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मुनिश्री ने अपने प्रवचनों को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया है- पहले छह प्रवचनों में संसार में दृश्यमान विविधता का कारण अपने स्वयं के कार्य हैं जो अज्ञानता और आसक्ति से किए जा रहे हैं, न कि ईश्वर के द्वारा सम्पादित और संचालित हैं, जैसा कि जैनेतर सिद्धान्तों की मान्यता है, पर प्रकाश डाला है। उन्होंने ईश्वर की कल्पना का तर्कपूर्ण खण्डन किया है । इस दृश्य जगत में सभी चीजें अपने स्वभाव व गुणधर्मों के अनुसार परिणमन करती हैं। हम जैसा करते हैं, वैसा हमें फल प्राप्त होता है । इस संसार परिभ्रमण का कारण मेरी अपनी अज्ञानता और आसक्ति है।