हे आशातीत!
अपार / अपरम्पार
आशारूपी
महासागर का
पार / किनार
कैसा पा लिया ?
आपने!
जिसका अवगाह
पाताल से संबंधित
जिसके तट!..
अनंत से चुंबित
विषमतामय विषय
क्षार जल से भरपूर
जिसको पार करते
अतीत में...
बार-बार...
....कई बार
हार कर
डूब चुका हूँ…
फिर भी
अब की बार
उस पार
पहुँचने का
पूरा विश्वास
मन में धार
यद्यपि शारीरिक पक्ष
अत्यन्त शिथिल
दौर्बल्य का अनुभव!...
केवल
आत्मीय पक्ष !
निष्पक्ष
सलक्ष्य
अक्ष-विषय से ऊपर उठा हुआ
आपको बना साक्ष्य
आदर्श प्रत्यक्ष
अपने कार्य क्षेत्र में
पूर्ण दक्ष !
साक्षी बने हैं
साहस उत्साह
और अपने
दुर्बल बाहुओं से
निरंतर तैर रहा हूँ…
एकाकी यात्री..
अबाधित यात्रा कर रहा हूँ
अपार का पार पाने
बीच-बीच में
इन्द्रिय विषयमय
राग रंगिनी
तरल तरंगमाल
मुझ बाल के गले में
आ उलझती हैं
पर! क्षणिका मिटती है
यह! उलझता नहीं
उस उलझन में
कभी
मिथ्यात्व मगरमच्छ
नीचे की गहराई में से आ
अविरल साधनारत मेरे
पैर पकड़ कर
नीचे ले जाने का साहस
प्रयास भर करता है
किन्तु....असफल
कभी
विपरीत दिशा की ओर
तीव्रगति से
यात्रा करने वाली
कषाय हिमालय की
हिमानी चट्टानें
मेरी हिम्मत चुराने की
मुझे चूर-चूर करने की
हिम्मत करती हैं
किन्तु उनसे बच
सुरक्षित निकलता हूँ
आगे आगे
भागे भागे
इन सभी अनुकूल-प्रतिकूल
स्थितियों में से
गुजरता हुआ भी
आत्मा में
नैराश्य की भावना
संभावना भी नहीं
तथापि
ऐसे ही कुछ
पूर्व संस्कार के
मादक बीज
आये हों बोने में
धूल धूसरित
आत्म सत्ता के
किसी कोने में
अंकुरित हो न जायें...
....उनकी जड़े
और गहराई में
....उतर न जायें...
ऐसा
विभाव भाव भर
उभर आता है
कभी-कभी…
....बाल भक्त के
भावुक भावित
मानस तल पर...
फलस्वरूप
नहीं के बराबर
भीति का संवेदन
करता है कम्पायमान
मेरा मन
गुमराह !...
अरे....अब तक
कहाँ तक आया हूँ
यह भी विदित नहीं
हे दिशा सूचक यंत्र!...
दिशा-बोध तो दो
पारदर्शन नहीं हो रहा है
अभी कितनी दूर...!
....इतनी दूर....वो रहा...!
ऐसी ध्वनि ओंकार!
कम से कम
प्रेषित कर दो
इन कानों तक
हे मेरे स्वामी!
अपार पारगामी!