(वसन्ततिलका छन्द)
योगी करें स्तवन भावभरे स्वरों से,
जो हैं सुसंस्तुत नरों, असुरों, सुरों से।
वे वर्धमान गतमान मुझे बचायें,
काटें कुकर्म मम मोक्ष विभो! दिलावें ॥१॥
जो चन्द्रगुप्त मुनि के गुरु हैं, बली हैं,
वे भद्रबाहु समधी श्रुत-केवली हैं।
वंदु उन्हें द्रुत भवोदधि पार जाऊँ,
संसार में फिर कदापि न लौट आऊ ॥२॥
है ‘कुन्दकुन्द' मुनि! भव्य-सरोजबन्धु
मैं बार-बार तव पाद-सरोज वंदें।
सम्यक्त्व के सदन हो, समता सुधाम,
है धर्म-चक्र शुभ धार लिया ललाम ॥३॥
जो ‘ज्ञानसागर' सुधी गुरु हैं हितैषी,
शुद्धात्म में निरत नित्य हितोपदेशी।
वे पाप- ग्रीष्म ऋतु में जल हैं सयाने,
पूजें उन्हें सतत केवल-ज्ञान पाने ॥४॥
हे शारदे! अब कृपा कर दे जरा तो,
तेरा उपासक खरा, भव से डरा जो!
माता! विलम्ब करना मत, मैं पुजारी,
आशीष दो, बन सकें बस निर्विकारी ॥५॥
रे। साधु का निहित है हित साधुता में,
धारूँ उसे तज असार असाधुता मैं।
भाई अतः श्रमण के हित मैं लिखेंगा,
शुद्धात्म को सहज से फलतः लगा ॥६॥
विद्वान मान मन में मुनि जो न धारें,
वे 'वीर' के वचन से मन को सुधारें।
जाके रहे विपिन में मन मोद पाते,
हैं स्नान आत्म-सर में करते सुहाते ॥७॥
जो कर्म को यति यदा करता नहीं है,
आत्मा उसे वह तदा, दिखता सही है।
ऐसा सदैव कहती जिनदेव वाणी,
होते सुखी सुन जिसे सब भव्य प्राणी ॥८॥
तू छोड़ के विषमयी स वासना को,
निश्चिन्त हो, कर निजीय उपासना को।
निर्धान्त शिवरमा तुझको वरेगी,
योगी कहे परम प्रेम सदा करेगी ॥९॥
हैं पुण्य-पाप पर, पुद्गल रूप जानें,
सम्यक्त्व भाव इनसे किस भाँति मानँ।
ना नीर के मथन से नवनीत पाना,
अक्षुण्ण कार्य करके थक मात्र जाना ॥१०॥
नाना प्रकार तप से तन को तपाया,
है छोड़ वस्त्र जिनने अघ को हटाया।
पाया निजानुभव को निज को दिपाया,
मैंने उन्हें विनय से उर बीच पाया ॥११॥
कम्पायमान मन को जिसने न रोका,
आत्मा उसे न दिखता जड़ से अनोखा।
आकाश में अरुण शोभित हो रहा है,
क्या अन्धको नयनगोचर हो रहा है? ॥१२॥
जो जीतता सब क्षुधादिं परीषों को,
संसार रागमय-भाव स्ववैरियों को।
है वीतराग बनता वह शीघ्रता से,
शुद्धात्म को निरखता बचता व्यथा से ॥१३॥
है वंद्य दिव्य निज आतम द्रव्य न्यारा,
जो शुद्ध निश्चय नयाश्रित मात्र प्यारा।
योगी गृही सम से न कभी निवारें,
जो त्याग के पुनि परिग्रह-भार धारें ॥१४॥
सबोध रूप सर शोभित है विशाल,
ना हैं जहाँ वह विकल्प तरंग-जाल।
शोभे तथा परम धर्म पयोज प्यारे,
तू छोड़ के मनमराल! से न जा रे ॥१५॥
जीतीं जिनेश जिसने निज इन्द्रियाँ हैं,
माना गया यति वी, जग में यहाँ है।
श्रद्धा-समेत उसको सिर मैं नमाता,
शुद्धात्म को निरख, शीघ्र बर्ने प्रमाता ॥१६॥
सबोध से परम शोभित जो यहाँ है,
पीयूष पी स्वपद में रमता रहा है।
क्या संयमी विषय-पान कदापि चाहे?
