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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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दीक्षित मुनिराज

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 मुनि श्री 108 प्रणम्य सागर जी महाराज का जीवन परिचय

 

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  1. What's new in this club
  2. नमोस्तु नमोस्तु महराज जी हम सबको भगवान आदिनाथ के बारे में स्वाध्याय का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻 सौरभ भैया आपके प्रयास की बहुत बहुत अनुमोदना
  3. जय जिनेन्द्र 🙏। शाकाहार की बहुत सुंदर और सटीक व्याख्या।
  4. जय हो गुरुदेव🙏 नमोस्तु नमोस्तु । बहुत सरल भाषा में समझाया है। स्वाधाय्नकरने और आदि नाथ प्रभु की भक्ति और पूर्व भवो को जानने का अच्छा साहित्य । नमोस्तु नमोस्तु महाराजजी🙏
  5. “कालचक्र गतिमान किसी का दास नहीं है।'' इस उक्ति के अनुसार काल का परिणमन प्रति समय चल रहा है। काल के इस परिणमन के साथ जीवों में, वय में, शक्ति में, बुद्धि में, वैभव में, परिवर्तन होता है। जब यह परिणमन वृद्धि के लिए होता है तो उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं और जब यह परिणमन हानि के लिए होता है तो उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं। अभी इसी अवसर्पिणीकाल के चक्र में प्रत्येक प्राणी श्वास ले रहा है। आज जो आयु, ऊँचाई, बुद्धि में ह्रास हमें दिखाई दे रहा है। आगे इससे भी अधिक होगा। यह भी स्वतः स्पष्ट होता है कि आज से वर्षों पहले यह सभी तथ्य और अधिक मात्रा में रहे होंगे। जैनधर्म में इसी कालखण्ड को छह भागों में विभाजित किया है। उनमें प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल, उत्तम, मध्यम और जघन्य भूमि कहलाते हैं। जिसमें मनुष्य को कोई कर्म नहीं करना पड़ता है। परिवार के नाम पर मात्र पति, पत्नी ये दो ही प्राणी होते हैं। कल्पवृक्षों से इनकी दैनिक भोग-उपभोग की सामग्री उपलब्ध होती थी। तृतीयकाल के अन्त में जब भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हो रही थी और कर्मभूमि की रचना प्रारम्भ हो रही थी तब उस संधि काल में अन्तिम मनु-कुलकर श्री नाभिराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ था। गर्भ से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान को धारण करने वाला वह बालक विलक्षण प्रतिभा का धनी था। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद बिना बोये धान्य से लोगों की आजीविका होती थी परन्तु कालक्रम से जब वह धान्य भी नष्ट हो गया, तब लोग भूख-प्यास से अत्यन्त व्याकुल हो उठे और सभी प्रजाजन नाभिराज के पास पहुँचकर उनसे रक्षा की भीख माँगने लगे। प्रजाजनों की व्याकुल दशा को देखकर नाभिराज ने उन्हें ऋषभकुमार के समीप पहुँचा दिया। उन्होंने उसी समय अवधिज्ञान से विदेहक्षेत्र की व्यवस्था के अनुसार इस भरतक्षेत्र में भी वही व्यवस्था प्रारम्भ करने का निश्चय किया। उन्होंने असि (सैनिक कार्य), मषि (लेखन कार्य), कृषि (खेती), विद्या (संगीत, नृत्य आदि), शिल्प (विविध वस्तुओं का निर्माण) और वाणिज्य (व्यापार) इन छह कार्यों का उपदेश दिया तथा इन्द्र के सहयोग से देश, नगर, ग्राम आदि की रचना करवायी। इसी कारण आप युगद्रष्टा कहलाए। इस व्यवस्था को आपने इस वसुन्धरा पर अवधिज्ञान से देखकर प्रचलित किया इसलिए आप युगद्रष्टा कहलाए। जब भगवान् माता मरुदेवी के गर्भ में आये थे, उसके छह मास पहले से अयोध्या नगर में हिरण्य-सुवर्ण तथा रत्नों से वर्षा होने लगी थी, इसलिए आपका नाम हिरण्य गर्भ पड़ा। षट्कर्मों का उपदेश देकर आपने प्रजा की रक्षा की इसलिए आप प्रजापति कहलाए। आप समस्त लोक के स्वामी हो इसलिए लोकेश कहलाए। आप चौदहवे कुलकर नाभिराज से उत्पन्न हुए इसलिए आप नाभेय कहलाए। इत्यादि अनेक नामों से आपकी ख्याति हिन्दू पुराणों और वेदों, श्रुति में उपलब्ध होती है। अनेक शिलालेखों और अनेक खोजों से प्राप्त सभ्यताओं में जो अवशेष मिले हैं, उससे आपकी प्राचीनता और सार्वभौमिकता को वर्तमान के सभी इतिहासकारों ने एक स्वर से स्वीकारा है। डॉ. सर. राधाकृष्णन कहते हैं - जैन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म की उत्पत्ति होने का कथन करती है जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बात के प्रमाण पाए जाते हैं कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव की पूजा होती थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथ से भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि तीर्थङ्करों के नाम का निर्देश है। भागवत पुराण में भी इस बात का समर्थन है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे। भगवान् ऋषभदेव के दस भवों का कथन पं. भूधरदासजी ने अपने 'जैन शतक' ग्रन्थ में किया है - आदि जयवर्मा, दूजै महाबल भूप तीजै स्वर्ग ईशान ललिताङ्ग देव थयो है। चौथे बज्रजंघ एवं पांचमे जुगत देह सम्यक ले दूजे देव लोक फिर गए हैं। सातवै सुविधि एक आठवै अच्युत इन्द्र नवमैं नरेन्द्र वज्रनाभि भवि भयो है। इसमै अहिमिन्द्र जानि ग्यारहै रिषभनाथ नाभिवंश भूधर के माथै नम लगे हैं। भगवान् ऋषभदेव का सम्पूर्ण वृत्तान्त और उनके पूर्व भवों का वर्णन पुराण ग्रन्थ में आचार्य श्री जिनसेनस्वामी ने किया है। चूंकि यह पुराण सविस्तार बहुत विपुल सामग्री को लिए है। इस पुराण में ऋषभदेव के साथ अन्य अनेक महापुरुषों का वर्णन भी है। भगवान् ऋषभदेव कैसे बने? उनके जीवन के पूर्वभवों को इसी पुराण की आधारशिला बनाकर इस लघुकाय कृति का रूप बना है। मात्र ऋषभदेव का जीवन, कम समय में स्वयं को स्मृत रहे और अन्य भव्य प्राणी भी लाभ उठायें, इस भावना से यह प्रयास किया है। इस कार्य को करते हुए अनेक सैद्धान्तिक विषयों का खुलासा भी हुआ और उनका समायोजन भी किया है। दश भवों का वर्णन संक्षेप से इस कृति में उपलब्ध है। प्रभु का यह संक्षिप्त कथानक सभी भव्यजीवों को उत्तम बोधि प्रदान करे, इन्हीं भावनाओं के साथ परम पूज्य आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज को समर्पित यह कृति जिनके प्रसाद से इस आत्मा को सम्यक् बोधि की प्राप्ति हुई है। मुनि प्रणम्यसागर
  6. 'युगद्रष्टा' वर्तमान युग के महान् जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के यशस्वी शिष्य श्रमण श्री प्रणम्यसागरजी महाराज की एक अनुपम कृति है। यह कृति पन्द्रह शीर्षकों में विभाजित है। इसके नौ शीर्षकों के अन्तर्गत भगवान् ऋषभदेव के पूर्व भवों का वर्णन है, शेष शीर्षकों के अन्तर्गत आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का जीवन चरित्र है! जीवन और मरण निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है! जन्म-मरण के इस परिभ्रमण को विकारहीन होकर एक मात्र मुक्त होकर ही तोड़ा जा सकता है ! मुक्ति का मार्ग पुरुषार्थ मूलक है! भगवान् ऋषभदेव का जन्म महाराज नाभिराज और मरुदेवी के गर्भ से उस काल में हुआ जब कल्पवृक्षों के आशीष थकने लगे थे! समय कर्मभूमि की ओर यात्रा कर रहा था। उस काल में अयोध्या पति ऋषभदेव ने असि, मषि और कृषि का उपदेश देकर मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाई। इस सृष्टि का न आदि है न अंत। आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है मात्र पर्याय ही बदलती रहती है। ऋषभदेव भगवान् की पूर्व पर्याय का वर्णन इस कृति में उपलब्ध है। ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर हैं। जैनधर्म अत्यन्त प्राचीनधर्म है। ऋग्वेद की ऋचायें भगवान् ऋषभदेव का गुणगान करती हैं। श्रीमद् भागवत में ऋषभदेव भगवान् का सम्पूर्ण जीवन चरित्र उपलब्ध है। मेजर जे-सी फरलांग के अनुसार – “जैनधर्म के आरम्भ को जान पाना असंभव है। इस तरह यह भारत का सबसे पुराना धर्म मालूम होता है।" यशस्वी लेखक ने जैनधर्म के प्रथम तीर्थङ्कर पर युगद्रष्टा शीर्षक से उपन्यास लिखकर समाज पर उपकार किया है। आज के भौतिकवादी युग में लोगों के पास इतना समय कहाँ; जो आदिपुराण जैसे बृहत् काय ग्रन्थों को पढ़े और जैनधर्म के रहस्यों को समझें। इस दृष्टि से प्रांजल भाषा में लिखा हुआ यह उपन्यास उन उद्देश्यों की पूर्ति कर आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का महान् जीवन चरित्र से परिचय कराता हैं | युगद्रष्टा कृति में तिलोत्तमा-नीलाञ्जना नामक प्रसंग भी दिया है! जो कि ऋषभदेव के वैराग्य का कारण बना। एक दिन अयोध्या पति सम्राट ऋषभदेव राज्य सभा में नीलाञ्जना का नृत्य देख रहे थे। सहसा नीलाञ्जना के आयु के पुष्प से जीवन रूपी सुरभि विलोप हो गई। इन्द्र ने तत्काल कृत्रिम नीलाञ्जना का नृत्य प्रारम्भ करा दिया किन्तु सम्राट ऋषभदेव की प्रज्ञा भरी आँखों ने देख लिया कि नीलाञ्जना का आयु कर्म समाप्त हो चुका है। मृत्यु निश्चित है, किन्तु आयु कर्म कब समाप्त होगा यह अज्ञात है। उनके हृदय में वैराग्य के छिपे हुए अंकुर उगे और उन्होंने निश्चित किया कि मेरा जीवन भी व्यर्थ व्यतीत हो रहा है! इस घटना के पश्चात् स्वयंबोधित हुए और अभिनिष्क्रमण कर गए! और दीर्घ तपस्या के पश्चात् मुक्ति का वरण किया। आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र, पूर्व भवों सहित 'युगद्रष्टा' उपन्यास में है। इस उपन्यास की भाषा प्रांजल, प्रभावकारी और सौम्य विषय वस्तु के सर्वथा अनुकूल है। इस उपन्यास में भगवान् ऋषभदेव के यशस्वी पुत्र भरत और बाहुबली का संदर्भ न होना आश्चर्य उत्पन्न करता है। उपन्यास में यदि भरत और बाहुबली पात्र होते तो उपन्यास की रोचकता में श्रीवृद्धि होती। बहुत सम्भव है इस प्रसंग को इसलिए नहीं लिखा है कि इस विषय में मुनि श्री स्वतंत्र कृति लिखने की भावना रखते हों। प्रस्तुत उपन्यास युगद्रष्टा मुनिश्री प्रणम्यसागरजी महाराज की प्रज्ञा का परिचय है। मानव जीवन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया का साक्षी है। राग रहित होना ही वीतरागता का प्रमाण है और वही परमात्म तत्त्व है। वर्तमान युग में जैन साहित्य के आधुनिकीकरण की अत्यन्त आवश्यकता है, यह उपन्यास इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक सिद्ध होगा। श्रमणश्री मेरे आराध्य हैं । विनम्र प्रणाम सहित यह भूमिका प्रस्तुत है। मिश्रीलाल जैन एडवोकेट पुराना पोस्ट आफिस गली गुना (म.प्र.) 473001
  7. पिता - कुलकर महाराज नाभिराज माता - महारानी मरुदेवी जन्म-स्थान - अयोध्या नगर कहाँ से अवतीर्ण हुए - सर्वार्थसिद्धि जन्म-राशि - धनु राशि-स्वामी बृहस्पति गर्भकल्याणक तिथि - आषाढ़ कृष्ण द्वितीया नक्षत्र/गर्भावास-काल - उत्तराषाढ़ नक्षत्र, 9 माह 7 दिन जन्म-कल्याणक तिथि - चैत्र कृष्ण नवमी रंग - पीत (तप्त स्वर्ण) चिह्न - वृषभ ऊँचाई - 500 धनुष वंश - इक्ष्वाकु कौमार्य-काल - 20 लाख पूर्व राज्य-काल - 63 लाख पूर्व आयु - 84 लाख पूर्व सन्तान - 100 पुत्र, 2 पुत्रियाँ वैराग्य का कारण - नृत्य करती नीलाञ्जना की मृत्यु दीक्षा-कल्याणक तिथि - चैत्र कृष्ण नवमी समय/नक्षत्र - अपराह्न/उत्तराषाढ़ा सहदीक्षित राजा - 4000 कितने उपवास पूर्वक दीक्षा - षट् मास उपवास दीक्षा-पालकी - सुदर्शन दीक्षा वन/ स्थान - सिद्धार्थ वन, प्रयाग (इलाहाबाद) प्रथम आहार-दाता एवं वस्तु - राजा श्रेयांश-इक्षु रस प्रथम पारणा-स्थान - हस्तिनागपुर रत्न-वृष्टि : 12 करोड़ 50 लाख आठ छद्मस्थ काल - 1000 वर्ष केवलज्ञान कल्याणक तिथि - फाल्गुन कृष्ण एकादशी समय/नक्षत्र - पूर्वाह्न, उत्तराषाढ़ा स्थान - पुरिमतालपुर का शकटावन वृक्ष - न्यग्रोध/वट समवशरण का प्रमाण - 12 योजन कैवल्य काल - 1000 वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष गणधर - 84 मुख्य गणधर - वृषभसेन प्रथम श्रोता - चक्रवर्ती भरत शासन देव/यक्ष - गोमुख शासन देवी/यक्षी - चक्रेश्वरी शिष्य संख्या - 84084 पूर्वधर - 4750 शिक्षक मुनि - 4150 अवधिज्ञानी मुनि - 9000 केवली मुनि - 20000 विक्रिया ऋद्धि सम्पन्न मुनि - 20600 विपुलमति ज्ञानधारी मुनि - 12705 वादी मुनि - 12750 प्रमुख गणिनी आर्यिका - ब्राह्मी आर्यिकाएँ - 3 लाख 50 हजार श्रावक-श्राविकाएँ - 3लाख/5 लाख योग-निरोध काल - चौदह दिन पहले मोक्ष कल्याणक तिथि - माघ कृष्ण चतुर्दशी समय नक्षत्र - पूर्वाह्न, अभिजित् नक्षत्र स्थान/आसन - अष्टापद/कैलासपर्वत/ पद्मासन सहमुक्त मुनि - 10000
