सरल सलिल से
भरे हुए हो
कलुष कलिल से
परे हुए हो
इस धरती से
बहुत दूर हो तुम!
शुद्ध शून्य में
जलधर हो कर
अधर डोल रहे
इधर यह मयूर
चिर प्रतीक्षित है
आपकी इंगन-कृपा से
दीक्षित है...।
ऊर्ध्वमुखी हो
जिजीविषा इस की
बलवती है महती
तृषातुरा है
आज तक इस के
कायिक आत्मिक पक्ष
अमृत के बदले
जहर तोल रहे
तभी तो
अंग अंग से इस के
समग्र सत्त्व से ।
नीलिमा फूट रही है
इसलिए इसे
जोर शोर से
गरजो घुमड़-घुमड़ कर
सम्बोधित करो!
सुधा वर्षण से शान्त शुद्ध
परमहंस बना दो इसे
विलम्ब मत करो अब...।
ऐसे इस के
अपनी भाषा में
शुष्क नीलम
अधर बोल रहे