हरा भरा था
पल्लव पत्तों
से उभरा था
प्रौढ़ पौधा
लाल गुलाब का
कल तक !
डाल-डाल के
चूल-चूल पर
फूल-दल फूला
महका मकरन्द्
पूरा भरा था
कल तक...!
आज उदासी है उसमें...!
अकुलाया है
लगता है
घबराहट से उसका कण्ठ
भर आया है
कौन सुनता है उस रुदन को
अरण्य रोदन जो रहा
जिस पर मँडराता
मकरन्द प्यासा
भ्रमर-दल ने
इस भीतरी गन्ध को भी
सूँघा है
अपनी नासा से
अपनी आजीविका
लुटती देख...!
बुला रहा है माली को
और कह रहा है
क्या सोचता है ?
अपराधी और नहीं
हे! उपचारक !
ऊपर ऊपर केवल
उपचार करता जा रहा है
अन्धाधुंध...!
क्या यह उपचार है ?
मात्र उपचार !
भीतर झाँकना भी अनिवार्य है
तू भूल रहा है
इस के मूल में
एक कीड़ा
क्रीडा कर रहा है।
सानन्द
मकरन्द चूस रहा है
क्या ? अभी ज्ञात नहीं
हे! बावला बागवान !
कैसे बनेगा तू ?
भाग्यवान ! भगवान...!