  8. आदिम युग के प्रजापति, आदि मानव, आदि तीर्थाधिपति, आदि स्रष्टा वृषभदेव राजा के राज्यमण्डप में प्रतिदिन की भाँति इन्द्र उपस्थित हुआ और प्रभु को भक्ति भाव से प्रणत हो, उनके चित्त को प्रसन्न करने की आज्ञा चाहता है। समुद्र से महा गम्भीर, तीर्थङ्कर की वाणी का मुखरित होना जब युवराज पद में भी दुर्लभ है, अरिहन्त पद हो तो बात ही क्या? पर इन्द्र आया है अपने अनन्य अन्य देवों के साथ, अनेक अप्सराओं को लिए, उसको नाराज करना प्रभु को मुमकिन न था। अरे! जब महापुरुष निर्बल, असहाय, साधारण प्रजा जन के मन को भी प्रसन्न रखते हैं तो फिर यह तो देवलोक का प्रधान इन्द्र है और हमारी प्रसन्नता में ही अपने को भाग्यवान समझता है, शायद यही सोचकर वृषभ राजा मुस्कुराए और इन्द्र ने इस इशारे को स्वीकृति समझा। पर लोग सोचते हैं कि ये उसी भव से मोक्ष जाने वाले हैं और किसी की बात को इतनी जल्दी मंजूरी नहीं देते जितनी कि इन्द्र की। इन्द्र का ही दिया भोजन, आभूषण, वस्त्र आदि स्वीकार करते हैं, इस विशाल भूमण्डल पर भी अनेक सुन्दर ललनाएँ हैं, उनके नृत्य को देखना पसन्द नहीं करते हैं, मात्र इन्द्र की लायी अप्सराओं का ही। अरे! नाभिराज तो कहने के लिए पिता हैं और मरुदेवी जननी मात्र होने से माता। पर इनका सारा ख्याल तो यह इन्द्र और इन्द्राणी रखते हैं, खैर; हमारे लिए तो सौभाग्य की बात है कि हमारे पालन करने वाले वो महामानव हैं कि जिनके जन्म के पहले से रत्न की बरसात होती थी, इन्द्र जन्माभिषेक के लिए मेरुपर्वत पर प्रभु को लेकर गया और प्रतिदिन यह आकाश इन्द्रों की बारात से ऐसा सुशोभित होता है कि लगता ही नहीं कि धरती यहाँ है और आकाश ऊपर है। इधर यह विचारों का द्वन्द और उधर इन्द्र का आदेश, एक साथ वातावरण बदल गया, लोगों को और कुछ सोचने के लिए अवकाश नहीं, सबका चित्त उस लय में लवलीन । अहो यह अलौकिक संगीत है एक साथ करोड़ों वाद्यों का एक लय में बजना प्रत्येक वाद्य की आवाज अलग अलग सुनना चाहें तो वो भी सुन सकते हैं। बस! हमें मन लगाने की जरूरत है, इन ध्वनियों का आरोहण-अवरोहण ऐसा कि मर्त्यलोक के मानवों द्वारा असम्भव है, यह राग का आलाप, पदों की थिरकन, कब, कौन-सा हाथ किस अंग पर पहुँच जाता है पता नहीं, कभी वह पैर कान के पास, तो कभी-कभी पैर आकाश में ऐसे फैलते मानो कि आकाश में बिजली चमकती, लहराती चली गयी हो, समझ से परे यह नृत्य जादूगर की तरह कला बाज है, ललाट का ऊपर उठना, भ्रू का कटाक्ष, नयनों की चंचलता, हेमकलशों का उघड़ना, कटि का घुमाव, नाभिस्थल का हिलोरें लेना, भुजाओं और पदों का अन्तर ही नहीं समझ पाना, ग्रीवा का घूमना, संगीत के अनुरूप भाव, रस और लय की एकाग्रता, यह सब कुछ अलौकिक है, जो लौकिक पुरुष के लिए सम्भव नहीं क्योंकि विक्रिया का यही तो वैभव है। जनमानस की नीली आँखों में वह नीलाञ्जना नर्तकी तो अञ्जन की तरह लगी रही, मानो उस सुरी को देखने के लिए अनिमेष पलक लगाये, ये मनुष्य नहीं सुर ही हैं। उस नृत्य ने भगवान् के मन को अनुरञ्जित कर दिया, भगवान् का मन तो बहुत विशुद्ध है पर राग की लालिमा में भी अवगाहित है। स्फटिक मणि के नीचे जपापुष्प रखा हो और मणि लाल न हो यह तो असम्भव है, उन सरागी प्रभु का यह राग ही तो जनमानस को उनसे अनुराग करने को मजबूर कर देता है और अचानक नर्तकी बदल गयी, सब लोग देख रहे थे, कोई भी न सोच पाया कि नर्तकी विलीन हो गयी इस देवलोक से, धन्य है यह सम्यग्दृष्टि, जो राग के प्रसंग में भी इतना सावधान और सूक्ष्मदृष्टि रखता है, लोगों का आनन्द अजस्र चल रहा है पर वह हल्की-सी रेखा की तरह भंग हुआ असुख भी सहन नहीं हुआ, क्या बदला है, कुछ भी तो नहीं, वही पृथ्वी, वही इन्द्र, वही अप्सरा का विलास, वही दरबार, वही नृत्य का क्रम, संगीत की वही लय, वही रस है, पर उस ज्ञानी के अन्तस् में वह छोटी लकीर, भेदविज्ञान की एक विराट लकीर खींच गयी। इन्द्र उस नृत्य को नहीं देख रहा है। वह प्रभु के मनोभाव उनके मुख कमल से जान रहा है, आज पहली बार जन्म के बाद उस मुख कमल को ऐसा देखा जो और लोगों के लिए देख पाना असम्भव। प्रभु का अन्तस् तो सदा एक-सा, पर आज प्रभु ने कुछ अलग ढंग से इन्द्र को देखा और प्रभु इन्द्र के भाव को समझ गए, अरे! इतना प्रयास हमारे लिए करना पड़ा, मैंने आज फिर गलती की, चर्मनेत्र तो खुले के खुले ही रहे पर अन्तस् में अवधिज्ञान का नेत्र स्फुरित हो गया, मैं इन विषय भोगों में ही खो गया, मैं कौन हूँ ? मेरा क्या कार्य है? और मैं क्या कर रहा हूँ ? मुझ जैसे को भी समझाने के लिए यह प्रसंग रचा गया ठीक ही तो है यह इन्द्र का विवेक है, कभी भी महापुरुष को आमने-सामने, तानन-फानन वचनों से नहीं समझाया जाता। महान् आत्मा भी कभी-कभी गलती करते हैं पर उनको समझाने वाले भी महान् होते हैं। असंयम मार्गणा में भी संयमी-सा जीवन जीने वाले उन प्रभु को असंयम के साथ समझाना अविवेक होगा इसीलिए धैर्य धारण कर इन्द्र ने अपने विवेक का परिचय दिया, आज मैं दुनिया की नजरों में भले ही तीन ज्ञान का धारी, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, दूरद्रष्टा, आदि नायक हूँ पर मैंने वह गलती अभी भी नहीं सुधारी जो मैंने दश भव पूर्व की थी। हाँ! हाँ! दशभव पूर्व में! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से पश्चिम दिशा की ओर विदेहक्षेत्र में एक गन्धिला नाम का देश है उसमें सिंहपुर नाम का नगर है, उस नगर में एक श्रीषेण नाम का राजा था उसकी स्त्री सुन्दरी थी, उसके दो पुत्र थे, उनमें ज्येष्ठ पुत्र जयवर्मा था और छोटा भाई श्रीवर्मा । यह बड़ापन और छोटापन तो जन्म की अपेक्षा से है वस्तुतः गुणों से व्यक्ति बड़ा और छोटा होता है। छोटा पुत्र सुभग था, जो स्वभाव से ही सबको प्यारा लगता था। उसकी क्रीड़ा भी मन को प्रसन्न करती थी, उसका उत्साह, प्रज्ञा, कमनीयता आदि गुण ऐसे थे जो बड़े भाई में भी न थे। जयवर्मा को लगता था कि माता-पिता श्रीवर्मा का ही ज्यादा ख्याल रखते हैं, उसे ही ज्यादा प्रोत्साहित करते हैं। परस्पर में कुछ अलग व्यवहार देखकर किसी को ठेस पहुँचती है, तो कोई खुश होता है। वस्तुतः कोई भी व्यक्ति अपने आप को निर्गुण नहीं समझता है प्रत्युत दूसरे के गुण भी उसे दोष दिखते हैं और ऐसी स्थिति में मात्सर्य भाव अवश्य पैदा होता है। छोटे भाई के प्रति अनुराग तो था ही ऊपर से पिता ने राज्यपाट भी श्रीवर्मा को दे दिया। जयवर्मा से रहा न गया, वह अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ घर से निकल गया। संयोग से उसे स्वयंप्रभ नाम के एक निर्ग्रन्थ गुरु मिले। गुरु को देखकर उसे कुछ सम्बल मिला। व्यक्ति को दुःख के समय जिस किसी की सहानुभूति मिले वही उसका परम मित्र होता है। संसार की स्थिति से उसे कुछ वैराग्य तो हुआ पर वह वैराग्य नहीं वस्तुतः जीवन के प्रति निराशा थी। निराशा और वैराग्य में बहुत अन्तर होता है। दोनों में भेद कर पाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। मन दोनों में उदास हो जाता है, मुख भी कुछ फीका पड़ जाता है पर बाद में दोनों में क्या अन्तर है यह रहस्य खुलता है। निराशा जब बढ़ती जाती है तो व्यक्ति बेचैन हो जाता है, आलसी हो जाता है और परेशानसा रहता है जब तक कि कोई आशा की किरण न फूटे पर वैराग्य ठीक इससे विपरीत है। वैराग्य जैसे-जैसे बढ़ता है व्यक्ति की सांसारिक कामनाएँ छूटती जाती हैं और नित प्रतिदिन आनन्दित होता हुआ अनाकुल चित्त हो जाता है। वैराग्य के साथ यदि ज्ञान का पुट भी हो तो मुक्ति उसके हाथ में है। उसने गुरु महाराज से दीक्षा ले ली और निर्ग्रन्थ श्रमण बन गया। सच कहता हूँ-गुरुकुल में रहे बिना ब्रह्मचर्य व्रत दृढ़ नहीं हो सकता और शास्त्रज्ञान बिना भोगों की रुचि नहीं छूट सकती। अभी जयवर्मा नव दीक्षित था; कि एक दिन आकाश में उसने एक विद्याधर को बड़े ठाट-बाट के साथ गमन करते देखा और उसका सोया हुआ भोग रूपी सर्प जाग गया, फल यह हुआ कि उस सर्प ने तात्कालिक वैराग्य को डस लिया, नशा चढ़ गया और भोगों की चित्त में तीव्राकांक्षा हुई, मुझे भी भगवन् ऐसा ही वैभव मिले, विलासता मिले। मन मूर्च्छित हो गया था, निदान बंध हो चुका था। काल की बलिहारी कि, बाहर से भी एक भयंकर सर्प बिल से बाहर निकला और उसके तन को डस लिया। प्राण पखेरू उड गए पर भोग का वह भाव साथ गया और फलित हुआ। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं जिस निर्ग्रन्थता को पाकर व्यक्ति तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, इन्द्र जैसे पदों के लिए पुण्य उपार्जन करके मोक्ष को प्राप्त होता है, उससे उसने विद्याधर का पद पाया। अरे! मणि को बेचकर धूल खरीदना कौन आश्चर्य की बात है, प्रत्युत मूढ़ता की बात है। कोई बात नहीं थोड़ी देर के लिए ही सही, कोई भी अच्छा संस्कार, अच्छा भाव ही देता है बशर्ते कि भवितव्यता अच्छी हो। गलती तो हर कोई करता है पर गलती करके सुधर जाने वाला महान् होता है। भगवान् बनने वाली आत्मा भी धीरे-धीरे विकास पथ पर आरूढ़ है।
  9. इसके बाद संसार का एक भव कम हुआ और प्राप्त हुए नवम भव में वह जैसा चाहता था वैसा ही बना, बल्कि कहीं उससे भी ज्यादा। बदला-सा लगता है पर बदला हुआ कुछ नहीं होता, पर्याय बदलती है, तरंग की तरह उत्पन्न हुई और विलीन हो गयी, फर्क इतना है कि कभी उस तरंग को विलीन होने में दो-चार सेकेण्ड लगते हैं तो कभी दो-चार वर्ष या कुछ अधिक पर, विलीनता अनिवार्य है। वही जमीं है, वही जम्बूद्वीप, वही पश्चिम दिशा, वही मेरू, वही गन्धिल देश जिसमें पूर्व में रहता था पर, अब वह विजयार्ध पर्वत पर पहुँचा जो उस देश के मध्य में था, वह पृथ्वी से पच्चीस योजन ऊँचा है और ऊँचे-ऊँचे शिखरों से ऐसा शोभित होता है, मानो स्वर्ग को ही प्राप्त करना चाहता हो। उस पर्वत के ऊपर दो श्रेणियाँ हैं, जो उत्तर और दक्षिण श्रेणी के नाम से प्रसिद्ध हैं । बस उन्हीं श्रेणियों में विद्याधरों के निवास बने हैं। चूँकि वह पर्वत विद्याधरों से आराध्य हैं, मुनिगण उस पर विचरण करते हैं, इसीलिए पूज्य हैं। उस पर्वत के शिखरों पर किन्नर और नागकुमार जाति के देव रहते हैं, उन शिखरों पर अनेक सिद्धायतन अर्थात् जिनमन्दिर बने हैं। झगझगाते सफेद चाँदी के समान शिखरों का दर्शन मन को विशुद्ध करने वाला है। उस पर्वत की उत्तर श्रेणी में अलका नाम की उत्तम नगरी है। उस नगरी में चारों दिशाओं में चार ऊँचे-ऊँचे दरवाजों सहित उन्नत प्राकार हैं, चारों ओर एक परिखा है, बड़े-बड़े पक्के मकान हैं, उन पर शिखर, उस पर पताकायें, हर घर में वापिकायें उनमें कलहंस पक्षियों का कलरव, फल-फूल सहित उद्यान, चारों ओर सम्पन्नता, शील सहित स्त्रियाँ और पौरुष सहित पुरुष, धान्य के खेत, खुशहाली का वातावरण है। ऐसी अलकापुरी में वह जयवर्मा, राजा अतिबल और रानी मनोहरा के महाबल नाम का पुत्र हुआ। पुत्र पुण्यवान था, जिस कारण से चारों तरफ सौहार्द का माहौल बना रहता था। उस महाबल का शरीर सुन्दरता में बस एक ही था और उसके गुण अनेक थे, जैसे कि सूर्य एक शरीर वाला होता है पर उसकी सहस्र किरणें चारों तरफ बिखर कर लोगों को आनन्दित करती हैं, ठीक उसी तरह वह अपने गुणों से सबके दिल में बसा था। इन अनेक योग्यताओं को देखकर अतिबल ने अपना राज्य पद महाबल को दे तपश्चर्या के लिए गमन किया। विद्याधरों का जीवन तो भूमिगोचरियों जैसा ही होता है, पर विद्याएँ सिद्ध करना और उनकी प्राप्ति से जीवनयापन करने की मुख्यता से ही वे विद्याधर कहलाते हैं। वहाँ भी वंश, कुल, परम्परा और वर्ण व्यवस्था चलती है। राजा अतिबल ने दीक्षा के लिए हजारों राजाओं के साथ वन में गमन किया उनके साथ अनेक विद्याधरों ने वन में जाकर दीक्षा ली। पवित्र जिनलिङ्ग को धारण करके वे कर्म शत्रु को जीतते थे, जीतने का भाव नहीं गया था, गुप्ति, समिति की सेना से घिरे रहते, निर्दोष तपश्चरण करते क्योंकि उनको मालूम था कि बिना खून-पसीना एक किए जब सामान्य-सा राजा भी वश में नहीं आता तो फिर ये तो अनादि से मोह मल्ल के द्वारा पाले हुए अनेक शत्रु हैं, इनको जीतने में एक क्षण भी प्रमाद करना पूर्व की सारी जीत को हार में बदलना है इसलिए वे अतिबल-श्रमण रात्रि में शयन किए बिना धर्मध्यान, शुक्लध्यान रूपी मंत्रियों को लिए गुप्त मंत्रणा करते और सुबह से युद्ध छेड़ देते। अतिबल को यह बल वंश परम्परा से मिला था, कर्म को अच्छी तरह करो और धर्म को भी, यह उन्होंने अपने पूर्वजों से सीखा था। अतिबल के पिता शतबल थे, जो प्रजा को पुत्र की तरह प्रेम करते थे। बहुत भाग्यशाली शतबल ने चिरकाल तक राज्य-भोग भोगा और बाद में अतिबल को राज्य देकर स्वयं भोगों से निष्पृह हो गए। उन्होंने सम्यग्दर्शन से पवित्र होकर श्रावक के व्रत ग्रहण किए, विशुद्ध परिणामों से देवायु का बंध किया और अनेक योग्य तपश्चरण करते हुए समाधिमरण पूर्वक शरीर छोड़ा और अब माहेन्द्र स्वर्ग में बड़ी-बड़ी ऋद्धियों के धारक देव हुए। अतिबल राजा के दादा का नाम सहस्रबल था। अनेक विद्याधर राजाओं से नमस्कृत उनके चरण कमल जब राज्य भार छोड़कर वन की ओर चले तो उत्कृष्ट जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर वे चरण सिद्धलोक