भू-मण्डल में
नभ-मण्डल में
अमित पदार्थ हैं
अमिट यथार्थ हैं
और उनमें
समित कृतार्थ हैं
अमेय भी हैं
प्रमेय चित हैं
ज्ञेय ध्येय हैं
तथा हेय हैं
जड़ता गुण से
विरचित हैं
मोहीजन से
परिचित हैं
इन सब को तुम।
नहीं जानते
हे! जिनवर!
परन्तु ये सब
तव शुचि चित में
प्रेषित करते
अपनी अपनी
पलायुवाली
प्रति-छवियाँ
अवतरित हो
ज्ञानाकार धरती
उपास्य की उपासना
मानो! उपासिका
करती रहती
बनकर छविमय आरतियाँ...
यही आपकी विशेषता है
बहिर्दृष्टि निश्शेषता है
इसलिए प्रभु
कृतार्थ हैं
बने हुए परमार्थ हैं
तुम में हम में
यही अन्तर है
तुम्हारी दृष्टि सा
अन्तर्दृष्टि है
व्यन्तर्दृष्टि नहीं
यही निश्चय नियति है,
यही अन्तिम नि.....यति है...।
यही अन्तर्दृष्टि
निरन्तर उपास्य हो
इस अन्तर में
क्योंकि
विश्वविज्ञता स्वभाव नहीं
विभाव भी नहीं
अभाव भी नहीं
वह निरा
ज्ञेय-ज्ञायक भाव है
औपचारिक
संवेदन शून्य...।
यथार्थ में
स्वज्ञता ही
विज्ञता है स्वभाव है
भावित भाव...।
औपाधिक सब भावों से
परे.... ऊपर उठा बहुत दूर असंपृक्त!
और वह संवेदन
स्व का ही होता है
चाहे वह स्वभाव हो या विभाव।
पर का नहीं संवेदन
पर का यदि हो
दुःख का अन्त नहीं
सुख अनन्त नहीं
और फिर सन्त कहाँ ?
अरहन्त कहाँ ?
किन्तु ज्ञात रहे
स्वसंवेदन भी
सांप्रतिक तात्कालिक!
त्रैकालिक नहीं
अन्यथा
दुःख के साथ सुख का
सुख के साथ दु:ख का
क्यों न हो
संवेदन! वेदन!
हे चेतन!
इतना ही नहीं
आत्म-गत अनन्तगुण
पूर्ण ज्ञान से भी
संवेदित नहीं होते
केवल ज्ञात होते
यह ज्ञात रहे
अथवा ज्ञान में
अपना-अपना
रूपाकार ले
झलक जाते स्वयं आप
ज्ञेय के रूप में
परिवर्तित प्रतिरूप में
जैसे हो वह
सम्मुख दर्पण
विविध पदार्थ
अपने अपने
रूप रंग-अंग.....ढंग
करते अर्पण
दर्पण में... पर...वह
क्या विकार झलकता ?
क्या ? तजता दर्पण
आत्मीयता उज्ज्वलता ?
सो ..... मैं .....हूँ।
केवल संवेदन शील
धवलिम-चेतन जल से
भरा हुआ लबालब...!
तरंग-हीन
शान्त शीतल-झील
खेल खेलता
सतत सलील
शेष समग्र बस!
शून्य ... शून्य ... नील!