मंगलाचरण
शुद्ध भाव से नमन हो, शुद्धभाव के काज।
स्मरों, स्मरूं नित थुति करूं उरमें करूं विराज।।
अगार गुण के गुरु रहे, अगुरु गन्ध अनगार।
पार पहुँचने नित नर्मू नमूं, प्रणाम बारम्बार ।।
नमू भारती भ्रम मिटे, ब्रह्म बनूँ मैं बाल।
भार रहित भारत बने, भास्वत भारत भाल।।
श्री आदिनाथ भगवान
आदिम तीर्थकर प्रभु, आदिनाथ मुनिनाथ।
आधि व्याधि अघ मद मिटे तुम पद में मममाथ।।
वृष का होता अर्थ है, दयामयी शुभ धर्म।
वृष से तुम भरपूर हो, वृष से मिटते कर्म।।
दीनों के दुर्दिन मिटे तुम दिनकर को देख।
सोया जीवन जागता, मिटता अघ अविवेक।।
शरण चरण है आपके, तारण तरण जहाज।
भव दधि तट तक ले चलो करुणाकर जिनराज।।
श्री अजितनाथ भगवान
हार जीत के हो परे, हो अपने में आप।
बिहार करते अजित हो, यथा नाम गुण छाप।।
पुण्य पुंज हो पर नहीं, पुण्य फलों में लीन।
पर पर पामर भ्रमित हो, पल पल पर आधीन।।
जित इन्द्रिय जित मद बने जितभव विजित कषाय।
अजितनाथ को नित नमूं, अर्जित दुरित पलाय।।
कोंपल पल पल को पलें, वन में ऋतु पति आय।
पुलकित मम जीवन लता, मन में जिनपद पाय।।
श्री संभवनाथ भगवान
भव-भव भव-वन भ्रमित हो, भ्रमता-भ्रमता आज।
संभव जिनभव शिव मिले, पूर्ण हुआ मम काज।।
क्षण क्षण मिटते द्रव्य हैं, पर्यय वश अविराम।
चिर से है चिर ये रहे, स्वभाव वश अभिराम्।।
परमार्थ का कथन यूं कथन किया स्वयमेव।
यतिपन पाले यतन से, नियमित यति हो देव।।
तुम पद पंकज से प्रभु, झर झर झरी पराग।
जब तक शिव सुख ना मिले, पीऊ षटपद जाग।।
श्री अभिनन्दन नाथ भगवान
गुण का अभिनन्दन करो, करो कर्म की हानि।
गुरु कहते गुण गौण हो, किस विध सुख हो प्राणि।।
चेतन वश तन, शिव बने, शिव बिन तन शव होय।
शिव की पूजा बुध करें, जड़ तन शव पर रोय।।
विषयों को विष लख तजू, बनकर विषयातीत।
विषय बना ऋषि ईश को, गाऊँ उनका गीत।।
गुणधारे पर मद नहीं, मृदुतम हो नवनीत।
अभिनन्दन जिन ! नित नमूं मुनि बन मैं भवभीत।।
श्री सुमतिनाथ भगवान
बचें अहित से हित करूँ, पर न लगा हित हाथ।
अहित साथ, ना छोड़ता, कष्ट सहूँ दिन-रात्।।
बिगड़ी धरती सुधरती, मति से मिलता स्वर्ग।
चारों गतियाँ बिगड़ती, पा अघ मति संसर्ग।।
सुमतिनाथं प्रभु सुमति हो, मम मति है अतिमंद।
बोध, कली खुल खिल उठे, महक उठे मकरन्द।
तुम जिन मेघ मयूर मैं, गरजो बरसो नाथ।
चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा, ऊपर करके माथ।।
श्री पद्मप्रभ भगवान
निरीछटा ले तुम छटे, तीर्थकरों में आप।
निवास लक्ष्मी के बने, रहित पाप संताप।।
हीरा मोती पद्म ना, चाहूँ तुमसे नाथ।
तुम सा तम-तामस मिटा, सुखमय बनूँ प्रभात।।
शुभ्र सरल तुम बाल, तव कुटिल कृष्ण तम नाग।
तव चिति चित्रित ज्ञेय से, किंतु न उसमें दाग।।
विराग पद्मप्रभु आपके, दोनों पाद सराग।