में विराजमान हो, हमेशा के लिए भव्य जीवों के ध्यान के योग्य हो गए। ऐसी कुल परम्परा में ही आज महाबल राजा हुए हैं। यथानाम तथाकाम की उक्ति सार्थक करते हुए शत्रुओं के बल का संहार करना, अन्याय को मिटाना और पूर्वजों द्वारा प्राप्त हुए इस राज्य को निष्कण्टक रखने की शपथ ली थी, अपने दैव और पुरुषार्थ से यह सब उन्होंने कर दिखाया। आश्चर्य है कि इस प्रचण्ड वीरता के साथ भी क्षमा, कोमलता, निर्लोभिता,परोपकार भाव, निर्मदता आदि भी उनके अन्तस् में उतने ही समृद्ध हो रहे थे। प्रजा में कोई भय नहीं, कोई आगामी उत्पात की आशंका नहीं, अन्याय शब्द तो सुनने में ही नहीं आता, प्रत्येक व्यक्ति तीन पुरुषार्थों का बराबर पालन करता। यौवन के शिखर पर पहुँचते-पहुँचते वह लोकप्रियता के शिखर पर अनायास चढ़ गया था। प्रत्येक अंग से टपकता सौन्दर्य ऐसा था मानो कामदेव ने अपना निवास छोड़कर उनके शरीर को ही अपना निवास स्थान बना लिया हो। नखों की किरणों से दैदीप्यमान पद कमलों में अंगुलिदल की शोभा-सी कठोर पिंडरियाँ, केले के स्तम्भ-सी जंघायें, करधनी से घिरा नितम्ब, गहरी नाभि, वृक्षशाखा सी दो भुजायें, कसा हुआ वक्षःस्थल, केयूर से घिसे बाजू स्कन्ध, कमल-सा मुख, ललित कपोल, दो नेत्रों के बीच पर्वत-सी ऊँची नाक, कुण्डलों से शोभित कर्ण, लम्बी टेढ़ी भौएँ और धुंघराले काले कुन्तल, वन में भ्रमर को भी तिरस्कृत कर रहे थे। अनेक प्रकार उत्सवों और महोत्सवों में रमण करता हुआ, अपने स्त्री, पुत्रों के साथ वह अतिशय सुखी था। अनेक उत्सवों में गृहोचित एक योग्य उत्सव आता है, जिसे आचार्यों ने वर्ष-वृद्धि दिवस का नाम दिया, अर्थात् वह विशेष दिन जब किसी व्यक्ति का जन्म होता है, जिसे आज-कल वर्षगाँठ, वर्थडे आदि कहा जाता है। अरे! उन विजयार्ध की श्रेणी में भी यह उत्सव मनाये जाते हैं, कोई आश्चर्य नहीं, जैसी यहाँ कर्मभूमि वैसी ही वहाँ, अन्तर सिर्फ काल परिवर्तन का है। महोत्सवों को मनाना गृहोचित कर्म है, इसमें सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का विवाद करना भी अनुचित है। बाहर से सम्यग्दर्शन के लक्षण, जो अरिहन्त, गुरु, शास्त्र की श्रद्धा है, सो तो कुलक्रम से चले आ रहे हैं और वह षट्कर्मों का पालन करता हुआ, अनेक गीतवादित्र, रंगावली, गृह सजावट से युक्त अन्दर राज्य के सभामण्डप में उचित बधाइयों को प्राप्त करता हुआ नृत्य रस का आनन्द लेता हुआ, पुण्य के सागर में डूबा हुआ है। मंत्रिमण्डल भी साथ में राजा की तरह हर्षित है। अपने स्वामिन् की प्रसन्नता से सभी मंत्रीगण भी प्रसन्न थे, परन्तु प्रसन्नता का सही कारण अपने प्रभु को बताना चाहिए, यह समय है ताकि हमारे प्रभु का आगामी भविष्य भी उज्ज्वल हो, इसी अभिप्राय से सम्यग्दर्शन से विशुद्ध हृदय वाले स्वयंबुद्ध नाम के मंत्री ने कहास्वामिन् ! विद्याधरों की यह उत्कृष्ट लक्ष्मी आपके पुराकृत पुण्य का फल है। पुण्य धर्म से होता है और धर्म पञ्चपापों का त्याग, इन्द्रिय संयम तथा समीचीन ज्ञान से होता है, इसलिए हे महाभाग! यदि आप अपनी चंचल लक्ष्मी को स्थिर रखना चाहते हैं और इस पुण्य से अरिहंत-सी पुण्य विभूतियाँ पाना चाहते हैं तो अर्हंत प्रणीत धर्म में अपना उपयोग लगायें। इतना सुनते ही चार्वाक मत को मानने वाला महामति मंत्र अपने अभिप्राय को पुष्ट करने लगा और कहा राजन्! यह मंत्री तो अधर्म के नशे में चूर है, कहाँ पुण्य कहाँ पाप? कहाँ स्वर्ग.कहाँ नरक? प्रत्यक्ष दिखने वाले पञ्चभूतों से बना यह शरीर है जैसे महुआ, गुड़, जल आदि पदार्थों को मिलाने से मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार शरीर बनने पर उसमें चेतना भी उत्पन्न हो जाती है। शरीर की शक्ति क्षीण होती है तो आत्मा भी शक्ति रहित हो जाती है। यों तो हम देखते हैं कि प्रत्येक पदार्थ की कार्य करने की एक निश्चित सीमा होती है, उसके बाद वह पदार्थ काल के गाल में समा जाता है, इसलिए आप प्रसन्न रहिए। खाना, पीना, मौज उड़ाना कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता इसलिए धार्मिकता का नकाब ओढ़कर लोग अपने अहं की पुष्टि करते हैं, इसलिए जो मिला है, उसका ही जी भर भोग करो। प्राप्त हुए भोगों से मिलने वाले सुख को छोड़कर किसी और अलौकिक सुख की कल्पना तो ऐसी है कि “आधी छोड़ पूरी को जावे, पूरी मिले न आधी पावें" तभी तीसरा मंत्री संभिन्नमति कुछ मन्द हास्य लिए हुए जीव की परिकल्पना को थोथा कहने लगा और विज्ञानवाद की पुष्टि करने लगा। कहते हैं-"मुण्डा-मुण्डा मतिर्भिन्ना' और चौथा शतमति मंत्री भी शून्यवाद के विचार रखने लगा। विपरीत अभिप्राय रखने वाले तीनों मंत्री अपने-अपने मत की पुष्टि कर रहे हों, ऐसा ही नहीं, किन्तु स्वयंबुद्ध मंत्री के कथन को भी झूठा करने का प्रयास बरकरार था। कहीं ऐसा न हो राजा इसकी बात मान ले और हम लोग मुँह की खा-के रह जायें। वस्तुतः यह सदियों से होता आया है, अपनी प्रज्ञा से स्वयंबुद्ध मंत्री ने तीनों मतों का जोरदार खण्डन किया और अपनी वाग्मिता से सभासदों का मन प्रसन्न कर जिनेन्द्र प्रणीत धर्म का प्रतिपादन किया। राजा ने बुद्धिमान स्वयंबुद्ध के वचनों को स्वीकार किया और उचित सत्कार कर सम्मानित किया। सत्य है जब अहं को ठेस पहुँचती है तो क्रोध आता है, जिससे मात्सर्य बढ़ता है और वही नरक पतन का कारण हो जाता है। बात मिथ्यादृष्टि को सम्यक् बनाने की नहीं, बात तो अहं को गलाने की है, देखा जाय तो राजा को अभी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं है, परन्तु राजा होने पर भी मार्दवता से ओतप्रोत है। सत्य को स्वीकार करने का बल है। अन्य मंत्रियों का वह अहं उन्हें नरक ले गया। अपने पालक के कल्याण की चिन्ता रखने वाला स्वयंबुद्ध मंत्री जब मेरुपर्वत पर अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना में तत्पर था, तभी उसने आकाशगामी दो मुनिराज देखे, जिनके शुभ नाम थे, आदित्यगति और अरिंजय । मंत्री उनके सम्मुख गया, प्रणाम किया, वन्दना, पूजा की और कहा अवधिज्ञान रूपी नेत्र से सुशोभित तप प्राप्त महाऋद्धियों के स्वामी आप हमें यह बतायें कि विद्याधरों का अधिपति राजा महाबल भव्य है या अभव्य? इसे कहते हैं दूरदर्शिता, यह नहीं पूछा कि राजा सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि? ठीक ही तो है, यह दृष्टि तो कई बार समीचीन हो जाती है, विपरीत हो जाती हैं, पर भव्यता से उसकी मुक्ति की नियामकता प्राप्त होती है। हमें अपने प्रभु को धर्मपथ पर बढ़ाना है, स्वयं को सम्यग्दृष्टि कहकर अपने अहं को नहीं बढ़ाना यही तो सम्यग्दृष्टि की धर्मरुचि है।ज्येष्ठ मुनिराज ने कहा- हे भव्य! तुम्हारा स्वामी भव्य है। उसे तुम्हारे वचनों पर विश्वास है, आगामी दशवे भव में वह तीर्थङ्कर होगा। अभी तुम्हारे राजा ने दो स्वप्न देखे हैं, उनमें से एक का फल है आगामी भव में प्राप्त होने वाली विभूति और दूसरे का फल है आयु की अल्पता। अब राजा की आयु मात्र एक माह शेष रह गयी है। इसलिए हे भद्र! इसके कल्याण के लिए शीघ्र यत्न करो प्रमादी मत बनो। भला भाग्य होने पर जब उचित पुरुषार्थ किया जाता है तो कार्य की सिद्धि अवश्य होती है, काललब्धि के आश्रित रहकर मूढ मत बनो। इतना कहकर दोनों मुनिराज क्षण भर में गगन में अन्तर्हित हो गए। मुनिराज के वचनों से मंत्री का मन बहुत प्रसन्न हुआ और व्याकुल भी। व्याकुलता को लिए हुए वह शीघ्र की महाबल के पास पहुँचा। राजा स्वप्न के फल जानने की प्रतीक्षा में था, मंत्री ने स्वप्न फल सहित ऋषिवर के वचन राजा को सुना दिए। आश्चर्य । अपनी तीर्थङ्करता को निश्चित जानकर भी महाबल ने अपना धैर्य नहीं खोया, विवेक नहीं लुटाया और सम्यक् पुरुषार्थ करने को उद्यत हुआ। अपना वैभव, राज्य भार सब पुत्र को सौंपकर समस्त लोगों से पूछकर सिद्धकूट चैत्यालय पहुँचा। वहाँ सिद्ध प्रतिमाओं की पूजा कर निर्भय हो संन्यास धारण किया। बुद्धिमान राजा ने जीवन पर्यन्त के लिए गुरु की साक्षी पूर्वक आहार, जल तथा शरीर से ममत्व छोड़ दिया। इसी व्रत के साथ वह चार आराधनाओं की परम विशुद्धि को धारण कर रहा था। प्रायोपगमन संन्यास धारण करता हुआ बाईस दिन तक सल्लेखना धारण की। समस्त परिग्रह से रहित होते हुए वह मुनि के समान तपस्वी जान पड़ता था। मुनि के समान इसलिए कहा क्योंकि मुनि के योग्य केशलोंच आदि कर दुर्धर चर्या का पालन नहीं किया। अन्त समय में मात्र नग्न होकर अपने आपको मुनि मानना और मनवाने का हठाग्रह आर्ष विरुद्ध आचरण है। मंत्री ने अपने स्वामी की अंत समय तक सेवा कर अपने मंत्रीपद के कार्य को बखूबी निभाया। तदनन्तर वह महाबल भव का मूल कारण यह शरीर उसमें मोह रहित होता हुआ प्राण त्याग करके ऐशान स्वर्ग को प्राप्त हुआ। वहाँ वह श्रीप्रभ नाम के अतिशय मनोहर विमान में उपपाद शय्या पर बड़ी ऋद्धि का धारक ललिताङ्ग देव हुआ। महाबल ने बहुत ही उत्कृष्ट तप किया पर मन में भोगों की आकांक्षा का संस्कार पूर्णतः नहीं गया। जब तक यह भोगों की वासना बनी रहती है, तब तक निर्मल सम्यग्दर्शन का दर्शन कहाँ ? बाहर से कोई कुछ भी कहे, कितना ही अपने को सम्यग्दृष्टि माने पर मन जानता है कि भोगों की चाह अभी कितनी विद्यमान है, पूर्णतः संसार में मेरा कण मात्र भी नहीं, इस त्रिजगत् में मैं शून्य हूँ। कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व मेरा अहंकार है, यह सब भावना भाते हुए भी जब मन भोगों के आडम्बर में भी दिगम्बर रहे तो तन का दिगम्बर होना सार्थक समझो अन्यथा देवियों का भोग ही हाथ लगता है, मुक्ति का नहीं। यह अनादि की इच्छाएँ एक ही भव में दफन कहाँ हो सकती हैं? गलती बहुत कुछ सुधरी, जयवर्मा ने मुनि बनकर जो भोगों की इच्छा की, वैसी महाबल ने व्रतों के बिना मात्र सल्लेखना धारण करके नहीं की, वह तो मन के किसी कोने में छिपा संस्कार था, जिसने एक भव और बढ़ा दिया वरना अणुव्रतों को धारण कर यदि गृहस्थधर्म का अनुपालन कर सल्लेखना मरण करता तो निश्चित ही आठवें भव में मुक्ति का पात्र बनता। कोई बात नहीं भव्य है मुक्ति तो मिलेगी, पुरुषार्थ जो उन्नति की राह पर हो रहा है, किन्तु आठवें भव में न मिलकर नवमें भव में मिलेगी। भोगों को न छोड़ना पड़े इसलिए, जो लोग मात्र ज्ञान मार्ग का सहारा लेकर अपने को अध्यात्म के शिखर पर बैठा लेते हैं, वे अन्त समय में धड़ाम से गिरते हैं और भवभव के लिए मनुष्यत्व की योग्यता से भी हाथ धो बैठते हैं। उस शुष्क अध्यात्म की अपेक्षा यह सक्रिय आचरण अच्छा है, जो कम से कम अपने पुरुषार्थ से अपने संसार की सीमा तो बना लेता है।
  10. और एक नव संसार मिला, संसार में नवमा संसार। ललित मनोहर अंगों वाला एक पुण्यमूर्ति-सा दैदीप्यमान ललिताङ्ग देव अपने शरीर की प्रभा से सभी देव-देवियों के रूप को तिरस्कृत करता हुआ उपपाद शय्या से युवा हंस के समान उठ खड़ा हुआ और आश्चर्य में पड़ गया कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? यह मनोहर स्थान कौन-सा है, क्षण भर में अवधिज्ञान प्रकट हो गया सब वृत्तान्त दर्पण की भाँति ज्ञात हो गया। अहो! यह हमारे तप का फल है, कहीं मेरी जय जयकार हो रही है तो कहीं अप्सरायें अपने हास्य-विलास से मुझे बुला रही हैं, कोई नृत्यगान से मेरा मन लुभा रही हैं तो कोई अनेक मंगल सामग्री ला रही हैं। आइये देव! आइये पहले मंगल स्नान कीजिए फिर अपनी देव सेना को देखिए पश्चात् नाट्यशाला चलिए, अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना कीजिए, पूजन दर्शन कीजिए और जहाँ तहाँ मनोहर क्रीड़ा स्थलों पर इन देवियों के साथ चिरकाल तक रमण कीजिए। त्यागतपस्या का फल मिलता है पर पहले कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है, बाद में फल में अनासक्त होना पड़ता है, नहीं तो, जो मिला है उससे आगे नहीं बढ़ सकता। यही तो रोना है कि थोड़ा-सा धर्म करके मरा और पुण्य का फल इतना मिला कि जो राग का संस्कार पिछले भव में कम हुआ इस भव में उससे भी अधिक राग-वैभव-विलासता। मुक्ति मिले तो-कैसे मिले ? सचमुच यह पुण्य भी कभी-कभी संसार का कारण बन जाता है, जब दृष्टि समीचीनता से रहित होती है। घबड़ाओ मत! पुरुष अपने विगत पुरुषार्थ से प्राप्त इतने से फल से संतुष्ट नहीं होता, समीचीन मार्ग की ओर बढ़ना है तो राग की आग को धीरे-धीरे बुझाना होगा। ललिताङ्ग की आयु कुछ पल्य की शेष रह गयी है कि उसके पुण्य से उसे फिर एक ऐसी देवी मिली जो अन्त समय तक उसकी पत्नी बनी रही। सभी से विशिष्ट वह स्वयंप्रभा भी आम की नयी कली-सी ललिताङ्ग को भ्रमर-सा सुख देती थी। परस्पर में आसक्ति भाव इतना बढ़ गया कि ललिताङ्ग की आयु एक बूंद गिरने सी चली गयी। कुछ समय बचा कि देव के विशाल वक्षःस्थल पर पड़ी माला म्लान हो गई, आभूषण कान्तिहीन हो गए, कल्पवृक्ष काँपने लगे। यह सब देखकर वह दु:खी हो गया उसके विषाद को दूर