोत्तरादि विधि ये परद्रव्य न्यारे।

    आत्मा विशुद्धनय से निज द्रव्य भाता, ऐसा जिनागम निरंतर नित्य गाता ॥८५॥

     

    ऐसा सुचिंतन जभी दिन-रात होता, आदेय हेय वह क्या वह ज्ञात होता।

    आदेय हेय नहिं निश्चय में सयाने, चिंता सुबोध मुनि सो भवकूल-पाने ॥८६॥

     

    है वस्तुतः सकल-बारह भावनायें, आलोचना सुखद शुद्ध समाधियाँ ये।

    ये ही प्रतिक्रमण है बस प्रत्यखाना, भा भावना नित अतः इनकी सयाना ॥८७॥

     

    आलोचना सुसमता व समाधि पाले, सच्चा प्रतिक्रमण का शुचिभाव भा ले।

    औ प्रत्यखान कर रे दिन-रात भाई, है चाँदनी क्षणिक तो फिर रात आई ॥८८॥

     

    भा बार-बार बस बारह भावनायें, वे भूत में शिव गये जिनभाव पाये।

    मैं बार-बार उनको प्रणमूँ त्रिसंध्या, मेरा प्रयोजन यही तजदूँ अविद्या ॥८९॥

     

    जो भी हुए विगत में शिव और आगे, होंगे नितान्त पुरुषोत्तम और आगे।

    माहात्म्य मात्र वह द्वादश भावना का, क्या अर्थ है अब सुदीर्घ प्ररूपणा का ॥९०॥

     

    जो कुन्दकुन्द मुनि नायक ने निभाया, है निश्चयादि व्यवहार हमें सुनाया।

    भाता विशुद्ध मन से इसको वही है, निर्वाण प्राप्त करता शिव की मही है॥९१॥


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    Chandan Jain

      

    वीतराग वानी को नमोस्तु


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