रागी मम मन जा वहीं, पीता तभी पराग।।
श्री सुपार्श्वनाथ भगवान
यथा सुधा कर खुद सुधा, बरसाता बिन स्वार्थ।
धर्मामृत बरसा दिया, मिटा जगत का आर्त।।
दाता देते दान हैं, बदले की ना चाह।
चाह दाह से दूर हो, बड़े बड़ों की राह।।
अबंध भाते काट के, वसु विधि विधि का बंध।
सुपार्श्व प्रभु निज प्रभुपना, पा पाये आनन्द।।
बांध-बांध विधि बन्ध मैं, अन्ध बना मतिमन्द।।
ऐसा बल दो अंध को, बन्धन तोडू द्वन्द।।
श्री चन्द्रप्रभु भगवान
सहन कहाँ तक अब कहँ, मोह मारता डंक।
दे दो इसको शरण ज्यों, माता सुत को अंक।।
कौन पूजता मूल्य क्या, शून्य रहा बिन अंक।
आप अंक है शून्य मैं, प्राण फूक दो शंख।।
चन्द्र कलंकित किंतु हो, चन्द्रप्रभु अकलंक।
वह तो शंकित केतु से, शंकर तुम निशंक।।
रंक बना हूँ मम अतः, मेटे मन का पंक।
जाप जपूँ जिन नाम का, बैठ सदा पर्यक।।
श्री पुष्पदन्त भगवान
सुविधि सुविधि के पूर हो, विधि से हो अति दूर।
मम मन से मत दूर हो, विनती हो मन्जूर।।
किस वन की मूली रहा, मैं तुम गगन विशाल।
दरिया में खसखस रहा, दरिया मौन निहार।।
फिर किस विध निरखें तुम्हें, नयन करूं विस्फार।
नाचें गाँऊ ताल दें, किस भाषा में ढाल।।
बाल मात्र भी ज्ञान ना, मुझमें मैं मुनि बाल।
बवाल भव का मम मिटे, तुम पद में मम भाल।।
श्री शीतलनाथ भगवान
चिन्ता छूती कब तुम्हें, चिंतन से भी दूर।
अधिगम में गहरे गये, अव्यय सुख के पूर।।
युगों-युगों से युग बना, विघन अघों का गेह।
युग दृष्टा युग में रहें, पर ना अघ से नेह।।
शीतल चंदन है नहीं, शीतल हिम ना नीर।
शीतल जिनतव मत रहा, शीतल हरता पीर।।
सुचिर काल से मैं रहा, मोह नींद से सुप्त।
मुझे जगाकर, कर कृपा, प्रभो करो परितृप्त।।
श्री श्रेयांसनाथ भगवान
रागद्वेष और मोह ये, होते करण तीन।
तीन लोक में भ्रमित यह, दीन हीन अघ लीन।।
निज क्या, पर क्या, स्व-पर क्या, भला बुरा बिन बोध ।
जिजीविषा ले खोजता, सुख ढोता तन बोझ।।
अनेकान्त की कान्ति से, हटा तिमिर एकान्त।
नितान्त हर्षित कर दिया, क्लान्त विश्व को शान्त।।
निःश्रेयस सुखधाम हो, हे जिनवर! श्रेयांस।
तव थुति अविरल मैं कहूँ, जब लौ घट में श्वाँस।।
वासुपूज्य भगवान
औ न दया बिन धर्म ना, कर्म कटे बिन धर्म।
धर्म मर्म तुम समझकर,करलो अपना कर्म।।
वासुपूज्य जिनदेव ने, देकर यूं उपदेश।
सबको उपकृत कर दिया, शिव में किया प्रवेश।।
वसुविध मंगल द्रव्य ले, जिन पूजो सागार।
पाप घटे फलतः फले, पावन पुण्य अपार।।
बिना द्रव्य शुचि भाव से, जिन पूजो मुनि लोग।
बिन निज शुभ उपयोग के शुद्ध न हो उपयोग।।
श्री विमलनाथ भगवान
काया कारा में पला, प्रभु तो कारातीत।
चिर से धारा में पड़ा, जिनवर धारातीत।।
कराल काला व्याल सम, कुटिल चाल का काल।
विष विरहित उसका किया, किया स्वप्न साकार।।
