संयम स्वर्ण महोत्सव Posted June 20, 2018 Report Share Posted June 20, 2018 णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं इसको अपराजित मंत्र, अनादि अनिधन मूल मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र आदि कई नामों से जाना जाता है। इस मंत्र को नमस्कार मंत्र भी कहा जाता है। इस मंत्र में किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार नहीं किया गया है किन्तु उन सभी आत्माओं को नमस्कार किया जाता है जो आत्मायें राग, द्वेष, मोह, कषाय आदि विकारी भावों को जीत चुके हैं। उन्हीं आत्माओं को "जिन" कहा जाता है। "जिन" आत्माओं में आस्था रखने वाले जैन कहलाते हैं। णमोकार महामंत्र में 5 पद हैं जिनमें पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया जाता है। परमेष्ठी अर्थात् परम उत्कृष्ट पद में स्थित आत्मा। यह पांच हैं - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु। अरिहंत परमेष्ठी - जो कषायों के पूर्ण नाश के द्वारा सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी हुए हैं, वे अरिहंत आत्मा हैं, वह शरीर सहित होते हैं। 8 कर्मों में से इनके 4 कर्मों का अभाव हो जाता है। सिद्ध परमेष्ठी - जो 8 कर्मों से रहित हैं, शरीर से रहित हैं, मात्र ज्ञान स्वरूप, अदृश्य, सूक्ष्म-परिणमन को लिए हुए हैं। और लोक के सर्वोच्च स्थान पर सदैव अपने आनंद में मग्न रहते हैं। वे पुनः संसार में नहीं आते हैं। अरिहंत एवं सिद्ध परम शुद्ध आत्मायें हैं जो परमात्मा के रूप में सभी के लिए ध्येय (ध्यान करने योग्य) हैं क्योंकि शुद्ध आत्माओं के ध्यान से ही शुद्ध बना जा सकता है। आचार्य परमेष्ठी - जो पूर्ण रूप से गृह त्याग करके जीवन पर्यन्त के लिए पांच पापों से विरक्त रहते हैं, शिष्यों को शिक्षा, दीक्षा एवं प्रायश्चित देते हैं, व्यवहार कुशल एवं जिन दर्शन के मर्म को जानने वाले होते हैं, स्वकल्याण के साथ समाज, देश और राष्ट्र की उन्नति के बारे में भी प्रयत्नशील रहते हैं, संघ संचालक होते हैं एवं रत्नत्रय की आराधना स्वयं भी करते हैं एवं दूसरों को भी कराते हैं वे आचार्य परमेष्ठी हैं। उपाध्याय परमेष्ठी - जो पांच पापों से जीवन पर्यन्त के लिए विरक्त रहते हैं, रत्नत्रय के आराधक होते हैं, मुनि संघ को अध्ययन कराने का विशिष्ट कार्य करने से उन्हें उपाध्याय करते हैं। साधु परमेष्ठी - जो सभी प्रकार के व्यापार, परिगृह से मुक्त होकर जीवनपर्यन्त के लिये 28 मूलगुणों का पालन करते हैं तथा आत्म साधना में तत्पर रहते हैं, ज्ञान-ध्यान में लीन वह साधु परमेष्ठी हैं। कषायों एवं काम वासना से रहित, आत्मिक शुद्धि से पूर्ण, रत्नत्रय धारण करने वाले आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी भी ध्येय (ध्यान करने योग्य) हैं। नोट :- आचार्य एवं उपाध्याय यह विशिष्ट पदवियाँ जो उनकी कुशलता को देख कर प्रदान की जाती हैं यह दोनों ही साधु के योग्य सभी मूल गुणों का पालन करते हैं। रत्नत्रय - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र - इन आत्मिक गुणों को रत्नत्रय कहते हैं। सम्यक् दर्शन - अंधविश्वासों से परे एक समीचीन आस्था सम्यक् ज्ञान - उस समीचीन आस्था के अनुरूप ज्ञान सम्यक् चरित्र - उस ज्ञान के अनुरूप ढली हुई क्रियाएँ णमोकार मंत्र में सभी पापों को, दुर्विचारों को, विकारी भावों को एवं दुष्कर्मों को नष्ट करने की अदभुत शक्ति है। वर्तमान में हिंसा, आतंकवाद, चोरी, दुराचार, भ्रष्टाचार की भावनाओं से जो ब्रह्मांड में नकारात्मक ऊर्जा प्रदूषण के रूप में फैलती है, इसी के परिणाम स्वरूप भूकम्प, बाढ़, सुनामी लहरें, दुर्भिक्ष (समय पर वर्षा एवं अनाज उत्पन्न नहीं होना) एवं अकाल की स्थिति बनती है। वैज्ञानिको ने इन Waves को आइनस्टाइन पेन व्हेवज (E.P.W.) के रूप में स्वीकार किया है। 27/11/1997 में जिनिव्हा, स्विट्जरलैंड में विश्व धर्म परिषद हुई थी। उस परिषद में विश्व शान्ति निर्माण करने वाले महामंत्र के रूप में णमोकार मंत्र को मान्यता दी गई। इसलिए इस णमोकार मंत्र को पूरे विश्व में शांति के लिए और इस ब्रह्मांड को सकारात्मक ऊर्जा से भरने के लिए णमोकार मंत्र की ध्वनि से उत्पन्न तरंगों की आज बहुत आवश्यकता है। णमोकार मंत्र से उच्चरित ध्वनियों से धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों प्रकार की विधुत शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जिससे कर्म कालिमा नष्ट हो जाती है, इसी कारण सभी भगवंतों-संतों ने इसी महामंत्र का आश्रय लिया। मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष से आत्मिक शक्तियाँ प्रकट होती हैं, मंत्र का निर्माण अनेक बीजाक्षरों से होता है। ॐ, हां, हीं, क्लीं आदि ये सभी बीजाक्षर कहलाते हैं। इन सभी में प्रधान “ॐ” बीजाक्षर है, इसी तरह “अर्हं” है जो बीजाक्षरों से मिलकर बना हुआ मंत्र है। “अर्हं” में प्रथम अक्षर “अ” अंतिम अक्षर “ह” है जो अ से ह तक की पूरी वर्णमाला के अक्षरों की शक्तियों को समेटे हुए है। अर्थात् ज्ञान से पूर्ण भरा हुआ मंत्र। आचार्य “शुभचन्द्र महाराज जी” ध्यान के महानग्रंथ “ज्ञानार्णव” में लिखते हैं कि - “बुद्धिमान योगी का ज्ञान के लिए बीजभूत संसार में जन्म, मरण रूप अग्नि को शांत करने के लिए मेघ समान पवित्र एवं महान ऐश्वर्यशाली इस मंत्र का ध्यान करना चाहिए। यह सभी प्रकार की अभीष्ट सिद्धियों को देने वाला है। यह अर्हं- अ से अरहंत और नमो लोए सव्वसाहूणं में साहू शब्द के ह कार को ग्रहण करके भी बना है।” इसलिए यह ॐ कार की तरह पांच परमेष्ठी का वाचक है। इसे सिद्ध परमेष्ठी का वाचक भी कहा गया है। अर्हं योग - योग का अर्थ जोड़ना होता है। अर्हं मंत्र के माध्यम से या णमोकार मंत्र के माध्यम से अपने शरीर, मन एवं वचन को शुद्ध एवं ज्ञान से परिपूर्ण आत्माओं से जोड़ना “अर्हम् योग” कहलाता है। जिसके फलस्वरूप अपने ही आत्म तत्त्व से जुड़ना होता है इसलिए यह आत्म योग / परमात्म योग भी है। अर्हम् योग = परमात्म योग = आत्म योग सावधानी - अर्हम् योग करने से पहले पांच नमस्कार मुद्रा, स्थिर आसन