जो जीव को विष समान सदैव दाहे ॥१७॥
विज्ञान से स्वपद को जिसने पिछवाना,
त्यागा सभी तरह से पर को सुजाना।
वो दुःख रूप अस आस्रव को नशाता,
स्वामी! सही सुखद संवर तत्त्व पाता ॥१८॥
मायादि शल्य-त्रय को मुनि नित्य त्यागें,
ज्ञानादि रत्नत्रय धार सदैव जागें।
वे शुद्ध तत्त्व फलतः पल में लखेंगे,
संसार में परम सार उसे गहेंगे ॥१९॥
आदेय-हेय जिनने सहसा पिछाने,
लाये स्वचिन्तनतया मन को ठिकाने।
ज्ञानी वशी परम धीर मुमुक्षु ऐसे,
स्वामी रखें कुपथ में निजपाद कैसे?॥२०॥
संसार से बहुत यद्यपि जो डरा है,
जाना जिनागम सभी जिसने खरा है।
आत्मा से न दिखता यदि है प्रमादी,
ऐसा सदैव कहते गुरु सत्यवादी ॥२१॥
है ज्ञान जो सघन पावन पूर्णं प्यारा,
सद्ज्ञान रूप जल की झरती सुधारा।
शोभामयी अतुलनीय सुखैक डेरा,
नाचे उसे निरख मानस-मौर मेरा ॥२२॥
होते घनिष्ठ जिसके दुग-बोध साथी,
होता वहीं चरित आतम का सुखार्थी।
देता निजीय सुख, तीरथ भी कहाता,
तू धार मित्र! उसको दुख क्यों उठाता? ॥२३॥
पीता निजानुभव पावन पेय प्याला,
डाले गले शिवरमा उसके सुमाला।
जो लोक में अनुपमा शुचि-धारिणी है,
ऐसा जिनेश कहते सुख-कारिणी है ॥२४॥
रागादि भाव जिसमें न, वही समाधि,
पाके उसे मुदित से मुनि अप्रमादी।
सेती नदी अमित सागर पा यथा है,
किं वा दरिद्र खुश हो निधि पा अथाह ॥२५॥
है देह-नेह भव-कारण तो उसी से,
मोक्षेच्छु मैं, बहुत दूर रहें खुशी से।
मैं हो विलीन निज में, निज को भजुँगा
स्वामी अनन्त सुखपा, भवको तनँगा ॥२६॥
जो भी निजानुभव को जब प्राप्त होते,
वे रागद्वेष लव को न कदापि ढोते।
तो कौन सा फिर पदार्थ रहाऽवशेष?
प्राप्तव्य जो कि उनको न रह्म विशेष ॥२७॥
रागादि भाव पर हैं पर से न नाता,
ज्ञानी-मुनीश रखता पर में न जाता।
धिक्कार मूढ़ पर को करता, कराता,
ना तत्त्व-बोधरखता, अति दुःख पाता ॥२८॥
सम्बन्ध होत विधि से विधि का सदा है,
बोधकथाम 'जिन' ने जग को कहा है।
ऐसा रहस्य फिर भी मुनि ने गहा है,
जो आत्मभाव करता सहसा रहा है ॥२९॥
आत्मानुभूति वर चेतन-मूर्ति प्यारी,
साक्षात् यदा उपजती शिवसौख्यकारी।
माँगे तथापि मुनि क्या जग-सम्पदा को?
देती सदा जनम जो बहु आपदा को ॥३०॥
संपूर्ण भोग मिलने पर भी कदापि,
भोगी नहीं मुनि बने, बनते न पापी।
पीते तभी सतत हैं समता सुधा को,
गाली मिले, नफिर भी करते क्रुधा को ॥३१॥
मिथ्यात्व को हृदय में मत स्थान देना,
है दुष्ट व्याल वह, क्यों दुख मोल लेना।
छोड़ो उसे निकट भी उसके न जाओ,
तो शीघ्र अतुल संपति-धाम पाओ ॥३२॥
जैसे कहे जलज जो जल से निराला,
वैसे बना रह सदा जड़ से खुशाला।।
क्यों तु प्रमत्त बनता बन भोग त्यागी,
रागी नहीं बन कभी बन वीतरागी ॥३३॥
हैं देह से पृथक चेतन शक्ति वाला,
स्वामी! सदैव मुझसे तन भी निराला।
यों जान, मान तन का मद छेड़ता हूँ,
मैं मात्र मोक्ष-पथ से मन जोड़ता हैं ॥३४॥
हो काम नष्ट अघ भी मिटता यदा है,
योगी विहार करता निज में तदा है।
आकाश में विहग क्या फिर भी उड़ेगा?
