आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा प्राकृत भाषा में लिखे गए ग्रन्थ का यह पद्यानुवादात्मक भाषान्तरण है। द्वादश भावनाएँ ही द्वादश अनुप्रेक्षाएँ हैं-
अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, बोधिदुर्लभ तथा धर्म-इन अनुप्रेक्षाओं का मार्मिक विवरण दिया गया है। ये भावनाएँ वैराग्यरूपी उपवन में शांति सुखामृत का रसास्वादन कराने वाली हैं। इन भावनाओं को यदि माता का रूप दिया जाये तो कल्याण की भावना से मोक्षमार्ग पर तत्पर मुमुक्षुरूपी बालक की ये सदा रक्षा/सहायता करती हैं। इन भावनाओं का माहात्म्य प्रकट करते हुए भगवत् कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि-भूत, वर्तमान अथवा भविष्य में हुए, हो रहे अथवा होंगे उन सभी ने इन भावनाओं का ही सहारा लिया था।
वसंततिलका छंद के ९१ पद्यों में यह कृति अनुदित हुई है। मात्र ६९ वीं गाथा ऐसी है। जिसका अनुवाद वसंततिलका के ४ पदों के स्थान पर ६ पंक्तियों में हुआ है। ग्रन्थ का समापन श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र थूबौनजी, जिला-गुना (म० प्र०) में ईस्वी सन् १९७९ के वर्षायोग के दौरान हुआ था।