करने के लिए सामानिक जाति के देवों ने उसे समझाया। धैर्य मिला, प्रतिबोध को प्राप्त हुआ, विगत में किया पुरुषार्थ सामने आया और तृण की अग्नि के समान वह राग प्रज्वलित होकर अब शान्त हो गया। पन्द्रह दिन तक लगातार लोक के जिन चैत्यालयों की पूजा करता रहा तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग की जिन प्रतिमाओं की पूजा करता हुआ वह आयु के अन्त में वहीं सावधान चित्त होकर बैठ गया। देखो! समीचीन पुरुषार्थ का संस्कार। पूर्व भव में समाधिमरण किया था, प्रायोपगमन संन्यास लिया था, जिसमें स्वकृत और परकृत दोनों प्रकार का उपचार नहीं होता वही सावधानी आज याद आई, वही तपस्या आज एकाग्रता लाई और चैत्यवृक्ष के नीचे बैठा हुआ वह निःशंक हो दोनों हाथ जोड़कर उच्चस्वर से नमस्कार मंत्र का उच्चारण करता हुआ अदृश्यता को प्राप्त हो गया। धन्य है वह देव जिसने अपने कल्याण की चिन्ता में देव पर्याय में भी पुरुषार्थ किया। इस जिनेन्द्र वन्दना से उपार्जित पुण्य का फल क्या मिलेगा? यह तो मालूम होगा पर अभी वह संयोग ललिताङ्ग को स्वयंप्रभा का वियोग हो जाने पर दुःख कारी हो गया। हालांकि देवियाँ तो बहुत सी थी पर स्वयंप्रभा में ललिताङ्ग का मन अधिक रमता था। स्वयंप्रभा भी अपनी राग काष्ठ से बढ़ी हुई, काम की कण्डे जैसी सुलगती अग्नि, मात्र ललिताङ्ग से ही शान्त करती थी। ललिताङ्गका वियोग, बिना वृक्ष के ग्रीष्म ऋतु के समान संताप देता था। चकवा के वियोग में चकवी की तरह वह खेद-खिन्न होती हुई सदा शोकाकुल हो, विरह की वेदना में गुमशुम सी बैठी रहती। उसकी इस व्यथा को देख एक देव ने उसका शोक दूरकर उसको धैर्य बंधाया। उस देवी की आयु छह मास शेष थी। वह भी अपने पति का अनुसरण करती हुई सदा जिन-पूजा में संलग्न रहती। तदनन्तर सौमनस-वन सम्बन्धी पूर्व दिशा के जिनमन्दिर में चैत्यवृक्ष के नीचे पञ्चपरमेष्ठियों का स्मरण करते हुए, समाधिपूर्वक प्राणत्याग कर स्वर्ग से च्युत हो गयी। मानो कोई तारा टूट कर विलीन हो गया गगन में।
  11. अब संप्राप्त अष्टम भव में वह ललिताङ्ग देव स्वर्ग से च्युत होकर इस जम्बूद्वीप के महामेरु से पूर्व दिशा में स्थित विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के उत्पल खेटनगर के राजा बज्रबाहु और रानी वसुन्धरा से वज्रजंघ इस सार्थक नाम को धारण करने वाला पुत्र हुआ। प्रतिदिन अपने गुण रूपी कलाओं की वृद्धि करता हुआ यौवन की दहलीज पर आते-आते वह पूर्ण चन्द्रमा-सा विकसित हो गया और अपने बन्धुवर्ग को हर्षित करता हुआ अपनी कान्ति से सदैव ही प्रसन्न रहता था। उसकी सुन्दरता का बखान क्या करना ? महाबल के भव में जो रूप, सौन्दर्य, गुण, चतुराई विद्यमान थी, उससे कहीं अधिक, इस भव में उसने पाया था, पुण्य का फल ऐसा ही है कि वह व्यक्ति को निरन्तर सांसारिक सुख का उत्कृष्ट उपभोग कराता हुआ अन्त में अरिहन्त पद का फल भी दिलाता है। हाँ, कभी-कभी पुण्य पुरुषों से किया गया राग भी कल्याण का कारण हो जाता है। हुआ यही कि स्वयंप्रभा ने अपना अनुराग ललिताङ्ग के शरीर तक ही नहीं रखा बल्कि उसके वियोग में भी वह जिनपूजन आदि करती हुई उसकी ही याद करती थी। धर्म कितना निष्पक्ष पदार्थ है, कितना सहिष्णु है कि वह पर में राग रखने वाले को भी प्रसन्न रखता है उसे उसके किए धर्म का फल तो देता ही है, राग से बाँधा हुआ कर्म का फल भी उसे मिल जाता है। स्वयंप्रभा का वह राग-बन्ध उसे वहाँ ले गया, जहाँ का राजा वज्रजंघ का मामा था। वह राजा वज्रदत्त था, उसकी रानी लक्ष्मीमति उन दोनों के वह स्वयंप्रभा देवी ही श्रीमती नाम की पुत्री हुई। जिसने जिनदेव के चरणों की पूजा की हो, उसके सुन्दर रूप का वर्णन तो जिनदेव से ही सम्भव है, मुझसे नहीं। अपने पुण्य से वह उस राजा की पुत्री हुई जो चक्रवर्ती बनने वाला है। वह श्रीमती इतनी सुन्दर थी कि उसके रूप को देखकर मनुष्य और देवता की बात तो जाने दो स्वयं कामदेव भी उन्मत्त हो जाता। यौवन के प्राप्त होने पर वह अपने सौन्दर्य की ख्याति से ऐसे प्रसिद्ध हो गई कि मानो कोई कली फूलबनकर महकने लगी हो और चारों ओर से भ्रमर रूपी नरों को अपनी ओर बुला रही हो। ऐसी श्रीमती किसी दिन अपने नगर के मनोहर उद्यान में यशोधर गुरु को केवलज्ञान हो जाने पर स्वर्ग के देवों के आगमन से होने वाले कोलाहल को सुन कुछ भयभीत हुई। उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया, जिससे वह ललिताङ्ग देव का स्मरण करती हुई मूर्च्छित हो गई। शीतोपचार आदि के द्वारा जब वह होश में आई तो वह गुमशुम-सी चुपचाप बैठी रही, वह किसी से कुछ न बोली। यह समाचार जब पिता को ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने पास बुलाकर उससे बात करनी चाही पर वह फिर भी कुछ न बोली। थोड़ी देर बाद राजा समझ गए कि इसे किसी पूर्वजन्म का स्मरण हो आया है। वहाँ से लौटे तो उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो गया और साथ उनके पूज्य पिता के केवलज्ञान का समाचार भी प्राप्त हुआ। प्रथम तो वह केवलज्ञान की पूजा करने गए, बाद में चक्ररत्न को पूजकर दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। इसी बीच श्रीमती की एक पण्डिता नाम की धाय आई और श्रीमती को एकान्त में ले गयी। वहाँ उसने चातुर्य पूर्ण वचनों से बड़े प्यार से उसके मन की बात पूछी। उसने कहा पुत्री! मैं जानती हूँ कि इस उम्र में क्या-क्या रोग होते हैं? जिसके कारण तू मौन हैं । देख, मेरा नाम पण्डिता है, मैं प्रत्येक कार्य में कुशल हूँ। मैं यह तो जानती हूँ कि तुझे क्या रोग है और उसका निदान क्या है, पर वह निदान कहाँ होगा, बस तू मुझे इतना बता दे, आगे सब कार्य मेरा। बेटी! मैंने तुझे जन्म से पाला है इसलिए मैं तेरी माँ समान हूँ और माँ से कोई रोग छुपाना ठीक नहीं है। यदि तू माँ को न बताना चाहती है तो मत बता, मैं तेरे साथ हमेशा रहती हूँ इसलिए तुम्हारी प्रिय सखी भी मैं ही हूँ। मेरी सखी किसी बात से परेशान रहे और मैं उसका समाधान न कर पाऊँ तो मेरा सखीपना व्यर्थ है। इसलिए अपनी सखी समझ कर तो बता। श्रीमती मुझसे शर्माओ मत, अपने दिल की बात सखी से कहने से मन हल्का हो जाता है और फिर मैं तो निश्चित कह रही हूँ कि तेरा कार्य, तेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगी और देख तेरे भाग्य से अभी तेरे पिताजी दिग्विजय के लिए गए हैं इसलिए इस सुयोग्य अवसर को मत खो। श्रीमती कुछ कहने को हुई कि फिर रुक गई तो पण्डिता ने कहा-बोल-बोल यहाँ कोई नहीं है, इसीलिए तो मैं तुझे एकान्त में लाई हूँ। अब की बार श्रीमती ने फिर धैर्य बाँधा और कहा- मैं कहने में लज्जा अनुभव करती हूँ, पर इसके बिना दूसरा रास्ता नहीं है। हे सखी! मेरी कथा बहुत बड़ी है पर, मैं संक्षेप में कहती हूँ जिसका स्मरण आज इन देवों के आगमन से मुझे हो गया। मैं पहले नागदत्त नाम के वैश्य की पुत्री थी। किसी दिन मैंने चारण चरित नामक मनोहर वन में अम्बर तिलक पर्वत पर विराजमान पिहितास्रव नाम के मुनिराज के दर्शन किए, पश्चात् मैंने उनसे पूछा कि हे भगवन्! मैं ऐसे दरिद्र कुल में क्यों उत्पन्न हुई हूँ ? इस प्रकार पूछने पर करुण हृदय मुनिराज ने अपने अवधिज्ञान से बताया कि पूर्वभव में एक समाधिगुप्त मुनिराज थे, वे अपना स्तोत्र पढ़ रहे थे कि तूने उन्हें देखकर हँसी-हँसी में उनके सामने मरे हुए कुत्ते का कलेवर डाला था और इस अज्ञान पूर्ण कार्य से खुश भी हुई थी। यह देखकर मुनिराज ने तुझसे कहा कि बालिके! तूने यह अच्छा नहीं किया भविष्य में इसका फल तुझे पीड़ा देने वाला होगा क्योंकि पूज्य-तपस्वी पुरुषों का अपमान इस भव में या पर भव में नियम से बुरा फल देता है। मुनिराज के ऐसा कहने पर उसी समय उनसे तूने क्षमा माँग उस क्षमा भाव से जो पुण्यबंध हुआ उसके कारण तू इस मनुष्य योनि में जन्मी किन्तु अपमान के भाव से बंधा हुआ दुष्कर्म तुझे दरिद्र बनाये रखा है। इसलिए हे कल्याणि! अब जिनगुणसम्पत्ति और श्रुतज्ञान के उपवास क्रम से ग्रहण करो। इन अनशनादि तप के बिना पूर्व संचित कर्म का क्षय नहीं होगा, न आगामी सुख के लिए पुण्य बंध। भविष्य में कभी मुनियों का अनादर नहीं करना। जो लोग मन से निरन्तर मुनियों का निरादर करते रहते हैं, वे अगले जन्म में स्मरण शक्ति से हीन होते हैं । जो लोग वचनों से मुनियों के लिए अपमान जनक वचन बोलते हैं, वे दूसरे भव में गूंगे होते हैं और जो काय से मुनि का अनादर करते हैं वे ऐसे कौन से दुःख हैं जो उन्हें प्राप्त नहीं होते अर्थात् उन्हें सभी दुःख भोगने पड़ते हैं। इस भव में ही शरीर में ही कोढ़ आदि भयंकर रोगों का भाजन बनना पड़ता है। अस्तु ! इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर मैंने दोनों व्रतों के विधि पूर्वक उपवास किए, जिन उपवास को जिन तिथि और दिन में करना होता है, उन्हीं में किया तथा मरणकर ललिताङ्गदेव की स्वयंप्रभा रानी हुई, उनके साथ मैंने अनेक भोग भोगे, वहाँ से च्युत होकर मैं वज्रदत्त चक्रवर्ती की पुत्री हुई हूँ। हे सखी! वह ललिताङ्ग देव मेरे हृदय में टांकी-सा उकेरा हुआ सदा ही मुझे व्याकुल करता है, मुझे प्रतिपल उसी का स्मरण रहता है। मुझे पता नहीं स्वर्ग से आकर उसका जन्म कहाँ हुआ पर मेरा मन उनके अलावा किसी और को नहीं चाहता। हे सखी! मेरे इस कार्य की सिद्धि सफल तुम ही कर सकती हो, यही सोचकर मैंने यह वृत्तान्त तुम्हें सुनाया है, यदि यह कार्य नहीं हुआ तो उनके विरह में मैं मर जाऊँगी, किसी और से विवाह नहीं करूँगी। पण्डिता ने उसको धैर्य दिलाया और कहा श्रीमती यह कार्य कठिन जरूर है, पर असम्भव नहीं, मैं तेरे पति को अवश्य खोज लाती हूँ। वह पण्डिता इस प्रकार कहकर एक चित्रपट को लेकर शीघ्र ही अत्यन्त पवित्र जिनमन्दिर गई। उस जिनमन्दिर में जाकर पहले पण्डिता ने श्री जिनेन्द्रदेव की वन्दना की फिर वह वहाँ की चित्रशाला में अपना चित्रपट फैलाकर आये हुए लोगों की परीक्षा करने की इच्छा से बैठ गई। विशाल बुद्धि के धारक कितने ही पुरुष आकर बड़ी सावधानी से उस चित्रपट को देखने लगे और कितने ही उसे देखकर यह क्या है? इस प्रकार से जोर से बोलने लगते । वह पण्डिता समुचित वाक्यों से उन सबका उत्तर देती और मूर्ख लोगों पर मन्दमन्द हँसती। वहाँ वासव और दुर्दान्त दो व्यक्ति आये और कहा कि हम दोनों चित्रपटों का स्पष्ट आशय जानते हैं। उन्होंने कहा-किसी राजपुत्री को जातिस्मरण हुआ है इसलिए उसने अपने पूर्व भव की समस्त चेष्टाएँ लिखी हैं और बड़ी चतुराई से बोले कि इस राजपुत्री के पूर्व जन्म के पति हम ही हैं। यह सब सुनकर पण्डिता ने कहा ठीक है, हो सकता है आप ही इसके पति हों। पर जरा इन गूढ चित्रों का अर्थ भी तो बताइये। उन गूढ चित्रों का उत्तर देने में असमर्थ वे चुपचाप वहाँ से चले गए। तत्पश्चात् वह महाभाग गूढ पुरुष आया। उस भव्य ने आकर पहले जिनमन्दिर की प्रदक्षिणा दी फिर जिनेन्द्रदेव की स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया, उनकी पूजा की फिर चित्रशाला में प्रवेश किया। चित्रपट को देखकर उसने कहा, ऐसा लगता है मानो इस चित्रपट में लिखा हुआ मेरा विगत जीवन ही हो। दूसरे चित्र को देखकर उसने कहा अरे! यह चित्र बड़ी चतुराई से भरा हुआ है, अहो यह तो साक्षात् ललिताङ्ग ही है और यह प्राणप्यारी मानो स्वयंप्रभा का रूप ही हो, यह श्रीप्रभ विमान, यह कल्पवृक्ष, ये मुझसे मुँह फारकर बैठी हुई स्वयंप्रभा, मेरे स्नेह की राह देख रही हो, यह मुझसे नाराज हुई मुझे अपने कर्ण फूलों से मार रही है, यह अपने ओठों की लालिमा से अंगुली से मेरे हृदय पर अपना नाम लिख रही है, परन्तु कुछ छूट गया, वह नहीं बनाया जब मैं उसके ललाट से अंगुली फेरते हुए आते-आते उसके गर्दन तक लाता तो शर्माकर दूर भाग जाती, निश्चय ही यह स्वयंप्रभा के हाथों की चतुराई ही है। इस प्रकार ऊहापोह करता हुआ उसका गला भर आया, उसकी आँखें नम हो गईं और मूर्च्छित-सा होकर वहीं बैठ गया। धीरेधीरे जब वह सचेत हुआ तो उसने पण्डिता से पूछा हे भद्रे! यह सब लीला क्या है? और क्यों बनायी गयी है? पण्डिता ने उसे सारा हाल सुनाया, बाद में राजकुमार ने अपना चित्र उस धाय को दिया तथा स्वयंप्रभा का चित्रपट लेकर चल दिया और कहा कि श्रीमती से कहना मैं जल्द ही आऊँगा। यह सब कार्य पूर्ण होने में जितने दिन लगे तब तक वह चक्रवर्ती दिग्विजय से वापस लौटे। जब वह केवलज्ञानी गुरु के दर्शन करने गए थे तभी उनके भावों की विशुद्धि से उन्हें प्रणाम करते ही अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया था। चक्रवर्ती ने घर आकर उस अवधिज्ञान से श्रीमती की घटना को जाना और श्रीमती को अपने पूर्वभव भी सुनाये। पश्चात् श्रीमती को आश्वासन देकर चक्रवर्ती ने अपने बहनोई वज्रबाहु, बहिन और भानजे को बुलावा भेजा। पाहुनों का आगमन हुआ, बातचीत हुई और वज्रजंघ तथा श्रीमती का विवाह बड़े ठाटबाट से हुआ। चिरकाल से बिछुड़े हुए चकवा-चकवी के समान उनका समागम सबको प्रिय था। उत्तम साधारण मनुष्यों को अनुपलब्ध ऐसे उत्तम-उत्तम दिव्य भोगों को भोगता हुआ, उसका चित्त श्रीमती के अलावा कहीं नहीं लगता था। जैसे बने तैसे, जब तक बने तब तक, वे दोनों एक-दूसरे को सन्तुष्ट करते हुए सुखपूर्वक समय व्यतीत करते । वज्रजंघ ने दो मुनियों को वन में दान दिया, उस आहारदान के प्रताप से पञ्चाश्चर्य हुए और अतिशय पुण्य का बंध हुआ, उसने दमधर नाम के मुनिराज से अपने पूर्व भव पूछे, धर्म का स्वरूप समझा। धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थों को करता हुआ एक दिन वह अपने शयनागार में अपनी रानी के साथ सुख क्रीड़ा में लिप्त था, उस शयनागार में सुगन्धी और केश संस्कार के लिए धूम्रघट रखे गए थे। एक महज संयोग, उस रात्रि में झरोखे बन्द थे, उन धूम्रघटों से निकलता हुआ काला धूम्र ही उन दोनों का काल बन गया। श्वास निरुद्ध होने से दोनों के प्राण-पखेरू साथ-साथ उड़ गए। सपना साकार हुआ, साथ-साथ जीने की कसम खाई थी, साथ-साथ ही मर गए। धिक्कार ऐसी भोग-उपभोग की सामग्री जो प्राणों का ही हरण कर ले। धिक्कार है उस वासना को जो विवेक का ही अपहरण कर ले। अस्तु, दोनों का मरण हुआ, मुनिराजों को आहारदान दिया था, उससे भोगभूमि की आयु का बंध किया और बचे हुए पुण्य का उपभोग करने को गए, एक साथ दूसरी जगह मानो एक घर को छोड़कर कोई दूसरे नए घर में गया हो और अब प्रारम्भ हुआ एक नया अध्याय।