जो जाल में फँस गया फिर क्या करेगा?॥३५॥
सौभाग्य से श्रमण जो कि बना हुआ है,
सच्चा जिसे प्रशमभाव मिला हुआ है।
छोड़े नहीं वह कभी उस निर्जरा को,
जो नाशती जनम-मृत्यु तथा जरा को॥३६॥
संसार में धन न सार असार सारा,
स्थायी नहीं, न उनसे सुख हो अपारा।
है सार तो समय-सार अपार प्यारा,
से प्राप्त शीघ्र जिससे वह मुक्तिदारा॥३७॥
निस्संग हो विचरते गिरि-गवरों में,
वे साधु ज्यों पवन है वन कन्दरों में।
कामाग्नि को स्वरस पी झट से बुझा के,
विश्राम पूर्ण करते निज-धाम जाके॥३८॥
शोभे सरोज-दल से सर ठीक जैसा,
सद्द रूप जल से मुनि-मीन वैसा।
से कंज में मृदुपना न असंयमी में,
‘ना शब्द व्योम गुण हैं-कहते यमी हैं॥३९॥
ये आर्त्तरौद्र मुझको रुचते नहीं हैं,
संसार के प्रमुख कारण पाप वे हैं।
श्री रामचन्द्र फिर भी मृग-भ्रान्ति भूले?
जो देख कांचन-मृगी इस भाँति फूले।४०॥
योगी निजानुभव से पर को भुलाता,
है वीतरागपन को फलरूप पाता।
वो क्या कभी मरण से मुनि से डरेगा?
शुद्धोपयोग धन को फिर क्या तजेगा ॥४१॥
जो भानु है, दूग-सरोज विकासता है,
योगी सुदूर रहता उससे यदा है।
वो तो तदा नियम से पर भावनायें,
हा! हा! करे, सहत है फिर यातनायें ॥४२॥
ये पंच पाप इनको बस शीघ्र छोड़ो,
आरो मह्मव्रत सभी मन को मरोड़ो।
औ! राग का तुम समादर ना करो रे!
देवाधिदेव 'जिन' को उर में धरो रे! ॥४३॥
रे। 'वीर' ने जड़मयी तज के क्षमा को,
है धार ली तदुपरान्त मा क्षमा को।
जो चाहते जगत में बनना सुखी हैं,
धारें इसे, परम मुक्ति-वधू सखी है ॥४४॥
आस्था घनिष्ठ निज में जिनकी रही है,
विज्ञान से चपलता मन की रुकी है।
लेता चरित्र उनका वर मोक्ष-दाता,
ऐसा रहस्य यह छन्द हमें बताता ॥४५॥
आत्मा जिसे न रुचता वह तो मुधा है,
मिथ्यात्व से रम रहा पर में वृथा है।
ज्ञानी निजीय घर में रहते सदा ये,
वन्दै उन्हें, द्रुत मिले निज संपदायें ॥४६॥
कैसे रहे अनल दाहकता बिना वो,
तो अग्नि से पृथक दाहकता कहाँ से?
