जीवन में एक
निरी भीतरी
घटना घटी है
जब से
मृदु-मँजुल
पूर्व अपरिचित
समता से मम ममता
मित्रता पटी है
अनन्त ज्वलन्त
अपूर्व-क्षमता
इसमें प्रकटी है
जब से प्रमाद-प्रमदा की
ममता तामसता
बहु भागों में बटी है
उसे लग रही
अटपटी है
प्रेम-प्यास...!
घटती घटती
पूरी घटी है
और वह स्वयं
असह्य हो पलटी है
कुछ कुछ अधछुपी सी
अधखुली रिपुता रखती है
टेढ़ी-सी
दृष्टि धरी है
रोषभरी कुछ कहती सी
लगती है
अपलक लखती है मुझे...!
क्या दोष है मुझ में ?
क्या हुई गलती है ?
अब तक मुझ पर
रुचिकर दृष्टि रही
आज! अरुचिकर
दृष्टि ऐसी...!
बनी कैसी यह ?
आप प्रेमी
यह प्रेयसी
अनन्य श्रेयसी
रूपराशि हो
कब तक रहेगी अब
यह दासी-सी
उदासिनी हो प्यासी
अब तक इसे
प्रेम मिला
क्षेम मिला
किन्तु इसके साथ...!
यह अप्रत्याशित
विश्वासघात...!
क्यों हो रहा है
हे! नाथ…
जीवन शिखर पर
वज्रपात है यह !
बिखर जायगा सब !
आपत्ति से घिर आया जीवन !
आपाद् माथ गात
शून्य पड़ गया है
हिमपात हुआ हो कहीं...!
जम गया है
दीनता घुली आलोचना...
प्रमाद की, ताने .... बाने
सुनकर
सुषमा समता ने
राजा की पट्टरानी सी
पुरुष को मौन देख कर
सौत-सी
थोड़ी-सी चिढ़ी
थोड़ी-सी मुड़ी उस ओर...!
मौन तोड़ा है
पुरुष स्वयं विश्रान्त हैं
शान्त हैं
बोलेंगे नहीं
मौन तोड़ेंगे नहीं
और चिरकाल तक
मैं अकेली
सुरभित चम्पा
चमेली बनकर
पुरुष के साथ
करूंगी सानन्द केली !
पिला-पिला कर
अमृत-धार
मिला-मिला कर
सस्मित-प्यार...!