उषा-काल में
उतावली से
तृषा काय की
बिना बुझाये
कहाँ भाग रहा है तू ?
मुझे पूछते हो तुम...।
उषा में नशा करने वालो...
निशा में मृषा चरने वालों...!
यह रहस्य अज्ञात होना
दशा पागल की है
दिशा चाहते हो
पाना चाहते हो
सही दशा वह!
जरा सुनो!
स्वयं यह
उषा भाग रही है
जिसके पीछे पीछे
निशा जाग रही है
जिसका दर्शन...
‘यह’ नहीं चाहता अब...।