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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • अब मैं मम मन्दिर में रहूँगा

       (4 reviews)

    अब मैं मम मन्दिर में रहूँगा.jpg

     

     

     

     

     

     

     

    अमिट, अमित अरु अतुल, अतीन्द्रिय,

    अरहन्त पद को धरूँगा

    सज, धज निजको दश धर्मों से -

    सविनय सहजता भजूँगा  ।। अब मैं ।।

     

    विषय - विषम - विष को जकर उस -

    समरस पान मैं करूँगा।

    जनम, मरण अरु जरा जनित दुख -

    फिर क्यों वृथा मैं सहूँगा? ।। अब मैं । ।

     

    दुख दात्री है इसीलिए अब -

    न माया - गणिका रखूँगा।।

    निसंग बनकर शिवांगना संग -

    सानन्द चिर मैं रहूँगा ।।अब मैं । ।

     

    भूला, परमें फूला, झूला -

    भावी भूल ना करूँगा।

    निजमें निजका अहो! निरन्तर -

    निरंजन स्वरूप लखूँगा ।। अब मैं । ।

     

    समय, समय पर समयसार मय -

    मम आतम को प्रनमुँगा।

    साहुकार जब मैं हूँ, फिर क्यों -

    सेवक का कार्य करूँगा ? ।।अब मैं । ।

     

    - महाकवि आचार्य विद्यासागर


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    सरिता जैन

       3 of 3 members found this review helpful 3 / 3 members

    आचार्य विद्या सागर जी महाराज द्वारा रचित गीत
    का भावार्थ

    आचार्य श्री कहते हैं कि हे निज आत्मन् ! अभी तक पर को अपना मान कर अनन्त काल से जन्म - मरण के दुःख उठाता आया हूँ,  लेकिन अब मैं निज में ही वास करूंगा और शाश्वत सुख प्राप्त करूंगा।

    सरलार्थ - 
    जितेन्द्र भगवान ने जिस मार्ग पर चलकर अरिहंत पद को प्राप्त किया है,  मैं भी उनके द्वारा बताए गए मोक्ष मार्ग पर चल कर उस अरिहंत पद को प्राप्त करूंगा जो कभी न मिटने वाला, असीम,  अतुलनीय है और इंद्रियों के सुख से रहित अतीन्द्रिय सुख को देने वाला है।
    मैं निज (आत्मा) को धर्म के दस लक्षणों से सुशोभित करके विनयपूर्वक,  सहजता से उनका पालन करूंगा।अब मैं अपनी आत्मा को मंदिर के समान पवित्र बना कर उसमें ही वास करूंगा।
    पांचों इंद्रियों के विषयों के भोग विष के समान मेरा घात करू रहे हैं। उनको त्याग कर मैं समता रस का पान करूंगा। न दुःख आने पर दुःख का अनुभव करूंगा और न सुख में सुख का अनुभव करूंगा। दोनों परिस्थितियों में सम भाव रखूंगा।
    फिर मैं व्यर्थ में जन्म, मरण और वृद्धावस्था से उत्पन्न दुखों को क्यों सहन करूंगा। अब तो मुझे अनन्त सुख का मार्ग मिल गया है। अतः अब मैं निजी में ही वास करूंगा।
    यह माया ( धन- दौलत, छल- कपट ) वेश्या के समान है जो बाहर से आकर्षक लगती है और भीतर से  दुःख देने वाली होती है। अब तो मैं शिव- रमणी के साथ बिना किसी अन्य का संग लिए चिरकाल तक आनंद सहित रहूंगा अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त करूंगा।
    मै स्वयं को भूलकर पर कोई अपना मानता रहा,  उसी में सुख मान कर फूला रहा और सुख- दुःख  के झूले में झूलता रहा। पर अब मैं यह भूल कदापि नहीं करूंगा।
    अब तो मैं स्वयं में ही निरंजन,  पवित्र स्वरूप का दर्शन करूंगा। अब मैं निज में ही वास करूंगा।
    अब मैं हर समय अपने शुद्ध आत्म- स्वरूप को ही प्रणाम करूंगा। मैं तो अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान,  अनन्त दर्शन व अनन्त वीर्य ( शक्ति ) का भण्डार हूँ। इस संपत्ति के कारण साहूकार हूँ। फिर मैं इन्द्रियों का सेवक क्यों बनूं ?
    मैं तो अरिहंत ( जिसने इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है ) बन कर  अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करूंगा और निज मन के मंदिर में ही वास करूंगा।

    द्वारा- सरिता जैन, 

    मकान नंबर- 523,  सैक्टर- 13, हिसार ( हरियाणा )
     

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    MeenajainDG

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

    क्या ये भजन और भी लय में गाया जा सकता है 

    कुछ instruments के साथ 

    गुरुदेव का कथन 

    स्वयं को कर्मो की दास्ता से मुक्त करके सवय्ं के स्वामी

    बन कर रहे 

    नमोस्तु गुरुवर

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    subodh  patni

       1 of 1 member found this review helpful 1 / 1 member

     गुरुवर के चरणों में बारंबार नमोस्तु

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