आकाश के बिन कही रह तो सकेगा,
पै ज्ञान आतम बिना न कहीं रहेगा ॥४७॥
जो मात्र शुद्धनय से न हि शोभता है,
पै वीतरागमय भाव सुधारता है।
लक्ष्मी उसे वरण है करती खुशी से,
सागार को निरखती तक ना इसी से ॥४८॥
हैं पूर्व में मुनि सभी बनते अमानी,
पश्चात् जिनेश बनते, यह 'वीर' वाणी।
तू भी अभी इसलिए तज मान को रे,
शुद्धात्मको निरख, ले सुख की हिलोरें ॥४९॥
संसार सागर किनार निहारना है,
तो मार मार, दृग को द्रुत धारना है।
औ! जातरूप 'जिन' को नित पूजना है,
भाई! तुझे परम आतम जानना है ॥५०॥
सल्लीन हों स्वपद में सब सन्त साधु,
शुद्धात्म के सुरस के बन जाये स्वादु।
वे अन्त में सुख अनन्त नितान्त पावें,
सानन्द जीवन शिवालय में बितावें ॥५१॥
ये रोष-रागमय भाव विकार सारे,
मेरे स्वभाव नहिं हैं बुध यों विचारें।
ये पाप पुण्य इनमें फिर मौन धारें,
औ देह स्नेह तज के निज को निहारें ॥५२॥
संसार के जलधि से कब तैरना हो,
ऐसी त्वदीय यदि हार्दिक भावना से।
आस्वाद ले जिनप-पाद पयोज का तू,
नानामले अब कभी उस काम का तू ॥५३॥
संसार-बीच बहिरातम वो कहाता,
झूठा पदार्थ गहता, भव को बढ़ाता।
बेकार मान करता निज को भुलाता,
लक्ष्मी उसे न वरती, अति कष्ट पाता ॥५४॥
जो पाप से रहित चेतन मूर्ति प्यारी,
से प्राप्त शीघ्र उनको भव-दुःखहारी।
जो भी महाश्रमण हैं निज गीत गाते,
सच्चे क्षमादि दश धर्म स्वचित्त लाते ॥५५॥
सम्यक्त्व-लाभ वह है किस काम आता,
है कर्म का उदय ही यदि पाप लाता।
तो हाय! मुक्ति-ललना किसको वरेगी,
वो सम्पदा अतुलनीय किसे मिलेगी ॥५६॥
लेवें निजीय निधि का मुनि वे सहारा,
संसार मूल जड़ वैभव को बिसारा।
ना चाहते विबुध वे यश सम्पदा को,
हाँ, चाहते जड़ उसे सहते व्यथा को ॥५७॥
संसार में सुख नही , दुख का न पार,
ले आत्म में रुचि भला-सुख ले अपार।
सिद्धान्त का मनन या कर चाव से तु,
क्यों लोक में भटकता पर भाव सेतू? ॥५८॥
जो भी रहे समय में रत, मौन धारे,
पाते अलौकिक सही सुख शीघ्र सारे।
वो विज्ञ ना समय का, वह कष्ट पाता,
पीड़ार्त ले, समय है जब बीत जाता ॥५९॥
आत्मा अनन्त-गुण-आम सदैव जानो,
सम्यक्त्व प्राप्त करके निज को पिछानो।
जाओ वहाँ इधर या तुम शीघ्र आओ,
आदेश ईंदूश नहीं पर को सुनाओ ॥६०॥
भोगे हुए विषय को मन में न लाता,
औ प्राप्त को पकड़ना न जिसे सुहाता।
कांक्षा नहीं उस अनागत की करेगा,
यो सत्य पाकर कभी अहि से डरेगा?॥६१॥
हे वीर देव! तुमको नमते मुमुक्षु,
पीते तभी स्वरस को सब सन्त भिक्षु।
क्यों बीच में मनुज तेज कचौड़ि खाते?
पश्चात् अवश्य फलतः हलुवा उड़ाते॥६२॥
चारित्र का नित समादर जो करेंगे,
वे ही जिनेन्द्र-पद की स्तुति को करेंगे!
ऐसा सदैव कहती प्रभु भारती है,
नौका-समान भव पार उतारती है ॥६३॥
आकार जो न करते समयानुसार,
औ धारते न रतनत्रय-रूप हार।
रागाग्नि से सतत वे जलते रहेंगे,
संसार वारिधि मा फिर क्यों तिरेंगे ॥६४॥
देखो सखे! अमर लोग सुखी न सारे,
वे भी दुखी सतत, खेचर जो विचारे।
दुःखातं हि दिख रहे नर मेदिनी में,
शुद्धात्म में रम अतः, मत रागिनी में ॥६५॥