  12. संसार में भ्रमण का सप्तम भव था। मरण हुआ तो जन्म निश्चित ही है पर उन दोनों का जन्म वहाँ हुआ जहाँ पर अक्सर लोग दान के प्रभाव से ही उत्पन्न होते हैं। ऐसा नहीं कि सभी दान देने वाले वहीं पर ही जन्म लेते हैं, किन्तु जो दान तो देते हैं उत्तम पात्र को, किन्तु मिथ्यात्व को भी अन्तस् में पाले रखते हैं, उन्हें पुण्य का फल यह भोगभूमि में फलता है। जन्म तो स्त्री के गर्भ में ही होता है पर जैसा कर्मभूमि के मनुष्य को गर्भ के प्रसव में पीड़ा होती है वैसी वहाँ नहीं होती। वहाँ साथ-साथ जन्मते हैं, साथ-साथ जीते हैं और साथ-साथ मरते हैं । युगल का जन्म होता है उसी समय युगल को उत्पन्न करने वालों का मरण होता है। साथ-साथ जन्मे हुए बड़े होकर पति पत्नी-सा व्यवहार करते हैं और कोई दूसरा सम्बन्ध नहीं, न भाई-बहिन का, न मातापिता का, इसी से फलित है कि दुनिया में सबसे बड़ा सुख स्त्री-पुरुष का निर्विघ्न संयोग है। जैसे-जैसे संयोग बढ़ता है, व्यक्ति दुःखी होता जाता है शायद इसीलिए स्वर्ग और भोगभूमि में कोई दूसरा संयोग नहीं होता। वहाँ कोई किसी की स्त्री को बुरी नजर से नहीं देखता, न ही कोई स्त्री किसी दूसरे को अपना पति बनाने का भाव करती है, बाहरी सुख तो मिलते हैं, पर उन सुख में व्यक्ति सुखी तभी रह सकता है, जबकि अन्दर भी कुछ सुख की सामग्री हो। वह सुख की सामग्री है सदा शुभ लेश्या यानी शुभ भाव, सरलता, सन्तोष और इसी बल पर वे नियम से इस भूमि पर सुख भोगने के उपरान्त स्वर्ग का सुख अवश्य भोगते हैं। विशुद्ध भावों से उत्तम पात्र को दान देने का इतना विशिष्ट फल कि यह भोगभूमि का सुख तो सुबह के नाश्ता जैसा, बाद में स्वर्ग का सुख का भरपूर भोजन जैसा। यह सब कल्पना नहीं पुण्य और पाप के उपभोग के स्थान बने हैं, जो अनादि से हैं जीव अपनी स्वतन्त्रता से कर्म कमाता है और उसी का फल भी भोगता है । सभी प्रकार के रत्नों से बनी दिव्यभूमि, जिस पर चार अंगुल ऊँची घास सदैव लहलहाती है। जहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं,जो जीव को मन चाही सामग्री उपलब्ध कराते रहते हैं। ये वृक्ष उगकर बड़े नहीं हुए हैं इसीलिए वनस्पतिकायिक नहीं हैं और न देवों के द्वारा बनाये हुए हैं। स्वभाव से ही इस जगत् की विचित्र व्यवस्थाएँ चलती रहती हैं। उस गर्भ से जन्म लेने के उपरान्त छह सप्ताह में ही वे पूर्ण जवान हो जाते हैं और सातवें सप्ताह में तो अच्छे-अच्छे वस्त्राभूषण धारण कर भोग भोगने योग्य हो जाते हैं। बहुत आयु होने पर भी यहाँ अकालमरण नहीं, सदा एक समान सुख, छह ऋतुओं की सामग्री एक साथ, उत्कृष्ट संहनन, कान्तिमान शरीर, मनोहर चेष्टाएँ, सभी कलाओं में निपुण, सदा प्रसन्नता। एक समय वह वज्रजंघ का जीव जब आर्य बनकर अपनी स्त्री के साथ कल्पवृक्ष की शोभा निहारता हुआ बैठा था कि आकाश में एक देव का विमान दिखा, जिसे देखते ही दोनों को जातिस्मरण हो गया और संसार का वास्तविक चित्र सामने आ गया। यह उपादान के जागृत होने का समय है, मानो इसीलिए दोनों की दोनों आँखें खुली की खुली रह गयीं। अब संसार में भ्रमण करते-करते यह आत्मा अत्यन्त तृप्त हो गयी है, विमान देखने में, जुती हुई मिट्टी की तरह मानो ऊपर मुख किए हैं, बरसात होने की देर है कि अनादिकाल से सुप्त हुआ बीज अंकुरित हो जाये, सोचते-सोचते वह बरसात लिए दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों के मेघ आ गए। आतम माटी अत्यन्त खुश हुई और विगत के दुष्कर्मों की पश्चाताप की आग बनकर नयनों से बाहर निकलने लगी। पात्र में लगा पुराना मल जब तक साफ नहीं होता और पात्र साफ-स्वच्छ नहीं होता तब तक नव अमृत को उसमें कैसे रखा जाये? जन्म-जन्म से की हुई गलती को सुधारने में भी कई जन्म लगते हैं, तब कहीं कोई महापुरुष बनता है। मोक्ष पद मिलता धीरे-धीरे यह बात सामने आ जाती है। दोनों जीवों के दोनों नयनों से लगातार अस्रुधारा प्रवाहमान है। इस भोगभूमि में इन मुनिराजों के दर्शन, आत्मग्लानि से ओतप्रोत और विनय से भरपूर हाथ जोड़े खड़े हुए युगलों को देखकर युगल मुनिराज वहीं रुक गए। वज्रजंघ आर्य ने मुनिराजों के चरणयुगल में अर्घ चढ़ाया, नमस्कार किया और अति विनय से उनके आगमन का समाचार पूछा। यह विनय बहुत दुर्लभ गुण है, पूर्व जन्म में लिए हुए संस्कार और तप से प्राप्त होता है। मानता हूँ कि उपादान की काललब्धि आयी है, निमित्त-उपादान के पास चलकर आये हैं पर समर्थ उपादान भी निमित्त का अनादर नहीं करता। अहो! सम्यक्त्व प्राप्ति से पूर्व में इतना विनय और आदर फिर सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद तो क्या कहना! मुनिराज मौन हैं, वे देख रहे हैं उसकी भक्ति, उसकी उत्सुकता। पुनः आर्य पूछता है, भगवन् कुछ बताओ। मुझे ऐसा लग रहा है, मानो मैं आपसे पूर्व से परिचित हूँ, आप हमारे अनन्य मित्र रहे हैं। तब ज्येष्ठ मुनि कुछ मुस्कुराते हुए अपनी दन्त रश्मि से भव्य का शोक दूर करते हुए कहते हैं। हे आर्य! मैं स्वयंबुद्ध मंत्री का जीव हूँ। जब तुम महाबल थे, तब मेरे सम्बोधन से तुम सल्लेखना को प्राप्त कर स्वर्ग गए। तुम्हारे वियोग में मैंने दीक्षा धारण की थी और समाधिमरण कर देव हुआ फिर मनुष्य बना, दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान और ऋद्धियों को प्राप्त हुआ हूँ। अवधिज्ञान से तुमको जाना और मित्र स्नेह से आपको समझाने आया हूँ। भोगों की रुचि छोड़कर जब तक निर्मल सम्यग्दर्शन धारण नहीं किया जाता है तब तक हे आर्य! इस संसार के दु:खों का अन्त नहीं होता। धर्म का स्वरूप सुनकर, समझकर भी, मन इच्छाओं का दास बना ही रहता है। यह इच्छा की शक्तियाँ हमारे आत्मज्ञान की शक्ति को कम करती रहती हैं। शक्ति का केन्द्रीयकरण न होने से ही आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। भोगों को छोड़कर मात्र वन में चले जाना वैराग्य नहीं है, किन्तु वस्तु स्वभाव को समझकर, वस्तु के गुण-निर्गुणपन का विचारकर भोगों को कभी स्मृति में न लाना ही सम्यग्ज्ञान है, वैराग्य है। साधु और संसारी में अन्तर है ही क्या? संसारी जन पाँच इन्द्रियों के विषयों में मन की इच्छापूर्ति में सुख मानते हैं और साधु इनसे विपरीत बुद्धिवाला होता है। यदि साधु होकर भी पञ्चेन्द्रिय को न जीता, इन्द्रिय विषयों की अभिलाषा को न छोड़ा तो मात्र नग्न बाना ज्ञानियों की दृष्टि में हास्य बाना है, अज्ञानी भले ही तुम्हें पूजता रहे और तुम अपने को ज्ञानी समझते रहो। इन्द्रियाँ पाँच हैं, एक मन हैं बस छह ही तो पदार्थ हैं, जिन्हें जीतना है ऐसा समझना भोलापन है। वस्तुतः इन छह से ही संसार बना है, इनको जीतना सरल है ऐसा समझकर यदि बेपरवाह रहे तो आगामी भविष्य में भी कल्याण असम्भव है। जब हम इन छह इन्द्रियों और उनके विषयों को छोड़ देते हैं तो हम मात्र स्वसंवेदन का अनुभव कर पाते हैं, तब यह जगत् शून्य प्रतिभासित होता है। जगत् में शून्यता का प्रतिभास हो और हमें भय न लगकर आनन्द हो, यह रुचि जब जागृत हो तो मोक्षमार्ग को हमने समझा, जाना ऐसा समझना अन्यथा सब मोह-मार्ग है, मोह का विस्तार है। इसलिए अपनी पैनी प्रज्ञा से जीव और अजीव दो ही द्रव्य में भेद का अभ्यास कर, जिससे अनादि से पले हुए मिथ्यात्व का शमन हो, फिर क्षयोपशम होकर क्षय हो सके। हे आर्य! तुम भव्य हो किन्तु अभी तक इस बहुमूल्य रत्न के अभाव में ही भटकते रहे हो अब एकाग्रचित्त होकर प्राप्त देशनालब्धि के मनन से विशुद्धि बढ़ाते हुए अपने अन्तःकरण से अन्तरकरण परिणामों को प्राप्त कर और दुर्लभ सम्यग्दर्शन का लाभ प्राप्त करो। परम-पुरुष अर्हत् भट्टारक के वचनों को प्रमाण कर शनैःशनैः जब वह आत्मवत् समस्त समष्टि में चेतना ही देखता है तो वह समद्रष्टा बन जाता है भले ही वह सर्वद्रष्टा न हो। इस दृष्टि की अनुपलब्धि से परिमित प्रज्ञा भी समीचीन नहीं होती इसीलिए चरण गहराई में नहीं उतरते । यह सम्यग्दर्शन एक दिव्य प्रकाश है। प्रकाश ही जीवन है अन्धकार तो मृत्यु है इसीलिए प्रकाश से प्रकाशित वस्तु भी अनमोल हो जाती है यह प्रकाश की महत्ता है। षट् द्रव्यों की अनवरत परिणति और उनकी आस्तिक्यता पर विश्वास बिना, मन की उद्विग्नता का अन्त कहाँ? बिना अनुद्विग्न हुए समरसी विश्व कहाँ? यह समरसता वह परम रसायन है, जिसके सद्भाव में, चेतन में, अचेतन में यह आत्मा समानता से आप्लावित हो जाती है और सहज कारुणिक भाव से वह प्रत्येक को अनन्यमना हो लखता है, तब वह अलख शाश्वत तत्त्व जो विश्व की चूलिका पर विराजमान है, अन्तस् में श्रद्धान से वैसा ही प्रस्फुटित होता है। प्रारब्ध तो द्वैत से होता है, अद्वैत की दृष्टि से चेतन से चिपटी कर्म रज वृक्ष से पक्वफल की तरह स्वतः निर्जरित हो जाती है और अन्तरङ्ग में चैतन्य प्रकाश निराबाध निखरता जाता है। सृष्टि स्वयं में सिमटती चली आती है, अपने में होकर भी परत्व से जिसमें विद्वेष नहीं। अनन्त सम्भावनाओं से खचित आत्म द्रव्य की अविनश्वर सत्ता को अभी तक तुमने खोया नहीं, आज जागृत हो, उसे देखो, वह लहरें थीं, जो अनन्त क्षणों की अनन्त परिणतियों से दूर लगती हैं, पर वह इस आत्म-रत्नाकर से बहिर्भूत नहीं। इसी रत्नाकर से निकलकर इसी में विलीन हो गयीं हैं। इस किनारे से उस पार तक यह निरा चैतन्य का ही विस्तार है। इस चैतन्य रत्नाकर से बाहर कुछ भी नहीं गया। वह नमक की डली-सा अन्दर बाहर एक-सा अखण्ड ज्ञायक समरस प्रत्येक प्रदेश में स्वभावतः अपनी सत्ता से आपूरित, अनन्त गुणों का राजस्व लिए, आकाशवत् निर्मल होते हुए भी ज्ञान का ज्योतिः पुंज, रहस्यमय गगन में, अपने को अद्यावधि, पर द्रव्य से अबाधित हो, निराकुल ही बनाये हुए है। इस रहस्य का आज हे आर्य! उद्घाटन हो, सामयिक सत्ता का अनुभावन हो, निखिल विश्व में चेतन और अचेतन का स्पष्टतः आभास हो, दृश्य-परिदृश्य से दूर स्वतः अनुभवन की योग्यता में अविलम्ब हो, देशना की इस अनुपम घड़ी में डूबो और निरायास प्राप्त अपने में उस परम मह (केवलज्ञान) का विज्ञान हो, काल की प्रत्येक कणिका पर कलि केलि के चिह्नों को देखो और नैपथ्य में विकल केलि को, प्रति श्वास-प्रश्वास की धारा में कैवल्य का विश्वास हो, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, स्वामित्व के अहंकृत कुलाचलों पर अब प्रज्ञा से वज्र प्रहार करो । इच्छा, आकांक्षा, महत्त्वाकांक्षा, वाञ्छा, पराकांक्षा, उत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, प्रकर्ष, काम, असहिष्णु, दम्भ, गर्व, लुम्भन, लोकैषणा, स्वैराचार, मायाचार से रहित क्षुद्र जीव जन्तुओं से रहित निर्मल आत्म जलाशय में स्वस्वरूप को लखो-लखो-लखो...... । प्रणत उत्तमांग पर दृष्टिपात करते ज्येष्ठ मुनि ने आर्यभार्या को प्रतिबोधित किया और कहा यह दिव्यप्रकाश, बहुमूल्य रत्न तुम्हारे लिए भी ग्राह्य है कल्याणि! इससे यह स्त्री पर्याय का विच्छेद आगामी भव में सहज है। पुंसत्व बिना विचारों की स्थिरता नहीं होती। चंचलता ही विभ्रमता की जननी है और ध्यान में बाधक है। बिना ध्यान मोक्ष नहीं इसलिए सुलभ प्राप्त कालयोग में सम्यग्दर्शन का लाभ, काल को भी परास्त करने वाला है। इस प्रकार प्रतिबोध को प्राप्त हुए आर्य और आर्या अनन्त संसार को अपने में समेटकर क्षणमात्र में केन्द्र पर स्थित हो गए। प्रणमन हुआ युगल मुनि के युगल चरण कमलों में