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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -3


Vidyasagar.Guru

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हम सब यहाँ इस बात के लिये एक साथ बैठे हैं कि विचार करें कि जिस तरह का जीवन हमें प्राप्त हुआ है, इसकी जिम्मेदारी किसकी है? उसका उत्तरदायी कौन है ? जीवन को सुखपूर्वक या दुःखपूर्वक, ज्ञान के साथ या अज्ञान के साथ, अत्यन्त वैभव समृद्धि के साथ या कि दीन-हीन और दरिद्रता के साथ जीने की मजबूरी किसने हमको सौंपी है ? क्या कोई इन सबका विधाता और स्वामी है ? जो हमारे जीवन को इस तरह जीने के लिये मजबूर करता है। और हमने बहुत स्पष्ट रूप से विचार करके यह जान लिया है कि यह काम किसी और का नहीं है, यह काम मेरे अपने कर्मों का है। मैं यहाँ निरन्तर मन, वाणी और शरीर से जो भी करता हूँ और जिस तरह के परिणाम या भाव मेरे होते हैं, मेरे थोट्स (विचार) और फीलिंग्स (भावनाएँ) जैसी होती हैं वैसा मेरा जीवन निर्मित होता चला जाता है। 


मेरे अपने इस जीवन के निर्धारण के, या कि मेरे अपने संसार के कर्मों के निर्धारण में या कि मेरे अपने संसार के कर्मों को निर्धारित करने में, मेरे साथ तीन चीजों की भागीदारी है। एक तो मेरी अपनी आसक्ति, मेरा अपना मोह, वह इसका पहला पार्टनर है, मेरे अपने जीवन को इस तरह से जीने के लिये मजबूर करने वाला पहला भागीदार अगर कोई है तो मेरा अपना मोह, मेरी अपनी आसक्ति है। और दूसरी मेरे अपने वर्तमान पुरुषार्थ की दिशा, मैंने जैसा पुरुषार्थ करने का तय किया है, तो वैसा मेरे कर्मों को और मेरे जीवन को बनाने में दूसरा हिस्सेदार है और तीसरी है मेरे अपने कर्मों के करने की अज्ञानता, मेरी अपनी लापरवाही, मेरी अपनी गाफिलता। ये तीन चीजें हैं जो कि मेरे जीवन को निर्मित करती हैं। जिनसे कि मेरे जीवन में, और मैं इस संसार में जिनको मैं देखता हूँ उनके जीवन में जो विविधता है उन सबके लिये एक ही चीज है - उस व्यक्ति के द्वारा किये जाने वाला कम। कर्म किया भी जाता है। हम रोज कर्म करते हैं, मन से करते हैं, वाणी से करते हैं, शरीर से करते हैं और इतना ही नहीं, हम अपने किये गये कर्मों का फल भी भोगते हैं तुरन्त भी भोगते हैं; और उसके इफेक्ट्स भी होते हैं। वे भी हमें ही भोगने पड़ते हैं। और इतना ही नहीं, इन कर्मों के फल भोगते समय मैं जैसे परिणाम करता हूँ, जैसा मेरा पुरुषार्थ होता है, खोटे या भले मेरे भाव होते हैं उससे मेरे आगे के कर्म मैं स्वयं निर्धारित कर लेता हूँ। कर्म मुझे मनचाहा फल दें या कि कर्मों से मैं अपना मनचाहा फल पा लूँ, ये दोनों बातें पूरी तरह सच नहीं हैं। आधी सच हैं, कर्म मुझे मनचाहा फल दें, ऐसा भी नहीं है। तो फिर बात क्या है, ये जरा कर्म बंध की प्रक्रिया को समझें। जो अज्ञानता है वो जरा ठीक करनी पड़ेगी मुझे और अपने पुरुषार्थ को ठीक दिशा देनी पड़ेगी क्योंकि ये दोनों मेरे बस में हैं। मेरा मोह, मेरी आसक्ति उस पर मेरा उतना जोर नहीं चलता है लेकिन मैं डायरेक्ट नहीं, मैं इन-डायरेक्ट अपने उस मोह और आसक्ति पर कंट्रोल कर सकता हूँ। मेरे अपने पुरुषार्थ से और कर्म बंध की उस प्रक्रिया की अज्ञानता को दूर कर सकता हूँ। ये मेरे मन में विश्वास जाग्रत होना चाहिये, वरना तो फिर कर्म जैसा फल मुझे देना चाहेंगे, मुझे भोगने की मजबूरी है और या फिर दूसरा यह है कि मैं ऐसा पुरुषार्थ करूँ कि मैं अपने कर्मों से मनचाहा अपना फल ले लूँ दोनों ही चीजें नहीं हैं। कर्म तो सिर्फ इतना काम करता है कि मेरे चाहे गये कामों में बाधा डाल सकता है लेकिन अपना मनचाहा फल मुझे नहीं दे सकता। ये चीज समझने की है, ना हम कर्मवादी हैं ना हम भाग्यवादी हैं और ना हम पुरुषार्थवादी हैं। हम तीनों को व्यवस्थित रूप से समझ करके अपने जीवन को पुरुषार्थ के द्वारा अच्छा बनाने के लिये सक्षम हैं। 