मोह अमल बस समल बन, निर्बल मैं भयवान्।
विमलनाथ तुम अमल हो, सम्बल दो भगवान।।
ज्ञान छोर तुम मैं रहा, ना समझ की छोर।
छोर पकड़कर झट इसे, खींचो अपनी ओर ।।
श्री अनन्तनाथ भगवान
आदि रहित सब द्रव्य है, ना हो इनका अन्त।
गिनती इनकी अन्त से, रहित अनन्त अनन्त।।
कर्ता इनका पर नहीं, ये न किसी के कर्म।
सन्त बने अरिहन्त हो, जाना पदार्थ धर्म।
अनन्त गुण पा कर दिया, अनन्तभव का अन्त ।
अनन्त सार्थक नाम तव, अनन्त जिन जयवन्त।।
अनन्त सुख पाने सदा, भव से हो भयवन्त।
अन्तिम क्षण तक मैं तुम्हें, स्मरू स्मरें सब संत।।
श्री धर्मनाथ भगवान
जिससे बिछुड़े जुड सकें, रुदन रुके मुस्कान।
तन गत चेतन दिख सके, वही धर्म सुखखान।।
विरागता में राग हों, राग नाग विष त्याग।
अमृत पान चिर कर सकें, धर्म यही झट जाग।।
दयाधर्म वर धर्म है, अदया भाव अधर्म।।
अधर्म तज प्रभु धर्म ने, समझाया पुनि धर्म।।
धर्मनाथ को नित नमूं, सधे शीघ्र शिव शर्म।
धर्म-मर्म को लख सकें, मिटे मलिन मम कर्म।।
श्री शान्तिनाथ भगवान
सकलज्ञान से सकल को, जान रहे जगदीश।
विकल रहे जड़ देह से, विमल नमूं नतशीश।।
कामदेव हो काम से, रखते कुछ ना काम।
काम रहे ना कामना, तभी बने सब काम।।
बिना कहे कुछ आपने, प्रथम किया कर्तव्य।
त्रिभुवन पूजित आप्त हो, प्राप्त किया प्राप्तव्य।।
शान्ति नाथ हो शान्त कर, सातासाता सान्त।
केवल-केवल-ज्योतिमय, क्लान्ति मिटी सब ध्वांत।।
श्री कुंथुनाथ भगवान
ध्यान अग्रि से नष्ट कर, प्रथम पाप परिताप।
कुंथुनाथ पुरुषार्थ से, बने न अपने आप।।
उपादान की योग्यता, घट में ढलती सार।
कुम्भकार का हाथ हो, निमित्त का उपकार।।
दीन दयाल प्रभु रहे, करुणा के अवतार।
नाथ अनाथों के रहे, तार सको तो तार।।
ऐसी मुझपैं हो कृपा, मम मन मुझ में आय।
जिस विध पल में लवण है, जल में घुल मिल जाए।।
श्री अरहनाथ भगवान
चक्री हो पर चक्र के, चक्कर में ना आय।
मुमुक्षु पन जब जागता, बुभुक्षु पन भग जाय।।
भोगों का कब अन्त है, रोग भोग से होय।
शोक रोग में हो अतः काल योग का रोय।।
नाम मात्र भी नहिं रखो, नाम काम से काम्।
ललाम आतम में करो, विराम आठों याम्।।
नाम धरो ‘अर' नाम तव, अतः स्मरू अविराम।
अनाम बन शिवधाम में, काम बनूं कृत-काम्।।
श्री मल्लिनाथ भगवान
क्षार क्षार भर है भरा, रहित सार संसार।
मोह उदय से लग रहा, सरस सार संसार।।
बने दिगम्बर प्रभु तभी, अन्तरंग बहिरंग।
गहरी-गहरी हो नदी, उठती नहीं तरंग।।
मोह मल्ल को मार कर, मल्लिनाथ जिनदेव।
अक्षय बनकर पा लिया, अक्षय सुख स्वयमेव।।
बाल ब्रह्मचारी विभो, बाल समान विराग।
किसी वस्तु से राग ना, तुम पद से मम राग।।
श्री मुनिसुव्रतनाथ भगवान
निज में यति ही नियति है, ध्येय “पुरुष’ पुरुषार्थ।
नियति और पुरुषार्थ का, सुन लो अर्थ यथार्थ।।