और अगले ही पल शुभ मेघ के समान अन्तर्धान हो गए। अपने कर्तृत्व से दूर कर्त्तव्य के पूर में आच्छादित, दोनों कारुणिक मूर्तियाँ सहसा, गगन में दूर-दूर तक निस्तब्ध, निःशब्द, निर्बन्ध ............। आज आर्य को लगा मैं अब संसार सागर पर तैर रहा हूँ, मैंने विश्व को अपने में समेट लिया या प्रत्येक पदार्थ को उसी के परिणमन के लिए स्वतन्त्र किया यह जानना मनः अगोचर है। कृपापात्र स्वयंबुद्ध मंत्री के जीव में मेरे कल्याण का अथक अरुक प्रयास अद्भुत है। अपनी ही स्वायत्त गुणों की शाश्वत सत्ता में रमण करने वाले चारण युगलों का मेरे प्रति करुण स्पन्दन मेरे रोम-रोम को रोमाञ्चित कर रहा है। इस विलासता के उत्कृष्टधाम में विरागता का उत्कृष्ट पाठ पढ़ाने वाला वह चैतन्य अमर रहे। दया से आर्द्र एक संचेतन हृदय ने मेरी कठोर निष्ठुर आत्मा को द्रवित कर अनन्त जीवों की पीड़ा से अछूते बने मेरे आत्मीय स्वभाव में अकारण लोकोत्तर करुणा का अजस्र स्रोत प्रस्फुटित किया है। आज इस चराचर जगत् में आत्मीयता का समुद्वहन करा के आनन्द से ओत-प्रोत किया है। हे आर्ये! आज मैंने तुम्हें पूर्ण पा लिया। पूर्व भव में मेरा तुम्हें पाने का संकल्प अधूरा रह गया था। तुम्हें अपने में समेटकर भी अमूर्त काल ने मेरे स्वप्न को अमूर्त कर दिया। आज मेरा पूर्ण काम हुआ, वासना से परे निष्काम हुआ। हाँ, महाभाग! आज हम दोनों का अपूर्व मिलन हुआ। यह संयोग अब कभी वियोग मुख का भाजन नहीं बनेगा। त्रिजगत् को आहरण करने की महाक्षुधा का आज शमन हुआ। आज में अर्धांगिनी न रहकर आपके अंग-अंग में पहुँच पूर्णांगिनी हुई। अखण्ड सुख का सर्वत्र आत्म सरोवर में युगपत् आभासन! मैं कृतार्थ हुई, सर्वस्वामिनी बनी, पीतकामिनी हो। इस प्रकार चिन्तन की अखण्ड धारा में सम्यक्त्व की दृढिमा से परस्पर में संप्राप्त अखण्ड प्रीति से शेष जीवन को जीवन्त हो जिया और अन्तिम क्षण में विलीन वह आर्य ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नाम का ऋद्धिधारी देव हुआ तथा वह आर्या भी स्त्रीलिंग से सदा के लिए मुक्ति पा स्वयंप्रभ विमान में स्वयंप्रभ नाम का उत्तम देव हो क्रीड़ालय के रमण में आसक्त हुई।
  13. सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद पहला संसार मिला जो महानिर्वाण होने से पूर्व का छठवां संसार है। मन्दाकिनी से शुभ्र स्वप्निल शय्या पर उत्पन्न होते ही कुछ क्षण बीते कि वह देव पूर्ण युवा हंस-सा प्रकृति का अलौकिक रत्नाभ लिए कान्तिमान देह में अन्तस् के समीचीन रत्न के तेज को बाहर प्रस्फुरित करता-सा प्रतिभासित हुआ। अनिमेष पलक वाले दीर्घायत नयनों से उपपाद शय्या की शोभा निहारता हुआ कुछ पल विस्मित रहा। उत्तम-उत्तम आभूषण से सज्जित वेषभूषा में अपने को देख जब मौन छा गया तो चहुँ ओर रत्नों की पारदर्शिता में झलकते अप्सराओं के मुख कमल गिनने में असमर्थ हो पूछा-मैं कहाँ हूँ? मैं कौन हूँ? परिचारकों से परिचय मिला पर असन्तुष्ट तब तद्भव निमित्तक आत्म ज्ञान से सब कुछ यथार्थ देखा जाना। तदुपरान्त मंगल अभिषेक, नृत्यवादन आदि जय-जयकारों से सारा वातावरण क्षुब्ध हो गया। आओ देव, यहाँ बैठो, यहाँ चलो, हम आपकी सेवा में सादर प्रतीक्षित हैं, इत्यादि अनेक प्रीति श्रुत वचनों से अन्य देवों से सम्मानित और अनेक देवियों, पट्टदेवियों से सेवित विपुल वैभव को आनन्द से भोगते गए। अभी तक कुलदेवता के रूप में जिन अहँतबिम्बों की पूजा की जाती थी, आज सम्यक् देव का स्वरूप उन्हीं बिम्बों में झलकने लगा। सम्यग्ज्ञान का माहात्म्य और उसकी देव, निर्ग्रन्थ मार्ग के प्रति रुचि बहुतों को सम्यग्दृष्टि प्रदान कराने में कारण हो गयी। पाताल लोक तक विहार, वहीं तक अवधि नेत्रों से वस्तु स्थिति का दिग्दर्शन तो सहज स्वशक्ति वशात् था, किन्तु अन्य मित्र देवों के साथ ऊर्ध्वगमन भी अपने विमान के ध्वजदण्ड का उल्लंघन कर जाता था। उन विमानों में अद्भुत अनिवर्चनीय, अगणित महिमा-मण्डित जिनबिम्बों की दर्शनीयता हृदय में मानो सदा के लिए प्रतिबिम्बित हो गई और सीमातीत गमन का निमित्त बन गई। तिर्यक् दिशा में मेरुपर्वत ही वह मनोहारी केन्द्र बिन्दु है, जहाँ दूर-दूर घूम आने के बाद भी भद्रशाल, नन्दन, सौमनस वन की गुल्म वल्लरियों, विशालकाय काननों में,सर्वऋतु सम्पन्न सौरभ का आकर्षण, एकान्त निर्झरों में ऋद्धिमान् तेजपुञ्ज नग्न मूर्तियों का दर्शन, तन-मन की थकान को पलायित कर देता। स्वस्थान पर तिष्ठते हुए विचित्र वैक्रियिक शक्ति से कुलाचलों और द्वीपों पर केशरीवत् उत्तालभ्रमण, विजया के गुफा द्वार हों या रजताचल की मेखला पर श्रेणिबद्ध प्रदेश, शशि सम निर्मल गंगा-सिन्धु की धारा में आप्लावन, तो कभी स्वयंभूरमण तक निराबाध गति, लवणसमुद्र की आरब्ध वेला, तो कभी मानुषोत्तर के दिग्दिगन्त तक फैले जिनभवन, गिरिकूटों, वृषभाचलों, वक्षारों, विदेह की विभंग सरिताओं में अवगाहन तो कभी घनी दरीसरों, कन्दराओं और चैत्यवृक्षों पर स्वैररमण, सागर पर्यन्त आयु को क्रीड़ा-लीलावलीला से प्रतिपल रंगित तरंगित कर देती। असीमित रंग रेलियों में जौंक की तरह इन्द्रिय सुख में सतृष्ण, सुखकामना से अतृप्त मन जब दूर-दूर तक सुख की छाँव नहीं पाता है तो सहज ही अपने आत्मीय जनों का दिव्य उपदेश याद आता है। बहुत क्षण बीते, तब श्रीधर को अपने उपकारी, दिव्य नेत्र प्रणेता, मोह विजेता, ऊर्ध्वरेता, अलौकिक प्रीति के संचेता प्रीतिंकर मुनिराज का स्मरण हो आया। अवधि रूपी ज्ञान नेत्र से यथार्थ को प्रतिबिम्बवत् देखा और चल दिया श्रीगुरु के चरणों में, जो श्रीगुरु अब केवलज्ञान-दिव्यप्रकाश से परिपूर्ण ज्ञाता हो गए थे। उनका निखिल के प्रति प्रीतिभाव सार्थक हुआ और प्रीतिंकर स्नातक की अन्बर्धता को धारण किए हुए श्रीप्रभ पर्वत पर विराजमान हैं। दिव्य अतिदिव्य सामग्री से युक्त हो, अपने वैभव को साथ लिए दिव्य आत्मा के चरण कमलों में श्रद्धा से प्रणिपात कर, परिक्रमण विधि से अत्यन्त भक्ति से भरे नम्र पुण्डरीक-सा गुणों का अर्चन-पूजन कर, लोक-परलोक के पाथेय को संचित कर जब वह आत्मिक तेज के बहिस्फुटन को देखकर भी न देख सका, तब उसने अपनी अनन्त इच्छाओं का विसर्जन कर अनिमेष नयन टिका दिए। भगवत् नयनवत् नासाग्र दिव्य-दृष्टि पर; जिसमें प्रतिबिम्बित है समूचा लोकालोक; महासमुद्र में एक तुच्छ द्वीप की तरह, सभी प्रश्न दर्शन मात्र से उत्तरित हो उठे, क्षणभर सोचता रहा यह पारस्परिक वचनालाप भी दर्शन के सुख में अन्तराय उपस्थित करता है, हजारों-नयनों से इस रूप को मात्र अपलक-अवलोकन का भाव, सुनहली चाँदनी-सा चारों तरफ प्रसारित दिव्य आभामण्डल में डूब जाने को जी करता है। इस आभा में कुछ देर तक अजस्र स्नपित होना है तो कुछ पूछू; जिससे निरायास प्राप्त वचनों से यह श्रवण भी परितृप्त हों, दिव्यवचः रश्मियों से अज्ञानतमस् विगलित हो और तेजो मण्डल के पुण्य परमाणुओं काआस्वादन भी। याद आया वही क्षण जब मैं राजा महाबल था और ये तत्त्वज्ञ हितद्रष्टा स्वयंबुद्ध मन्त्री। पर अन्य तीन मंत्री भी थे, जिनसे स्वयंबुद्ध का खूब वादविवाद हुआ, अन्ततोगत्वा उन्हें हारना पड़ा उनके मन की कलुषता तत्क्षण साकार न हो पायी पर, उसका दुष्परिणाम क्या हुआ ? यही जानने की इच्छा है, श्री प्रभु के दिव्य वचन से। शीघ्र ही यह मनोभाव वचनों से प्रेषित हो गया और प्रस्फुटित हुआ करुणा का अनवरत स्रोत....... विज्ञात हुआ तीनों मंत्रियों का कुमरण और उनकी दुर्गति, वहाँ के दुःखों का मर्मस्पर्शी वेदना वृत्तान्त । जब मालूम हुआ कि दो मंत्री आग्रह युक्त मिथ्या परिणामों से निगोद स्थान को प्राप्त हुए हैं, जहाँ प्रतिबोध की किरण भी कभी नहीं पहुँच सकती, किन्तु शतमति मंत्री मिथ्यात्व के कारण नरक गया है। जीव कल्याण को प्रेरित करता अनुकम्पा परिणाम बेचैन-सा करने लगा तो श्रीगुरु से पूछकर वह पवित्रबुद्धि श्रीधरदेव, शतमति नारकी को समझाने, धर्म का उपदेश देने और मिथ्यात्व का वमन कराने के लिए नरक द्वार पर पहुँचा। काललब्धि से प्रेरित हो, दु:खों की सघनता से उस नारकी ने प्राप्त उपदेश को निबिड़ अन्धकार में प्राप्त एक प्रकाश किरण की तरह अपने आंचल में समेट लिया और समीचीन रत्न को खोज लिया। इतना ही नहीं जब वह नरक की भयंकर महाकालिनी, असहनीय पीड़ा को भोगकर विदेह के चक्रवर्ती का जयसेन पुत्र हुआ तो श्रीधरदेव ने पुनः नरक का वह सम्बोधन और वेदना का ज्ञान कराया जिससे जयसेन भोगों से विरक्त हो, समाधिमरण कर ब्रह्मस्वर्ग में इन्द्रत्व को प्राप्त हुआ। इन्द्र होकर भी अपने कल्याण-कर्ता मित्र का स्मरण दिव्य अवधिज्ञान से हुआ तो वह उनके समीप आ वन्दन, पूजन करने लगा। वस्तुतः दुनिया में अपने पर उपकार करने वाला ही गुरु है। भगवान् है चाहे वह पद, कद और वय में कितना ही लघु क्यों न हो? श्रीधरदेव ने ब्रह्मेन्द्र से कहा; अरे! तुम इन्द्र होकर यह क्या कर रहे हो? तुम्हारा उच्च पद है, तुम्हारा वैभव तो हमसे बहुत ज्यादा है; इतना ही नहीं तुम्हारी विशुद्धि भी मुझसे बहुत अधिक है और भावों की विशुद्धता ही पूज्य अपूज्यपने का कारण होती है इसलिए आपका यह सम्मान हमारे लिए.... । तभी बीच में बात को रोककर ब्रह्मेन्द्र ने कहा-नहीं पूज्यवर! वह वैभव, इन्द्रत्व तो सब उस सम्यग्दर्शन की शुभ देन है, जिस दर्शन को दिलाने आप नरकों के अन्धकार में भी मुझे ढूँढने आए थे, इतना ही नहीं आपने पुनः मनुष्य भव में मुझे सम्बोधा और मैं जयसेन फिर इसी संसार वृद्धि को करने वाले मंगल विवाह के उपक्रम में फँसने जा रहा था तभी आपने प्रबोधन दिया और मैंने उसी समय उस सम्मोहन पाश को हमेशा के लिए तोड़ने का निश्चय कर लिया और वन चला गया। वन जाकर मैं अपने लक्ष्य प्राप्ति में सफल रहा। मैंने महसूस किया कि वनिता, पुत्र परिवार की जंजीरों को तोड़े बिना कोई भी पुरुष गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता। व्यक्ति पहले दलदल में जान बूझकर फँसता है फिर निकलने के लिए छटपटाता है; उस समय उसका पुरुषार्थ विपरीत उसको उस दलदल में और डुबोते फँसाते जाता है। सच श्रीधर! इन बन्धनों से निस्तार बहुत कठिन कार्य है। तब श्रीधर बोले-नहीं इन्द्र! इन बन्धनों से घबराना नहीं। आपमें शक्ति थी इसलिए उस मंगल प्रसंग को आपने सहज नाकाम कर दिया, यह आपकी निकट भवितव्यता का सुफल था। लिप्साओं में विवश पुरुष या स्त्री इस विपरीत आकर्षण को छोड़ने में सक्षम, आकर्षण और द्वेष का प्रबल विकर्षण इस जीव को संसार समुद्र में थपेड़े मारमार कर उसे थकाता ही रहता है, इसलिए सम्यग्ज्ञान द्वारा ही विरले ज्ञाता इस बन्धन को तोड़कर मुक्ति पुरुषार्थ में सफलता पाते हैं। सच है; बिल्कुल सच! आपकी प्रज्ञा वास्तव में अद्भुत है। आपका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। इन भोग और भोगिनी के बीच आपका यह ज्ञान नेत्र अब सचमुच खुला हुआ है। इसलिए तो बार-बार आपके चरण छूने को मन करता है और मित्र! आपने जो पहले कहा कि तुम इन्द्र हो फिर भी मुझे इतना सम्मान, सो मित्र यह बड़प्पन तो अहंकार है और यह अहंकार एक पर्वत है जो बड़े-बड़े गुणों को भी देखने नहीं देता, बीच में आ खड़ा हो जाता है। अगर यह पर्वत आपके वात्सल्य से चूर-चूर नहीं होता तो मुझे जीने का आनन्द कैसे आता? कैसे आपकी दुर्लभ संगति पाता। सच में मित्र; जब आपकी इस असीम आत्मीय वात्सल्यता में डूबता हूँ तो मेरी आँखों से हर्षाश्रु निकल पड़ते हैं और थोड़ी ही देर बाद में अपने अन्तःकरण को बहुत पवित्र और हल्का पाता हूँ। इस प्रकार मित्रों का परस्पर मिलन, केवली गुरु का समागम और अनेक नियोग प्राप्त वल्लभाओं के साथ श्रीधर देव का सागरोपम काल भी ओस की बूंद-सा, थोड़ी सी धूप में गल गया। अन्त में जब एक दिन श्रीधर की माला को कुछ म्लान देखकर ब्रह्मेन्द्र ने दुःख व्यक्त किया तो श्रीधर ने कहा मित्र! आपके लिए यह उचित नहीं यह तो निश्चित प्रसङ्ग है और जब निश्चित ही है तो उसमें हर्ष-विषाद करना मोह का कुफल है। पुनः आप मोह न करके वस्तु परिणमन में सतत् जागृत हों, हर परिणति को देखने का और जानने का ही पुरुषार्थ करो ताकि पिछला पुरुषार्थ समीचीन बढ़ता जाये और कुछ दिनों बाद वह क्षणभंगुर पर्याय, लहर की भाँति ऊपर से चलकर नीचे मर्त्यलोक को प्राप्त कर अन्य पर्याय में बदल जाये।