कामाग्नि से परम तप्त हुआ सदा से,
तू आत्म को कर सुतृप्त स्व की सुधा से।
कोई प्रयोजन नहीं जड़ सम्पदा से,
पा बोध से नर! सुखी अति शीघ्रता से ॥६६॥
सम्बन्ध द्रव्य श्रुत से नहिं मात्र रक्खो,
रक्खो स्वभाव श्रुत से, निज स्वाद चखो।
है मेदिनी तप गई रवि ताप से जो,
क्यों शांत हो जल बिना जल नाम से वो ॥६७॥
पर्याय वो जनमती मिटती रही है,
वैकालिकी यह पदार्थ, यही सही है।"
श्री वीर दैव जिन की यह मान्यता है,
पूजें उसे विनय से यह साधुता है ॥६८॥
संमोह राग मद है यदि भासमान,
या विद्यमान मुनि के मन में भिमान।
आनन्द ले न उस जीवन में कदापि,
ह्य! हा! वी नरक कुण्डबना तिपापी ॥६९॥
श्रद्धाभिभूत जिसने मुनि लिंग धारा,
कंदर्प को सहज से फिर मार द्वारा।
अत्यन्त शान्त निज को उसने निहारा,
औ अन्त में बल ज्वलन्त अनन्त धारा ॥७०॥
रे! पाप ही अहित है, रिपु है तुम्हारा,
काला कराल अहि है, दुख दे अपारा।
से दूर शीघ्र उससे, तब शान्ति धारा,
ऐसा कहें जिनप जो जग का सारा ॥७१॥
ले रम्य दृश्य ऋतुराज वसन्त आता,
ज्यों देख कोकिल उसे मन मोद पाता।
हे वीर! त्यों तव सुशिष्य खुशी मनाता,
शुद्धात्म को निरख औ दुख भूल जाता॥७२॥
हृता कुधी, वह सुखी दिवि में नहीं है,
तू आत्म में रह, अतः सुख तो वही है।
क्या नाक से, नरक से? इक सार माया,
सम्यक्त्व के जिन सदा! दुख ही उठाया॥७३॥
ज्योत्स्ना लिए तपन यद्यपि है प्रतापी,
छ जाय बादल, तिरोहित से तथापि।
आत्मा अनन्त युति लेकर जी रहा है,
झे कर्म से अवश कुन्दित हो रहा है ॥७४॥
कैसे मिले? नहिं मिले सुख माँगने से,
कैसे उगे अरुण पश्चिम की दिशा से?
तो भी सुदूर वह मूढ़ निजी दशा से,
ता अशान्त अति पीड़ित हो तृषा से ॥७५॥
लिप्सा कभी विषय की मन में न लाओ,
चारित्र धारण करो, पर में न जाओ।
चिन्ता कदापि न अनागत की करोगे,
विश्राम स्वीय घर में चिरकाल लोगे॥७६॥
संसार सागर असार अपार खारा,
है दुःख हो, सुख जहाँ न मिले लगा।
तो आत्म में रत रहो, सुख चाहते जो,
है सौख्य तो सहज में, नहिं जानते हो?॥७७॥
"कैवल्य-साधन न केवल नग्न-भेष,
"त्रैलोक्य वन्य इस भाँति कहें जिनेश ।
इत्थम् न ले, पशु दिगम्बर क्या न होते ?
होते सुखी ? दुखित क्यों दिन रात रोते?॥७८॥
“संसार की सतत वृद्धि विभाव से है,
तो मोक्ष सम्भव स्वतन्त्र स्वभाव से है।
झे जा अतः अभय, हे विभु में विलीन,
"हैं केवली-वचनये“बनजा प्रवीण ॥७९॥
सम्यक्त्व नीलम गया जिसमें जड़ाया,
चारित्र का मुकुट ना सिर पे चढ़ाया।
तूने तभी परम आतम को न पाया,
पाया अनन्त दुख ही, सुख को न पाया॥८०॥
जो काय से वचन से मन से सुचारे,
पा बोध, राग मल धोकर शीघ्र हारे।
याता निरन्तर निरंजन जैन को है,
पाता वीं नियम से सुख चैन को है॥८१॥
दुस्संग से प्रथम जीवन शीघ्र मोझे,
तो संग को समझ पाप तथैव छोड़ो।
विश्वास भी कुपथ में न कदापि लाओ,
शुद्धात्म को विनय से तुम शीघ्र पाओ॥८२॥
पत्ता पका गिर गया तरु से यथा है,
योगी निरीह तन से रहता तथा है।
औ ब्रह्म को हृदय में उसने बिठाया,
तू क्यों उसे विनय स्मृति में न लाया ?॥८३॥
