हे! योगिन्
दिन-प्रतिदिन
यह आभास
अहसास हो रहा है इसे
कि
आपका परिणमन
स्वरूप विश्रान्त नहीं है
अपना प्रान्त
नितान्त ज्ञात हुआ है
आप्त हुआ है ‘वह’
पर!
कहाँ प्राप्त हुआ है ?
वह रूपातीत
रसातीत उज्जवल जल से
कहाँ ? शान्त हुआ है ?
स्नपित-स्नात कहाँ हुआ है
अनन्त काल से
विमुख जो था
उस ओर मुख हुआ है
केवल...!
केवल सुख की ओर
यात्री यात्रित हुआ है
यात्रा अभी अधूरी है
पूरी कब हो...!
इसलिए
आपका हृदय-स्पन्दन...!
मानो मौन कह रहा निरन्तर !
जो अन्दर चल रही है
उसी की उपासना
परमोत्तम साधना
रूपातीत को स्वप्रतीत को
अर्पित समर्पित है
अनन्तशः वन्दन !
यद्यपि नीराग हो
निरामय हो
पर !...
आराधक हो
आकार से आकृत हो
आवरण से आवृत हो
कहाँ तुम प्राकृत हो ?
कारण विदित है
जड्मय इन
साकार आँखों में
त्वरित अवतरित हो
निराकार से
निरा ... निराकृत हो...!
फिर! फिर क्या ?...
आकार के अवलोकन से
ये आस्थावान विचार
कब हो सकते साकार...!
आराधक की आराधना से
यह आकुल आराधक
आराध्य कब हो सकता ?
पार-प्रदर्शक होकर भी
पार-प्रदर्शक नहीं हैं आप !
दर्शक आपका दर्शन करता है
पर !
स्वभाव भाव दर्शित कब होता ?
दर्शक को
समुचित है यह
दुग्ध धवलतम है
किन्तु
दुग्ध की समग्र-सृष्टि
अपने उदरगत पदार्थ-दल को
स्व-पर समष्टि को
दर्शित-प्रदर्शित
कहाँ ? कराती है ?
दर्शक की दृष्टि को
अपनी भीतरी गहराई में
प्रविष्ट होने नहीं देती
उसमें
झुक कर झाँकने से
दर्शक को
अपना बिम्ब..... वह
अवतरित कहाँ दीखता ?
काश! कुछ
झिल मिल झिल मिल
झलक जाये !
केवल ... आकार
किनारा .... छाया...!
समग्र-स्वरूप साक्षात्कार कहाँ ?
केवल बस! उस दास की दृष्टि
द्वार पर उदासीना
प्रवेश की प्रतीक्षा में
क्षीणतम श्वास में
आशा सँजोयी
रह जाती खड़ी
स्वयं भूल कर
बाहरी अचेतन स्थूल पर
अनिमेष दृष्टि गड़ी
इसलिए
दुग्ध में मुग्ध लुब्ध नहीं होना...!
वह स्वयं स्वभाव नहीं
स्वभाव प्रदर्शक साधन नहीं...
किन्तु।
आर-पार प्रदर्शक
अपने में अवगाहित होने
अवगाहक को
आह्वान करता है
अवगाह-प्रदायक
अबाधित..... अबाधक...!
वह शुद्ध, सिद्ध घृत है
उसमें झाँको
अपनी आँखों
यथावत् आँको
व्यष्टि समष्टि
समग्र सृष्टि
साक्षात्कार अक्षत..... धार।
। शाश्वत ..... सार ...!