  14. परिवर्तन शील संसार में वह सम्यक् विजेता फिर इस पृथ्वी पर आया। अब तो सीमित श्रृंखलायें ही तोड़ना है। अवतार हुआ है उस आत्म विजेता का इस भूखण्ड पर प्रथम बार। पञ्चमगति को प्राप्त करने के लिए ही मानो यह पाँचवाँ संसार रह गया था। इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का प्रथम तीर्थप्रवर्तक बनना है शायद इसीलिए वह परकल्याण की सीमायें इसी द्वीप से बाँधे हुए हैं। अब अवतरित हुए हैं पूर्व विदेहक्षेत्र के महावत्स देश के सुसीमा नगर में राजा सुदृष्ट की सुन्दर नन्दारानी से, सु अर्थात् अच्छे, विधि अर्थात् भाग्य वाला सुविधि पुत्र हुआ। वह सुविधि बाल्यावस्था से ही गम्भीर प्रकृति का था। अत्यधिक कुशाग्र बुद्धि वाला होने से वह अपने पिता और गुरुजनों को अत्यन्त प्रिय था। माता की आँखों का एक मात्र तारा, कभी माँ से दूर जाकर खेलने चला जाता तो माँ व्याकुल हो घबड़ाने लगती और खेल से बुलाकर अपनी गोद में खिलाती। वह माँ पर नाराज होता था, कि तुम मुझे मित्रों के साथ खेलने नहीं देती, तो माँ कहती तुझे जितना मित्रों का ख्याल रहता है, उससे थोड़ा कम ही सही मेरा भी तो ख्याल रखाकर; सच बताऊँ सुविधि, यदि तुम मेरे सामने ही खेला करो तो मैं तुम्हें कभी बीच में नहीं बुलाऊँगी। सुविधि अपने गुणों से बच्चे, वृद्ध सभी को प्रिय था। सौभाग्य वही है, जिससे व्यक्ति सबका प्रिय हो। जैसे-जैसे वह बड़ा हो रहा था, वैसे-वैसे उसे महसूस हो रहा था कि मैं अपने निकट आता जा रहा हूँ। बन्धन और बाधायें उसे कभी रुचते नहीं थे। संघर्षों से ही संघर्ष करना उसकी आदत थी। वह कभी घोड़े को लेकर अरण्य की सैर करता तो कभी समुद्र की लहरों को पकड़ने का उपालम्भ। एकाकी रहना उसे बचपन से ही प्रिय था, फिर भी मित्रों की जरुरत समझकर उनकी क्रीड़ा में शामिल होकर सबका चित्तरंजित करता। वीरान वनों में उसे जो सुख प्रतिभासित होता वह महलों की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में भी नहीं पाता तभी तो वह जब भी माँ को किसी कार्य में व्यस्त देखता, तो श्वेत अश्व की सवारी ही सूझती और घोड़े को दौड़ा-दौड़ा कर वह गगन में ही उड़ जाना चाहता था या फिर इस दुनिया से दूर-बहुत दूर, जहाँ मैं मात्र अपने को अपना ही पाऊँ। पर, परिवार की मोह श्रृंखलायें उसे मजबूर करती। अब वह बड़ा हो गया, माँ की गोद में से उछल जाता है, अब माँ का प्यार उसे बाँध नहीं पाता। माँ सोच रही हैं, अब इसे बन्धन में रखना इससे दूर जाना है। जितना स्नेह अभी मुझे इससे है, उस स्नेह की यह उम्र ही अन्तिम अवस्था है अब इसे प्रेम चाहिए प्रकृति का, तभी तो यह बार-बार वीरान अटवी की ओर दौड़ता है। भोला है, समझता नहीं उसे क्या जरूरत है, वह जरूरत तो मैं ही समझ सकती हूँ। उन जंगलों में उसे क्या मिलेगा गहरा दर्द ही ना। वह दर्द और बढ़े इससे पहले उसका निदान अतिआवश्यक है। आज यही माँ का समसामयिक कर्त्तव्य है, सही स्नेह है। पर आज यह रवि अपनी रश्मिओं को समेटने लगा, धीरे-धीरे गगन की नीलिमा लालियाँ बनने वाली है और सुविधि आया नहीं. लगता है कहीं दूर चला गया, जिन्दगी से भागना चाहता है, यही तो उसका बालपन है। थोड़ी ही देर में दूर से देखा तो दिख रहा है कि आकाश लगातार एक ही मार्ग में धूल धूसरित हो रहा है, कोई नहीं दिख रहा है। विश्वास है, वह पक्षी वापस नीड़ में आ रहा है, धीरे-धीरे टॉप-टॉप की आवाज भी सुनाई देने लगी। शनैः शनैः श्वेत अश्व भी दिखा और वह स्वर्ण से तप्त दैदीप्यमान देह इस संध्या की लालिमा में अहो अग्निपिण्ड सी दिख रही है। इस अत्यन्त वेग में उसके सिर का बाल मुकुट कहाँ गया? मात्र कुन्तल केशों का उठान ऐसा लगता है मानो समुद्र में मगरमच्छों का समूह ऊपर उठकर फिर उसी में डूब जाता है। निडरता के पथ पर दौड़ता हुआ मानो मृत्यु का भय और आशाओं की धूलि को पीछे छोड़ता हुआ निराबाध बढ़ रहा है। माँ यह सब सोचती रही कि पीछे से आकर माँ-माँ चिल्लाता हुआ वह उस झरोखे पे माँ को खड़ी देख बोला अरे! माँ क्या देख रही हो? देख रही हूँ पुत्र कि तू अब दिख नहीं रहा। क्या? क्या? मैं तेरे सामने तो खड़ा हूँ, वहाँ नहीं, इधर देखो इधर; और मुख को घुमाते हुए ये देख तेरा लाड़ला। अच्छा तो लाड़ले को अभी भी अपनी माँ की याद है। माँ आज तुम्हें क्या हो गया? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो? नहीं सुविधि, मैं नहीं, तुम बहके हो। तुम्हारे वक्षःस्थल पर कवच नहीं धूलि की पर्ते बिछ रही हैं। तुम्हारी कुन्तल अलकायें यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं, न राजकुमार के योग्य वेष है, न भूषा तुम जिस पथ पर रोजाना प्रकाश ढूँढ़ने निकलते हो उस पथ पर निरा-अन्धकार छाया है बेटा; बहकी मैं नहीं, तुम हो। बिल्कुल ठीक माँ, मैं हार गया तुम जीत गयी, अब जल्दी कुछ खिलाओ बहुत तेज भूख लगी है और देखो रात्रि होने वाली है माँ । हाँ-हाँ मैं जान रही हूँ कि तुझे जीतना मेरे तो क्या किसी के वश का नहीं। फिर मुझसे हारकर ही तो तुम जीतना चाहते हो क्योंकि माँ हूँ ना। माता, पिता और गुरुजनों से हार जाना ही जीत है; बेटा! मैं तेरी इस नीति को समझती हूँ। प्रसङ्ग को बदलना तो कोई तुझसे सीखे और हँसकर सुविधि के ललाट को अपनी वात्सल्य गोद में छुपा लिया। सुविधि की माँ का भाई है अभयघोष । महाप्रतापी अप्रतिम पुण्यवान् सम्राट। आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ। पुरोहितों से इस पुण्यप्रताप को समझ अभयघोष ने चक्ररत्न की पूजा की। कुछ ही दिनों में दिग्विजय के लिए प्रस्थान करना है, इससे पहले परिवार जनों से आशीर्वाद लेना भी सफलता की पहली सीढ़ी है इसलिए अभयघोष अपनी बहिन सुन्दरनन्दा से मिलने आया है। कौन किससे मिलता है यह तो भाग्य ही जाने। पर अभयघोष के आने का समाचार जान नन्दा अत्यन्त हर्षित हुई। माँ ने सुविधि को बताया कि तेरे मामा आ रहे हैं उनसे अच्छी बातें सीखना। सैन्य संचालन और राजा के कर्तव्यों को समझते हुए उनसे स्नेहिल व्यवहार करना है। माँ मैं अभी राजा नहीं युवराज हूँ। भविष्य की गोद में जिस फूल में गन्ध आयेगी, उसे अभी से छेड़छाड़ करना फूल को ही मिटा देना है माँ! निर्बलता का अतिरेक ही भविष्य की चिन्ता को प्रेरित करता है। वर्तमान को वर्तमान ही महसूस करना सफलता का वर्धमान पाथेय है। माँ! मेरे उज्ज्वल वर्तमान से तुम्हें भविष्य की चिन्ता करना मेरे पौरुष पर अविश्वास करना है। इस अपराजित ललाट पे क्या कभी पराजय की, भय की, उन्मनस्कता की लहरें आपने पायी ? यदि नहीं, तो ऐसी शिक्षा क्यों? नहीं माँ आज आपको लग रहा है कि मेरा भाई चक्रवर्ती हो गया इसलिए मैं इन आँखों में छोटा लगने लगा हूँ। पर माँ, चक्रवर्ती होकर भी वह मुझे जीत नहीं सकते। न चक्र से, न शस्त्र से और न अस्त्र से, मामा और भांजे का सम्बन्ध आत्मीय सम्बन्ध होता है। उनका चक्र इन चरणों में सदा स्तम्भित रहेगा। आप हमें यह बतायें कि वह चक्रवर्ती बनकर यहाँ आ रहे हैं या आपका भाई बनकर। उफ! उफ! सुविधि! तुम अपनी मेधा से छोटी से छोटी बात को भी कितना बड़ा बना देते हो, कितनी सम्भावनाओं में तुम चले जाते हो । मैं जानती हूँ कि तुम्हारी रक्तवाहिनियों में संचारित लहू बहुत गर्म है। पर, मेरे कहने का अभिप्राय ऐसा बिल्कुल नहीं था सुविधि! वह अपने भांजे को देखने आ रहे हैं, कि वह कितना बड़ा हो गया और कितना गम्भीर, कितना अपना है और कितना पराया। कितना शान्त है और कितना सुन्दर। कितना विनयान्वित और कितना नयान्वित ? बस करो माँ, बस करो अपने बेटे को इतना बढ़ा-चढ़ा कर न बताओ कि तुम उसका मस्तक भी न चूम सको और सुविधि मुस्कुराते हुए बाहर चला गया। आज माँ को एहसास हुआ कि सुविधि कितना गम्भीर और पराक्रमी है। माँ ने अपनी कोख को मन ही मन आशीष दिया कि तुम ऐसे ही बढ़ते जाओ, अपने स्वाभिमान को बढ़ाते जाओ और सदा इन अहंकृति के बन्धनों से मुक्त रहो। चक्रवर्ती अभयघोष का आगमन हुआ। अपनी बहिन और भांजे को देख उसका चित्त अति निर्मल और प्रसन्न हुआ। सुविधि की अवस्था और पूर्ण यौवनता सभी के आकर्षण का एक प्रभावी केन्द्र बन गया था। चक्रवर्ती ने कहा बहिन, अब सुविधि को यथावय प्रेम की आवश्यकता है शायद इसीलिए उसका मन घर में नहीं लगता है और सदा एकान्त काननों में भ्रमण करता है। माता-पिता जब पुत्र के लिए उम्रानुसार सुख देने में सक्षम नहीं होते तो वे पुत्र के कोप का भाजन बन जाते हैं। साधु-श्रमणों का एकान्तवास ही लाभप्रद होता है गृहस्थों का नहीं। एक अविवाहित पुरुष का निर्द्वन्द्व विचरण समाज के लिए सोचनीय विषय होता है। जब तक बाल्यावस्था रहती है, माता-पिता, साथी जनों के प्रेम से जीवन बढ़ता है। कौमार्यावस्था में पठन-पाठन आदि विद्याएँ सीखने में काल सहायक हो जाता है, किन्तु इस युवावस्था में एक सहचरी की नितान्त आवश्यकता होती है। एकाकी जीवन उसे युवा बछड़े की तरह उन्मत्त कर देता है इसलिए बहिन समय की आवश्यकता को समझो। यथावसर जो कार्य एक छोटे से तृण से किया जा सकता है समय गुजरने पर फिर वह कार्य बड़े-बड़े शस्त्रों से भी साधित नहीं होता। उसका द्वित्व से अनुभूत होना ही उसके मन के द्वन्द को दूर करने का एक मात्र कारण है। मन का यह विकल्प मिथ्या नहीं है किन्तु सामयिक है। भैया! आपका कहना पूरी तरह उचित है, मैं भी यही सोच रही थी पर उससे कहने में डर लगता था। आप ठीक अवसर पर पधारे और उचित सुझाव दिया पर इसकी वार्ता पहले आप जीजाजी से करो और फिर सुविधि से। चक्रवर्ती ने बहिन को आश्वासन दिया और राजा सुदृष्टि का ध्यान आकर्षित कर उनके मन को जान लिया। तदुपरान्त बहिन को लेकर चक्रवर्ती सुविधि के पास गए। माँ ने सुविधि से कहा बेटे! आज तुम्हारे मामा तुमसे कुछ कहने आये हैं। सुविधि ने प्रसङ्ग को जान लिया पर दूसरों को नाराज करना जब उसकी नियति में नहीं था तब अपनो को वह कैसे कर सकता था ? किन्तु अपनी बुद्धिमत्ता से बड़े-बड़े संघर्षों में खेलने वाला वीर इस छोटी-सी अपने जीवन की समस्या में कैसे उलझ सकता था? तभी सुविधि ने उत्तर दिया माँ, क्यों हमेशा व्यक्ति की स्वतन्त्रता को बाँधने का निर्मम प्रयास सदा से किया जाता रहा है। हम दूसरों के जीवन को भी वैसा ही बनाना चाहते हैं, जैसे हम स्वयं जीते हैं, चाहे वह उस जीवन की स्वीकृति से खुश रहे या न रहे। अरे पुत्र! मामाजी ने अभी कुछ कहा नहीं और तुम क्या कहने लगे? बेटे पहले मामा की बात तो सुनो। यह सुनना और सुनाना, समझना और समझाना यह हमारे मन के विकल्प हैं, माँ इनसे कुछ भी कार्य की सिद्धि नहीं होती। इस रहस्य को तुम जानती हो फिर भी कुछ कहना चाहो तो सुनाओ मैं तैयार हूँ। सुविधि! मैं आपका मामा हूँ ना, मैं अपने भांजे को किन्हीं कल्पनाओं में उडता देखू और अशान्त देखू, यह मुझे कैसे सहन हो सकता है? मैं चक्रवर्ती हूँ, दुनिया की कोई ऐसी वस्तु नहीं जो आपके लिए मैं न ला सकूँ। तुम्हें इस संसार में कोई भी वस्तु अच्छी लगे वह मुझे बताओ मैं हमेशा के लिए उसे आपके साथ बाँध दूंगा। सुविधि ने मुस्कुराते हुए कहा मामा क्यों आप अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे हैं, आपको दिग्विजय पर जाना है ना। अपने आवश्यकों को छोड़कर दूसरे के आवश्यकों को पूरा करना कहाँ तक उचित है ? और फिर आपने उसी बंधन की बात की ना जिस बंधन से मैं सदियों से बंधा आया हूँ। नहीं! सुविधि यह बंधन नहीं, जीने का एक निर्बन्ध रास्ता है, जैसे आगम की मर्यादा में बंधा श्रमण भी अपने को बंधन में नहीं किन्तु निर्बन्ध ही महसूस करता है उसी प्रकार स्त्री के बंधन में पुरुष को मुक्ति की पराकाष्ठा प्राप्त होती है। यह जीने का निराकुल साधन है। नहीं मामा! आपका यह श्रमणों का उदाहरण उदाहरणाभास है। श्रमण के लिए वह बंधन नहीं है, ज्ञान और मर्यादा के दो तट हैं, जिसके बीच में आत्मा का ज्ञानामृत निराबाध बहता है, वह बंधन नहीं है, बंधन तो दो में होता है, किन्तु आत्मा में एकत्व का मिलन एक में ही होता है। जहाँ बंधन होता है वह जीवन परतंत्र हो जाता है। स्त्री बंधन में स्वतंत्रता की नहीं परतंत्रता की श्वास होती है। सुविधि! जहाँ जीवन का आनन्द मिले वहाँ परतंत्रता की बात कहाँ? यह तो कहने को है। उस इन्द्रिय और मानसिक सुख में डूबकर ही तृप्ति का अनुभवन होता है, बंधन उन्मुक्त हो जाते हैं। जीवन में इस सुख से वंचित रहना आत्मवंचना होगी। मामाजी! यह अपनी-अपनी समझ है, जिसे आप सुख कहते हैं, उसे मैं सुख की अतृप्त वासना समझता हूँ, जिसे आप इन्द्रिय और मानसिक सुख मानते हैं, उसे मैं एक विपरीत अध्यवसाय मानता हूँ और जिसे आपने आत्मवंचना कहा वह एक महती प्रपञ्चना है। सृष्टि के विशालकाय भण्डार में द्रव्य अपनी सत्ता में ही हिलोरें ले रहा है, बन्धन बद्ध होते हुए भी आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर प्रत्येक द्रव्य की सत्ता होते हुए भी कोई किसी से बाधित नहीं और न दूसरों को बाध्य कर रहा है। लगता है सुविधि! अभी तुम्हें समझाने का समय नहीं है क्योंकि तुम समय की उछलती कणिकाओं को पकड़ने का एक विफल प्रयास कर रहे हो। नहीं मामा जी! समय कहीं नहीं गया वह यहीं है, सदा-सदा से अपने पास। उसका विनाश त्रिकाल में कहीं भी सम्भव नहीं। पाँच द्रव्यों का वह अस्तिकाय ही समय है। आत्मा का प्रतिक्षण वर्तन ही समय है। पर से अस्पृष्ट और असंबद्ध अनुभूति ही समय है, उसको पकड़ना नहीं। पकड़ा तो उसे जाता है जो कहीं दूर जाने को हो । जिससे पुनर्मिलन की कोई गुंजाइश न हो, जिसकी पुनः प्राप्ति में भय हो या निराशा । मैं समय की उछलन में उछलना नहीं चाहता शायद इसीलिए उछलते हुए कण को पकड़ने का यह प्रयास आपको बेईमानी सा लगता है और मामाजी मैं सदा यह भावना रखता हूँ कि वह समय आये जब आपकी अतृप्त इच्छाएँ पूर्ण हों, बिना समझाये हुए मुझे सब स्वयं ही समझ में आ जाये, आपको पुनः इसके लिए कोई प्रयास न करना पड़े। पर तब तक के लिए हमें धैर्य रखना होगा, उस स्वतंत्र परिणमन को अस्खलित दृष्टि से लखना होगा और तब मैं और आप दोनों ही निराकुल होंगे दोनों ही निष्काम होंगे और दोनों को प्राप्त होगी चरमभोग की असीम सीमा, जिससे परे न कोई सुख और सुख की सामग्री। कोई बात नहीं सुविधि! यदि आप अपने विचारों और कार्यों से सन्तुष्ट हैं तो मैं आपको जबरदस्ती मजबूर नहीं करूँगा।