Orange and Yellow Quote Motivation Instagram Story  (1).pngकर्म मुझे अपना मनचाहा फल दें, तब तो यह कर्मवाद हो गया। मैं अपना मनचाहा फल उससे ले लूँ यह तो पुरुषार्थवादीपना हो गया, यह तो अहंकार हो गया या कि मैं यह मानकर बैठ जाऊँ कि मेरी नियति, मेरा भाग्य ही ऐसा है, किसी ने लिख दिया है मेरे माथे पर, ऐसा भी नहीं है। मुझे इन तीनों बातों को ठीक समझना पड़ेगा। कर्म तो ठीक ऐसा है कि मेरे सामने थाली परोस करके रख दी है, लेकिन मुझे क्या खाना है, कितना खाना है, कैसे खाना है, कब खाना और कब नहीं खाना है, ये मेरे पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। कर्म मेरे सामने थाली की तरह परोसकर के रखी हुई चीज की तरह है और वह भी किसी और ने मेरे लिये नहीं बाँधा है। मैंने अपने कर्म करके अपने आगे के लिये उसे संचित किया है और कर्म तो ऐसा है जैसे कि मैं घर में चना लेकर के आया हूँ तो मजबूरी नहीं है कि मैं कच्चे ही खाऊँ। मैं उन चनों को भूनकर के खा सकता हूँ, उनका सत्तू बनाकर के खा सकता हूँ, ये मेरा पुरुषार्थ है, कर्म तो मेरे पास चने की तरह आया है। मैंने अपने आँगन में एक पेड़ लगाया है आम का, तो मेरी यह मजबूरी नहीं है कि मैं कच्चे आम खाऊँ या पकने पर खाऊँ। 