वाणी, शरीर, मन को जिसने सुधारा,
सानन्द सेवन करे समता-सुधारा।
धर्माभिभूत मुनि है वह भव्य जीव,
शुद्धात्म में निरत हैं रहता सदीव ॥८४॥
जो साधु जीत इन इन्द्रिय-हाथियों को,
आत्मार्थ जा, वन बसें तज अन्थियों को।
पूजें उन्हें सतत वे मुझको जिलावें,
पानी सदा द्रगमयी कृषि को पिलायें ॥८५॥
मैं उत्तमाङ्ग उसके पद में नमाता,
जो है क्षमा-रमणि से रमता-रमाता।
देती क्षमा अमित उत्तम सम्पदा को,
भाई ! अतः तज सभी जड़-संपदा को ॥८६॥
ना वन्द्य है, न नय निश्चय मोक्ष-दाता,
ना है शुभाशुभ, नहीं दुख को मिटाता।
मैं तो नमूँ इसलिए मम ब्रह्म को ही,
सद्यः टले दुख मिले सुख और बोधि ॥८७॥
सत् चेतना हृदय में जब देख पाता,
आत्मा मदीय भगवान समान भाता।
तू भी उसे भज जरा, तज चाह-दाह,
क्यों व्यर्थ हो नित व्यथा सहता अथाहा ॥८८॥
“गम्भीर-धीर यति जो मद ना धरेंगे,
औ भाव-पूर्ण स्तुति भी निज की करेंगे।
वे शीघ्र मुक्ति ललना वर के रहेंगे,
"ऐसा जिनेश कहते-‘सुख को गहेंगे॥८९॥
आत्मावलोकन कदापि न नेत्र से ले,
पूरा भरा परम पावन बोधि से जो।
आदर्श-रूप अरहन्त हमें बताते,
कोई कभी दूग बिना सुख को न पाते॥९०॥
जो 'वीर' के चरण में नमता रहा है,
चारित्र का वहन भी करता रहा है।
औ गोत्र का, दृग बिना, मद ये रहा है,
विज्ञान को न गहता, जड़ सो रहा है ॥२९॥
धिक्कार! मोक्ष-पथ से च्युत हो रहा है,
तू अंग-संग ममता रखता अहा है।
भाई! अतः सह रहा नित दुःख को ही,
ले ले विराम अघ से, तज मोह मोही ॥९२॥
जो सन्त हैं समय-सार सरोज का वे,
आस्वाद ले भ्रमर-से पर में न जावें।
सम्यक्त्व हो न पर से, निज आत्म से है,
भाई सुधा-रस झरेशशि-बिम्ब से ही॥९३॥
आया हुआ उदय में यह पुण्य पिण्ड,
औ पाप, भिन्न मुझको जड़ का करण्ड।
ब्रह्मा न किन्तु पर है, वर-बोध भानु,
मैं सर्व-गर्व तज के इस भाँति जानें ॥९४॥
साधू सुधार समता, ममता निवार,
जो है सदैव शिव में करता विहार।
तो अन्य साधु तक भी उसके पदों में,
लेते सुलीनअलि-से, फिर क्या पदों में?॥९५॥
प्रायः सभी कुतप से सुर भी हुए हैं,
लाखों दफा असुर हो, मर भी चुके हैं।
देदीप्यमान नहिं 'केवलज्ञान' पाया,
है वीर देव! हमने दुख ही उठाया ॥९६॥
सानन्द यद्यपि सदा जिन नाम लेते,
योगी तथापि न निजातम देख लेते।
तो वो उन्हें शिवरमा मिलती नहीं है,
तेरा जिनेश! मत ईदृश क्या नहीं है?॥९७॥
अत्यन्त मोह-तम में कुछ ना दिखेगा,
तू आत्म मैं रहू, प्रकाश वहाँ मिलेगा।
स्वादिष्ट मोक्ष-फल यो फलतः फलेगा,
व्दीप्त दीपक सदैव अहो! जलेगा ॥९८॥
तू चाहता विषय में मन ना भुलाना,
तो सात तत्त्व-अनुचिन्तन में लगा ना!
ऐसा न ले, कुपथ से सुख क्यों मिलेगा ?
आत्मानुभूति झरना फिर क्यों झरेगा? ॥ ९९॥
हूँ बाल, मन्द-मति हूँ लघु हैं यमी हूँ,
मैं राग की कर रहा कम से कमी हूँ।
है चेतने! सुखद-शान्ति-सुधा पिला दे,
माता! मुझे कर कृपा मुझमें मिला दे ॥१००॥
चाहूँ कभी न दिवि को अयि वीर स्वामी!
पीऊँ सुधा रस निजीय बनें न कामी।
पा 'ज्ञानसागर' सुमन्थन से सुविद्या,
‘विद्यादिसागर' बनू, तज दें अविद्या ॥१०१॥