आपकी खुशी में ही मेरी खुशी है और आपकी तुष्टि में मेरी तुष्टता। बहिन को धैर्य बँधाते हुए और आश्वासन की किरणों को देकर वह चक्रवर्ती दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर गए। पर इधर माता-पिता को गहरी बैचेनी और पीड़ा की कठिन आँधियां अन्दर ही अन्दर घुमड़-घुमड़ कर आहत करने लगी। दुःख की अप्रकट कुंठाएँ मन ही मन चिल्लाने लगीं। इस कुल का एक नक्षत्र आज उदय होने से पहले ही अस्त होने लगा। जिस पुष्प को मैंने अपने ही वीर्य और रक्त से सींचा आज वह महकना नहीं चाहता, खिलने और खुलने से इंकार करता है। जीवन की सारी शक्ति सारी आशाएँ निष्प्राण और निराशा में बदलने लगी। ऐसा लगता है, मानो जागृति की अजस्रधारा को किसी ने बाँध दिया और जीवन को जड़ और मूर्च्छित-सा बना दिया है। आज इस संचेतना को क्या हो गया? जिसकी प्रत्येक इच्छा को माँगने और कहने से पहले ही मैंने पूर्ण किया। निराशा की, भय की चिंगारी भी जिसके जीवन में नहीं आयी। सदा उसको उसी के निर्णय के लिए स्वतंत्र रखा, पर आज उसका निर्णय क्या हो गया है? अपने सुख में उसे माता-पिता के सुखों की कोई चिन्ता नहीं है। इसे स्वार्थ कहूँ या सम्यक् पुरुषार्थ मैं सोच नहीं पा रहा हूँ। द्वन्द्वों के इस विचरण में मन कब तक एकाकी विचरेगा। इस परिस्थिति की अन्तिम परिणति क्या होगी? इत्यादि मानसिक दुःखों से माता-पिता परेशान रहने लगे। तभी समय ने करवट ली। चक्रवर्ती षटखण्डों को जीतकर आ गए हैं। जीत की कार्यप्रणाली निर्बाध चल रही है और अभयघोष के आने के कुछ दिन बाद ही सुविधि के पिता सुदृष्टि का काल ने वरण किया। यह आकस्मिक घटना पूरे राज्य में खलबली मचा गयी। रोने चिल्लाने की आवाज से सारा राजमहल आपूरित है सबके ओठों पे एक ही बात, एक ही चर्चा, यह क्या हो गया? कुछ भी कहो प्रभु ने यह अच्छा नहीं किया। अब इस कुल का दीप कैसे प्रकाशित होगा। बेटा विवाह नहीं करना चाहता, ना ही राज्यभार चाहता है, राजा की इकलौती संतान, किसी की भी समझ से परे है। माँ तो पहले ही परेशान थी, उस पर यह और बिजली आ गिरी। हे प्रभो! इन सबको तू ही आकर सान्त्वना दे। पुरवासियों की अनेक-अनेक धारणायें अलग-अलग ओठों से सामने आने लगी। कुछ दिनों बाद अभयघोष पुनः बहिन को देखने आये। बहिन का हाल देखकर वह बहुत दुःखी हुए, उन्होंने सुविधि के बारे में फिर वही चर्चा की तो बहिन ने कहा, वह किसी की नहीं सुनता। उसने पहले जो बातें की थी वही अब करेगा, उसे किसी की कोई चिन्ता नहीं, उसका निर्णय अटल होता है। फिर भी बहिन! अब इन हालातों में पुनः बात कर लें भगवान् की दया; शायद वह मान जाये आखिर वह भी एक इंसान है, उसे इतना कठोर मत समझो। मैं जानता हूँ कि वह बहुत स्वाभिमानी है शायद इसीलिए अब तक उसने अपनी तरफ से कुछ कहने में हिचकिचाहट की हो। भ्रात! आप यदि ऐसा समझते हो तो ठीक हैं। माँ रोती हुई भाई के साथ सुविधि के पास पहुँची, सुविधि ने देखते ही माँ की चरण वन्दना की और पूछा माँ आज आप यहाँ, मेरे पास, रोती हुई! माँ! मैं आपका दर्द समझता हूँ, पर माँ! कर्म के आगे हम सब विकलाङ्ग से रह जाते हैं। भाग्य की रेखा कब जीवन के कंचन गिलास को तोड़ दे, कहा नहीं जा सकता माँ। बेटा! आज पहली बार तेरे मुँह से इतने लचीले वचन सुन रहीं हूँ। आज पहली बार तुझसे कर्म और भाग्य की बात सुन रही हूँ, तेरा भाग्य तो तेरे हाथों में था; आज यह कर्म की बात मुख पे कैसे आ गई? नहीं माँ नहीं! अपने बेटे को इतना कठोर मत समझो। तेरा पुत्र अनेकान्त को पहचानता है। भाग्य और पुरुषार्थ का विभाजन उसकी बुद्धि में समयोचित विभाजित है। अनेकान्त के अमृत प्याले में सबको जीवन-दान मिलता है। वहाँ भय, तृष्णा, अनहोनी, निराशा जैसी कोई चीज नहीं है, माँ । यदि यह बात है बेटा! तो फिर मैं दुःखी क्यों, मैं निराश क्यों? दुनिया में दीपावली है और राजमहल में अँधेरा। अब यह घर श्मसान-सा लगता है। यदि आज मैं फिर निराश लौटी तो बेटा! तुझे सदा के लिए अपराधी होना होगा। मेरी नजरों में ना सही तो अपने मामा की नजरों में और इन पुरवासियों की नजरों में। तभी मामा ने सुविधि से कहा, आज समय आ गया है कि आप अपनी जिम्मेदारियों को समझें और माँ को दुःख से उबारें। सुविधि ने स्मित मुख से कहा मामाजी! मैंने आपसे कहा था ना जब समय आयेगा तब बिना प्रयास सब कुछ होगा। हम मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बने रहें। आपका धैर्य अब फलीभूत होगा। मैं कभी भी निष्फल और निष्प्रयोजनीय पुरुषार्थ नहीं करना चाहता, आज मेरे पुरुषार्थ में प्रयोजनता है, लक्ष्य है और समय की आवश्यकता है इसलिए आप विश्वस्त रहें कि मैं मोक्ष पुरुषार्थ करने से पहले अब पूर्व के तीन पुरुषार्थ भी करूँगा और जीवन में समग्रता लाकर ही शिवाङ्गना को वरण करूँगा। माँ के चेहरे पर अद्भुत प्रसन्नता की लहरें उठी और तभी अभयघोष ने कहा सुविधि का प्रथम अधिकार मेरी बेटी मनोरमा पर है। मंगल परिणय सम्पन्न हुआ। चिरकाल तक मनोरम क्रीड़ा में आप्लावित होकर भी वह नित नवनूतन अनुभूति को ही पाता। काम पुरुषार्थ तभी पुरुषार्थ कहलाता है जब उसका प्रयोजन हो । प्रयोजन बिना किया गया पुरुषार्थ, पुरुषार्थ नहीं नपुंसकता है, वासना मात्र है। एक कुलदीपक की प्राप्ति हो जो स्वयं धर्मपथ पर अग्रसर हो और दूसरों को भी करे। इस भावना से किया गया पुरुषार्थ पाप नहीं धर्म है और इसी प्रयोजन से अर्जित किया अर्थ भी धर्मार्थ है, पापार्थ या कामार्थ नहीं । इसलिए गृहस्थों को ये तीन पुरुषार्थ धर्ममय बना देते हैं। गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म इन दोनों धर्मों का उपदेश सदा से चला आ रहा है। कुछ ही दिनों बाद सुविधि को सम्यक् पुरुषार्थ की फलश्रुति हुई और वह श्रीमती का जीव सम्यग्दृष्टि होकर जो स्वयंप्रभ देव बना था, आज वह स्वर्ग से च्युत होकर मनोरमा के गर्भ में आ गया। यह है संसृति का खेल । पूर्वभव में जो पत्नि थी आज वह पुत्र बन गयी। पर्याय का परिणमन बदल गया और अन्तस् का मोह भी स्नेह में बदल गया। पुत्र प्राप्ति होने के बाद उसका नाम रखा गया केशव। सुविधि को इस बहिर्जगत् में यदि अत्यधिक स्नेह किसी से था तो वह था केशव। पूर्व जन्मों के संस्कारों का ही यह फल था, पर कम हो गया था तभी तो वह मोह न रहकर स्नेह में बदल गया। एक दिन राजा सुविधि, अभयघोष चक्रवर्ती के साथ विमलवाहन जिनेन्द्र की वन्दना करने गए। भक्ति वन्दना कर सभी ने धर्मोपदेश सुना और विरक्त होकर चक्रवर्ती अठारह हजार राजा और पाँच हजार पुत्रों के साथ दीक्षित हुए। वे सब मुनि एक साथ बैठे हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो एकत्रित हुए मुनि, गुणगण मुकुट ही हो। राजा सुविधि ने सभी मुनिगण के चरण कमलों की वन्दना की, भक्ति की और तभी अपने मनोभावों को पढ़ा। राजा सुविधि आत्मज्ञानी थे। आत्मज्ञान का अर्थ मात्र इतना ही नहीं कि आत्मा के गुणों का ज्ञान हो या आत्मा के अस्तित्व का। प्रत्युत आत्मज्ञान का अर्थ है आत्मभावों का सम्यक् निरीक्षण । वह आत्म भाव मोह की परिणतियों को भी ठीक-ठीक जानता है। शरीर बल का सम्यक् परिज्ञान भी आत्मज्ञान है। किसी भी परिस्थितियों में उतावली नहीं करना आत्मज्ञान है। अपनी शक्ति और वीर्य का सही प्रयोग सही दिशा में करना आत्मज्ञान है। अनेक-अनेक लोगों के मुनिपदस्थ होने पर भी आज वह सम्यग्ज्ञानी सोच रहा है कि इनका वर्तमान मेरा भी वर्तमान होगा। अनन्त भ्रमणों के परिचक्र में यह परिदृश्य कई बार देखा और दिखाया पर, अन्तरङ्ग के उस मोह शत्रु को शोषित नहीं किन्तु पोषित ही किया। अनेक बार इस पवित्र भेष को धारण करके भी पूर्णतः सफल नहीं हुआ। आज भी केशव के प्रति स्नेह का किंचित् विकल्प बाकी है। तोदूँगा इस बन्धन को भी, मूल से उखादूँगा। अब इस जीवन का प्रतिक्षण किया गया पुरुषार्थ समीचीन होगा। दूसरों को लुभावने और लोभित होने से यह आत्मा अब अभिभूत नहीं होगा। सम्यग्ज्ञान के साथ बीतने वाला प्रतिक्षण मुक्ति की अवभासना है बन्धन की नहीं। आज मैं आत्मा में भरे हुए विनिगूहित वीर्य को प्रकट करूँगा। गृह सम्बन्धी किंचित् विकल्प भी मुनिपद में मुनित्व की अवमानना है। यह मुनित्व मात्र की अवमानना नहीं प्रत्युत पूर्व में हुए अनन्तानन्त जीवन्त आत्माओं की अवमानना है और पूज्य पुरुषों की अवमानना सबसे बड़ा पाप है, दुष्कृत्य है। ऐसी परिस्थिति में आज यह आत्म ज्ञाता मुनि नहीं बन सकता तो कोई बात नहीं पर इतना असमर्थ भी नहीं कि, कुछ भी नहीं कर सकता। यूँ तो सदाचार से जीवन अब तक बिताते आये हैं। पर आज मैं संकल्पित होता हूँ अपनी शक्ति को उद्घाटित करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होता हूँ और उत्कृष्ट मुनिधर्म नहीं किन्तु उत्कृष्ट गृहस्थधर्म को उतने ही आदर, विनय और भक्ति से ग्रहण करता हूँ जितने आदर से इन आत्माओं ने मुनि पद स्वीकारा है। इन अणुव्रतों का परिपालन यम रूप में होगा, नियम रूप में नहीं। हे विमलवाहन जिनेन्द्र! आज मैं आपकी साक्षी में संकल्प लेते हुए सभी मिथ्या वासनाओं को छोड़कर पञ्चमहागुरु की अनन्य शरण को प्राप्त होता हूँ। संसार, शरीर और भोगों की निर्विण्णता पूर्वक दूसरी व्रत प्रतिमा को निरतिचार धारण करता हूँ और तीनों सन्ध्याओं में तीनों योगों की शुद्धिपूर्वक वन्दना करता हुआ, स्वरूप में सम अर्थात् सम्यक् रूप से एकमेक होकर अय अर्थात् गमन होगा। पर्व के चार दिनों में प्रत्येक मास में आरम्भ रहित हो चार भुक्ति के त्यागपूर्वक प्रोषधोपवास गुण का आजीवन यम लेता हूँ। अब कभी भी जिह्वा, रस लोलुपता में सचित्त फल शाक का सेवन नहीं करेगी। अब स्त्री को देखकर नवकोटि से दिवा में मैथुन का भाव उत्पन्न नहीं होगा। ज्ञाता-द्रष्टा आत्मस्वरूप में लीन रहता हुआ ब्रह्मचर्य की दुर्धर प्रतिमा धारण करता हूँ और रात्रि को इस मन में दुःस्वप्न की दुख-धारा भी दूर रहेगी। मैथुन निजचेतना में होगा परद्रव्य में नहीं। खेती, व्यापार आदि आरम्भ का कृत-कारित-अनुमोदन से त्याग करता हूँ। बाह्य दश परिग्रहों को त्यागकर अब अन्तरङ्ग परिग्रह को मिटाने को संकल्पित होता हूँ। गृह सम्बन्धी कार्यों में अनुमति का मोचन और मुनिजनों के निकट रहकर उत्कृष्ट तपश्चरण करता हुआ सदा उद्दिष्ट भोजन से विरत होता हूँ। इस प्रकार अनुक्रम से ग्यारह प्रतिमा का संकल्प ले, अभ्यन्तर प्रयोजन को साधते हुए सुविधि महाराज अलौकिक आनन्द में रमण करने लगे। जैसे-जैसे साधना में रुचि बढ़ती गयी बाहरी सब रागद्वेष-जन्य संकल्पविकल्प दूर होते गए और आत्मर्द्धि स्फुरायमान होने लगी। प्रत्याख्यान कषाय के अत्यन्त दुर्बल हो जाने से संयमासंयम गुणस्थान की उत्कृष्ट लब्धि स्थानों को प्राप्त किया और विशुद्ध-विशुद्धतर भावों से पुत्र के किंचित् स्नेह को छोड़कर अन्त समय में राजर्षि सुविधि ने सर्वपरिग्रह रहित हो दिगम्बर दीक्षा को धारण किया। चार प्रकार की आराधनाओं में लीन रहते हुए नश्वर देह का परित्याग कर समाधिमरण सम्पन्न किया और प्राप्त की वह अन्तिम सीमा, जिससे आगे संयमासंयमी का गमन नहीं होता अर्थात् शुक्ललेश्या के भावों को धारण करने वाला अच्युत स्वर्ग का देव हुआ किन्तु साधारण देव नहीं; प्रमुख इन्द्र, अच्युतेन्द्र। निर्ग्रन्थपद जो धारण किया था। समता का भाव ही सहिष्णु बनाता हुआ मित्र-शत्रु, कंचन-काँच, सुख-दुःख में हर्ष-विषाद की रेखा से बचाता है। यह मनोबल का ही प्रभावी फल है। निरतिचार व्रतों का सम्यग्दर्शन की विशुद्धता से पालन करने वाला ही इन्द्र पदवी पर प्रतिष्ठित होता है। कामना नहीं की ऐन्द्रत्व की, किन्तु साधना का पुरस्कार है यह मान-सम्मान। आज आत्मजेता को इस पुरस्कार से सन्तोष नहीं है, क्योंकि यह उसका लक्ष्य नहीं है। पर उत्कृष्ट कर्मफल का उपभोग भी अनासक्त भाव से सम्यग्द्रष्टा के मार्ग में बाधा नहीं किन्तु सम्यक् गति प्रदान कर रहा है। आज उसे प्रसन्नता है कि संयम गुणस्थान की परीक्षा में वह सर्वश्रेष्ठता से उत्तीर्ण हुआ है।
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