क्या हुआ कि एक व्यक्ति खेती करता था और हर साल कभी इल्ली लग जाती थी, कभी बाढ़ आ जाती थी, कभी पानी नहीं बरसा, कुछ ना कुछ हो जाता था और फसल ठीक-ठीक आ ही नहीं पाती थी। रोने का कारण समझ में आता था। दःख का कारण समझ में आता था कि ठीक तो है कि इस बार पानी जरा कम गिरा है तो ठीक फसल नहीं आई है, इस बार पानी जरा ज्यादा गिर गया है तो फसल सड़ गई है और इस बार तो जो है इल्ली लग गई है तो फसल सारी खराब हो गई है। भाई, दुःख का कारण है और सब लोग उसको सहानुभूति देते थे, उसके दुःख में। लेकिन एक साल ऐसा हुआ कि न इल्ली लगी, न पानी कम गिरा, न ज्यादा गिरा और फसल खूब अच्छी रही। कुछ भी सामान गड़बड़ नहीं हुआ, कुछ भी नहीं सड़ा। लेकिन उस व्यक्ति को देखा लोगों ने उतना ही दुःखी जितना कि पिछले वर्षों में दुःखी रहता था। अब तो दुःख का कोई कारण नहीं समझ में आ रहा है। पुण्य का अच्छा उदय है उसके और सारा खलिहान भरा पड़ा है। अनाज अच्छा-खासा है। अब उससे पूछा कि दुःखी क्यों हो, इतना बढ़िया अनाज आया है। कहता है कि दुःख इस बात का है कि कुछ भी खराब क्यों नहीं हुआ, क्योंकि खराब नहीं हुआ तो ढोरों को क्या खिलाये ? अपने खाने को तो ठीक है, जानवरों को खाने को नहीं है। कुछ सड़ जाता तो कम से कम जानवरों को खिलाने के काम आता। आप सब कुछ होते हुए भी दुःखी हैं। यह आपका कर्म नहीं, कर्म ने तो आपके लिये सारा-सारा इंतजाम कर दिया था, लेकिन आप उसमें से दुःख निकालना चाहें तो यह आपका पुरुषार्थ है और दुःख आने पर भी हम उस पर ज्यादा ध्यान ना दें, महत्व न दें, और अपन काम में लगे रहें, तो भी कर्म अपना मनचाहा फल हमें नहीं दे सकता। फल तो देगा किन्तु अपना मनचाहा फल नहीं दे सकता और जैसा बाँधा है, वैसा भोगने की मजबूरी नहीं है हमारी। यह बात हमें समझ में आनी चाहिये। 


हमने पानी की टंकी अपने घर के ऊपर बनवायी है। ठण्ड के दिन में नहाने का मन है और जैसे ही टोंटी खोलते हैं तो ठण्डा पानी आया है। बन्द कर दो, मजबूरी नहीं है कि ठण्डा पानी सिर पर गिरने दिया जाए। बन्द कर दो, और इतना ही नहीं थोड़ा वेट करो, धूप निकलेगी, पानी गर्म हो जायेगा या फिर Coil चालू करो, पानी गरम हो जायेगा। जब तक टंकी में है और नल की टोंटी से नहीं आया है, तब तक जो परिवर्तन करना हो वो हम कर सकते हैं। हमारे मन के अनुकूल हम उसको जिस तरह का चाहें उस तरह का और टोंटी में से आना भी शुरू हो जाये तब भी वो धार निकलने से पहले हम एक सिस्टम उसमें लगा सकते हैं पानी गरम करने का। एक क्षण पहले तक कर्म अपना फल दे, उसके पहले तक मेरा वश है - संक्रमण कहलाता है। उदय में आने के एक समय पहले मैं उसका इंतजाम कर सकता हूँ, उसके रस को बदल सकता हूँ, उसके स्वाद को चेंज करके उसका फल ले सकता हूँ। इतना मेरा वश है कर्म पर, यह बात मेरे समझ में आनी चाहिये। 


कर्म बंध की प्रक्रिया समझना इसलिये अनिवार्य है कि मेरी अज्ञानता की वजह से मेरी पुरुषार्थहीनता बढ़ती है और पुरुषार्थहीनता की वजह से मेरा मोह मेरे पर हावी हो जाता है और फिर मेरे हाथ में कुछ नहीं रहता। मैं परवश हो जाता हूँ। 


मोह मुझे परवश करे, जबकि मैं पुरुषार्थ हीन होऊँ और अपनी अज्ञानता को बढ़ाऊँ। नहीं मैं अपनी अज्ञानता को घटाऊँगा, पुरुषार्थ को बढ़ाऊँगा। देखें, वो मोह और आसक्ति मेरा क्या बिगाड़ कर सकती है। क्योंकि इसी संसार में रहकर के तीर्थंकरों ने भी प्राणी मात्र के कल्याण का उपाय बताया और स्वयं अपना कल्याण किया है। अपने पुरुषार्थ से किया है। अज्ञानता से कर्म बाँधे हैं तो मजबूरी नहीं है कि अज्ञानतावश उनको भोगे ही जावें। मैं ज्ञानपूर्वक भोग सकता हूँ। हाँ बस इतना ही है। मैंने अगर धोखे से किसी बुरे आदमी को इनवाइट कर लिया है तो कोई जरूरी नहीं है कि मैं उसको घर में पनाह दूं। इंतजाम कर लूँ, ऐसा कर दूँ जिससे दूसरी बार आये तक नहीं। इतना इंतजाम जैसे हम अपने संसार के कामों का कर लेते हैं। वैसा ही हम अपने कर्मों पर भी कर सकते हैं तो कर्मों पर मेरा वश है क्योंकि वो मैंने बाँधे हैं। 


