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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्राकृत पुरुष

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    मदन मोहिनी

    रति सी मानिनी

    मृदुल-मँजुल

    मुदित-मुखी

    मृग दृगी

    मेरी मति

    आज बनी है

    मलिन मुखी...म्लान

    अध-खुली

    कमलिनी सी

    और लेटी है

    एक कोने में

    ना सोने में

    ना रोने में

    जिसे चैन है

     

    बार-बार बदल रही है

    करवटें...।

    इस स्थिति में

    अपने होने में भी -

    उसे अब ! हा!

    अर्ध मृत्यु का संवेदन है

    पूर्ण वेदन है

    मेरी निरी

    करुण चेतना

    .......खरी

    वहीं खड़ी खड़ी

    समता की साक्षात् धरती  

    साहस धरी

    हृदयवती सतियों में सती-सी

    उसे देख...

     

    अपने उदार अंक में

    पृथुल मांसल

    जंघा का बल दे

    आकुलता से आहत

    परम आर्त...।

    मति मस्तक को

    ऊपर उठा लिया है

    और अपने

    प्रेम भरे

    मखमल मृदुल

    कर पल्लवों से

    हलकी हलकी सी

    सहला रही

    संवेदनशील ..... शब्दों में

     

    संबोधित करती

    साहस बाँधती

    किन्तु वह

    वचनामृत की प्यासी नहीं

    विरागता की दासी नहीं

    सरागता की अपार राशि जो रही

    अपनी ही

    मार्दव माँसल बाहुओं से

    श्रवण द्वार बन्द कर

    पीछे की ओर

    दो दो हाथों से

    शिर कस कर

    बाँध लिया...।

     

    कुटिल कुटिल तम

    कज्जल काले

    कुन्तल बाल

    भाल पर आ

    बिखरे हैं

    निरे निरे हो

    अस्त व्यस्त

    इस संकेत के साथ

    कि

    समुज्ज्वल-भाव-भूमि पर

    अब भूल कर भी

    दृष्टि-पात सम्भव नहीं...।

    यह पूर्णतः प्रकट है

    की

    इस मति का अवसान काल

    निकट सन्निकट है

     

    ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धिः

    ‘अन्ते मता सो गता’

    सूक्तियाँ सब ये

    चरितार्थ हो रही हैं

    सूखी

    गुलाब फूल की लाल पाँखुड़ी सी

    जिसके युगल

    अधर पल्लव हैं

    जिन में

    परमामृत भरा था  

    मृत हुआ क्या, विस्मृत हुआ ?

    या किसी से अपहृत हुआ ?

     

    यह रहस्य

    किसे........और .......कब

    अवगत हुआ है ?

    बिल से अध-निकली

    सर्पिणी-सी

    मति-मुख से

    बार-बार बाहर आकर

    अधरों को सहलाती

    और सरस बनाने का

    प्रयास करती दुलार प्यार करती

    लार रहित रसना........।

    और…

     

    समग्र अंग का जल तत्व

    भीतर की तपन से

    ऊर्ध्वमुखी हो

    ऊपर उठा है

    और यही कारण है

    कि

    जिस के तरल सजल

    युगल लोचन हैं

    जिनमें अनवरत

    करुणा की

    सजीव तरंग

    तैर कर तट तक आ रही है

    तापानुपात की अधिकता से

    बीच-बीच में  

    डब-डब, डब-डब

    भर आते हैं

     

    और वे दृग बिन्दु

    टप-टप, टप-टप

    गोल-गोल

    लाल-लाल

    सरस रसाल  

    युगल कपोल पर

    मन्द ध्वनित हो

    नीचे की ओर पतित होते

    सूचित कर रहे हैं

    पाप का फल, प्रतिफल

    अधः पतन है

    अगम अतल

    पाताल...।

    अमित काल

    तिमिरागार

     

    मात्र सहचर रहेगा…

    और उसी बीच

    एक अदृश्य

    दिव्य स्वर उभरा...।

    शून्य में

    एक बार भी

    प्राकृत पुरुष का

    दर्श होता

    अनिर्वचनीय

    हर्ष होता........इसे

    जीवन दर्पण......आदर्श होता

    तो.......फिर.......यह

    क्यों व्यर्थ में

    संघर्ष होता...।

     

    अतीत की स्मृति में

    सभीत मति

    डूब रही है

    अधीत के प्रति  

    उदास ऊब रही है

    उस का उर

    भर-भर आ रहा है

    अर्थ-पूर्ण-भावों से

    और आज तक

    जो कुछ घटित हुआ

    हो रहा है

    उसे भीतर से बाहर

    शब्द रूप देकर

    निष्कासित करने को

     

    एक बड़ी

    विवेकभरी

    उत्कण्ठा उठी है

    पर!

    भाग्य साथ नहीं देता

    कण्ठ कुण्ठित है

    केवल रुक-रुक कर

    दीर्घश्वास की पुनरावृत्ति

    प्रकट कर रही है

    भीतर अशुभतर घुटन है

    पश्चाताप की ज्वाला में

    झुलस रहा है

    अन्तर-जगत्  

    इस दयनीय दृश्य को

    सेवा शीलवती

    मेरी चेतना

     

    खुली आँखों से

    पी रही है

    मति की, चिति की

    एक जाति है ना!

    यही कारण है

    कि

    चिति भी तरल हो आई

    और सरल हो आई

    वैसी मति भीतर से

    तरल सरल नहीं है

    स्वभावशील से

    गरल ही है

    और दोनों के बीच

    धीमे-धीमे

    आदान-प्रदान  

    प्रारम्भ होता है भावों का

     

    मति का भाव

    दीनता से हीनता से भरा

    प्रकट होता है

    भावी काल का अनन्त प्रवाह

    असहनीय विरह वेदना में

    व्यतीत होगा

    वह अनन्त विरह

    सहचर मीत होगा

    गीत संगीत होगा

    मेरा तब...।

    रह रह कर नाथ की स्मृति

    विरह अनल में

    घृताहुति का

    काम करेगी

     

    अब चेतना मुख खोलती है

    कि

    पुरुष तो पुरुष होते हैं

    और उनका

    सहज धर्म है वह

    हमारे लिए अभिशाप नहीं

    वरदान ही है

    और दुखद् बन्धन

    बलिदान का

    अवसान का

    ‘पुरुष को मुक्ति मिलना

    विकृति से लौट

    प्रकृति का प्रकृति में

    आ मिलना है’

    अपने में खिलना है

     

    अपनी अपनी पूर्ण कलायें

    पूर्ण खुलना है

    सम्पूर्ण शुचिता लिए

    चन्द्र की चाँदनी-सी

    एकतत्व में सुख है

    अनेकत्व में दुःख।

    एकत्व में बन्धन नहीं

    सदा स्वतन्त्रता...

    और! मौन छा जाता है

    इधर मैं ‘आत्मा' पुरुष...।

    एक कोने में

    बैठा हूँ स्तब्ध

    निःशब्द......केवल......हूँ

     

    किन्तु मम ध्रुव सत्ता

    तरल नहीं सजल नहीं

    सघन हो आई

    वस्तुस्थिति का

    गति परिणति का

    अंकन कर रही है

    इस निर्णय के साथ, कि

    मति से बातचीत करती

    इस चिति से भी

    पीठ फेर लेना-विरति लेना

    औचित्य होगा

    और

    रोषातीत

    तोषातीत

    परम परुष की

    यही तो है

    “परुषता और पुरुषता”

    यह प्रमदा में कहाँ

    प्रकृति में...!


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