स्व-पर पहिचान
ज्ञान पर आधारित है
आगमालोकन-आलोड्न से
गुरु-वचन-श्रवण-चिन्तन से
अपने में
ज्ञान गुण का स्फुरण होता है
पर! सक्रिय ज्ञान
आत्मध्यान में बाधा डालता है
विकल्पों की धूल उछालता है
ध्याता की साधक दृष्टि पर।
किन्तु वही हो सकता है
उपास्य में अन्तर्धान...!
जिसका ज्ञान...!
शब्दालम्बन से मुक्त हुआ है
बहिर्मुखी नहीं
अन्तर्मुखी
बहुमुखी नहीं
बन्दमुखी
एकतान...!
यह सही है
तैरने की कला से वंचित है
उसे सर्वप्रथम
तारण-तरण तुम्बी का सहारा अनिवार्य है,
उस कला में निष्णात होने तक...!
जब डुबकी लगाना चाहते हो तुम!
गहराई का आनन्द लेना चाहते हो तुम!
तब तुम्बी बाधक है ना !
इतना ही नहीं
पीछे की ओर पैर फैलाना
आजू-बाजू हाथ पसारना
यानी...... तैरना भी
अभिशाप है तब...।
यह बात सत्य है
कि
डुबकी वही लगा सकता
जो तैरना जानता है
जो नहीं जानता
वह डूब सकता है
डूबता ही है
डूबना और डुबकी लगाने में
उतना ही अन्तर है
जितना
मृत्यु और जीवन में...।