और श्वासोच्छ्वास के द्वारा णमोकार मंत्र को 9 बार पढ़ना जरूरी है। इस प्रक्रिया को करने से शारीरिक रोग और मानसिक दुर्बलताओं को जीतने की अदम्य शक्ति प्राप्त होती है। अर्हं योग सभी प्रकार की सांसारिक कामनाओं की पूर्ति तो करता ही है, साथ ही चित्त की स्थिरता करके आत्मिक सुख का आनंद भी प्रदान करता है। उद्देश्य - योग शिक्षा और अभ्यास द्वारा जागरुकता। योग शिविर व ध्यान शिविर द्वारा जन कल्याण। मानव कल्याण हेतु विभिन्न शिक्षा व चिकित्सालय आयोजन। असहाय और बीमार जन को निःशुल्क/उचित दर पर चिकित्सा उपलब्ध कराना। गरीब बालकों को उचित शिक्षा के अवसर उपलब्ध करवाना व शिक्षा सामग्री की व्यवस्था आदि। पर्यावरण सुरक्षा हेतु जनहित में कार्य व स्वच्छता अभियान। बालिकाओं की शिक्षा एवं सुरक्षा के लिए जागरुकता अभियान व कार्यशाला। किसानों को ऑर्गेनिक खेती प्रणाली की ओर अग्रसर करने के कार्यक्रम के आयोजन व कार्यशालाएं लगवाना। युवाओं में विवाह की उचित समझ देना। युवाओं का उचित मार्गदर्शन करना। अनाथ व अबोध बच्चों की सहायता। विकलांग हेतु उचित सहायता। चिकित्सा हेतु हॉस्पिटल निर्माण व उचित दरों पर चिकित्सा। नेचरोपैथी पद्धतियों का प्रशिक्षण व उपचार एवं एक्यूप्रेशर और आयुर्वेद व्यवस्था। शास्त्र ज्ञान हेतु शैक्षणिक शिविरों का आयोजन। बच्चों की पाठशाला का संचालन। विभिन्न धार्मिक आयोजनों द्वारा लोक कल्याण। विभिन्न शिविरों के माध्यम से मंत्र व योग आसनों के द्वारा आरोग्य व अभ्यास का प्रशिक्षण। जनकल्याण हेतु विभिन्न चित्रों एवं औषधियों व सामग्री की प्रदर्शनी व विक्रय। विभिन्न सामाजिक व धार्मिक आयोजन में स्वल्पाहार व जल आदि की व्यवस्था। शास्त्रों का शिक्षण व रक्षण व संरक्षण करना। विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में प्रभावना करना। मंदिरों में जीर्णोद्धार, दान इत्यादि की व्यवस्था करना / निर्माण हेतु उचित मार्गदर्शन। बाल विकास कार्यशालाओं का आयोजन। मूक जीवों की चिकित्सा की व्यवस्था करना/चारा/ तिर्यंच पशुओं के लिए दाना। समाज में प्रचलित कुरीतियों व कुनीतियों को विराम देने हेतु प्रयासरत रहना। देश व विदेश में अर्हम् योग व ध्यान का प्रचार प्रसार हेतु उचित कार्यशालाएँ खुलवाना। धर्म प्रभावना हेतु विभिन्न धार्मिक तीर्थ स्थलों की यात्रा का आयोजन करवाना एवं अन्य जनहित के कार्य। 5 Link to comment Share on other sites More sharing options...
Vijaya Jain Posted June 21, 2018 Report Share Posted June 21, 2018 Bahut deep and important mattarkiye lot of thanks. Link to comment Share on other sites More sharing options...
Anju jain22 Posted June 21, 2018 Report Share Posted June 21, 2018 bahut sunder Link to comment Share on other sites More sharing options...
Sayam Swarn mahotsav Posted August 30, 2018 Report Share Posted August 30, 2018 Best massage 1 Link to comment Share on other sites More sharing options...
Recommended Posts