लौकिक सुख पाने कभी, श्रमण बनो मत भ्रात।
मिले धान्य जब कृषि करे, घास आप मिल जात’।।
मुनिबन मुनिपन में निरत, हो मुनि यति बिन स्वार्थ।
मुनि व्रत का उपदेश दे, हमको किया कृतार्थ।।
मात्र भावना मम रही, मुनिव्रत पाल यथार्थ।
मैं भी मुनिसुव्रत बनू, पावन पाय पदार्थ।।
श्री नमिनाथ भगवान
मात्र नग्नता को नहिं, माना प्रभु शिव पंथ।
बिना नग्नता भी नहीं, पावो पद अरहन्त।।
प्रथम हटे छिलका तभी, लाली हटती भ्रात।
पाक कार्य फिर सफल हो, लो तव मुख में भात।
अनेकान्त का दास हो, अनेकान्त की सेव।
करूं गहूँ मैं शीघ्र से, अनेक गुण स्वयमेव।।
अनाथ मैं जगनाथ हो, नमीनाथ दो साथ।
तव पद में दिन रात हूँ, हाथ जोड़ नत-माथ।।
श्री नेमिनाथ भगवान
राज तजा राजुल तजी, श्याम तजा बलिराम।
नाम धाम धन मन तजा, ग्राम तजा संग्राम।।
मुनि बन वन में तप सजा, मन पर लगा लगाम।
ललाम परमातम भजा, निज में किया विराम।।
नील गगन में अधर हो, शोभित निज में लीन।
नील कमल आसीन हो, नीलम से अति नील।।
शील-झील में तैरते, नेमि जिनेश सलील।
शील डोर मुझे बांध दो, डोर करो मत ढील।।
श्री पार्श्वनाथ भगवान
रिपुता की सीमा रही, गहन किया उपसर्ग।
समता की सीमा यही, ग्रहण किया अपवर्ग।।
क्या क्यों किस विध कब कहें, आत्म ध्यान की बात।
पल में मिटती चिर बसी, मोह अमा की रात।।
खास-दास की आस बस, श्वास-श्वास पर वास।
पार्श्व करो मत दास को, उदासता का दास।।
ना तो सुर-सुख चाहता, शिव सुख की ना चाह।
तव थुति सरवर में सदा, होवे मम अवगाह।।
श्री महावीर भगवान
क्षीर रहा प्रभु नीर मैं, विनती करूं अखीर।
नीर मिला लो क्षीर में, और बना दो क्षीर।।
अबीर हो, तुम वीर भी, धरते ज्ञान शरीर।
सौरभ मुझ में भी भरो, सुरभित करो समीर।।
नीर निधि से धीर हो, वीर बनें गंभीर।
पूर्ण तैर कर पा लिया, भवसागर का तीर।।
अधीर हूँ मुझ धीर दो, सहन करूं सब पीर।
चीर चीर कर चिर लखू, अन्दर की तस्वीर ।।
रचना एवम् स्थान परिचय
"बीना बारह क्षेत्र पे सुनो! नदी सुख चैन।
बहती बहती कह रही, इत आ सुख दिन रैन।।
श्याम राम माल रस गंध की वीर जयन्ती पर्व।
पूर्ण हुआ थुति शतक है, पढ़े सुनें हम सर्व।।
‘श्याम नारायण ६ राम १ रस ५ गध २ यानी ११५२ अंकानाम वामतो गति केअनुसार वीर निर्माण संवत २५१६ विक्रम संवत् २०५० शक संवत् १६१५ चैत्रसुदी त्रयोदशी महावीर जयन्ती दिवस पर सुखचैन नदी के समीपवर्ती श्रीदिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र बीना बारहा देवरी सागर में प्र में ४ अप्रेल १९६३ईश्वी, रविवार के दिन दिगम्बर जैनाचार्य सन्तशिरोमणि श्री विद्यासागर मुनिमहाराज के द्वारा यह ‘स्तुति शतक" अपर नाम "दोहा थुति शतक " पूर्ण हुआ।
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