“क्रियेशन इज नॉट मोर देन दी क्रियेटर", कोई भी कलाकृति किसी कलाकार से बड़ी नहीं हो सकती। कर्म मेरी कृति है, कर्म मेरा स्वामी नहीं है। वो मेरे बनाये हुए हैं, मेरे हाथ का मैल है वो कर्म। मैंने अपनी वाणी, मैंने अपने मन और मैंने शरीर की चेष्टाओं से उन्हें आमन्त्रण दिया है और मेरी अपनी फीलिंग्स, मेरे अपने थोट्स, जिनकी वजह से उनको मैंने शक्तिशाली बना दिया है। मैं अपने थोट्स व फीलिंग्स को चेंज करके, उनकी शक्ति को डेस्ट्रॉय कर सकता है। उनकी शक्ति को कमजोर बना सकता है। मैं अपन मन, वचन और शरीर को जरा व्यवस्थित करके उनके आने के द्वार को रोक सकता है। मैं इतना कर सकता हूँ। ये बातें हमारी समझ में आनी चाहिये। उनका फल नहीं लेऊँगा ऐसी व्यवस्था कर सकता है, मैं चाहँतो उनकी स्थिति, उनके ड्यूरेशन और उनकी पोटेन्सिएलिटी में कमीबेशी कर सकता हूँ। जब तक कि वे मेरे भीतर संचित हैं, मैंने ही अपने लिए संचित किए हैं इसलिए मेरा अधिकार है कि उनमें इस तरह की रद्दोबदल मैं कर सकता हूँ। ये बहुत-बहुत विश्वास की चीज है। ये अपने पुरुषार्थ को जाग्रत करने की चीज है। दूसरे नम्बर का जो भागीदार है ये ठीक है कि मैंने अज्ञानतावश अपने लिए आसक्ति पैदा करने वाले मोह को संचित कर लिया है। मैंने बाँध लिया है अपने साथ उस कर्म को और वह मेरे उदय में आकर के मझे आसक्त करता है, मझेगाफिल करता है। लेकिन इतना ही नहीं है, मेरा अगर पुरुषार्थ जाग्रत हो जाए और कर्म बँध के प्रति जो अज्ञानता है वो हट जाए, मैं कर्म बँध की प्रक्रिया को अगर ठीक समझ लूँ कि बँधने के बाद वो मुझे मनचाहा फल दें, ऐसी मजबूरी नहीं है और बँधने के बाद जैसे बँधे हैं वैसे ही मुझे भोगना पड़ेंगे, ऐसी मेरी मजबूरी नहीं है। मैं उनमें यथासम्भव परिवर्तन कर सकता हूँ। मैं कर्मों का विधाता हूँ, कर्म मेरे विधाता नहीं हैं। ये बात मुझे बहुत गौर से समझना पड़ेगी। असल में थोड़ा तो कर्मों का फल मिलता है, उसके साथ हमारी पुरुषार्थहीनता उसके फल को और अधिक बढ़ा देती है, डोमीनेट कर देती है, अल्प फल भी देने वाले को हम बहुत बड़ा कर देते हैं। “पुण्य उदय जिनके, तिनके भी नाहिं सदा सुख साता।" साता कर्म के उदय में भी अगर हमारी स्थिति पुरुषार्थ की कमजोर हो, तो हम उसमें भी दुःख कमा सकते हैं और जब दुःख देने वाला असाता का उदय आये तब भी हम समता भाव रख करके उसे शांति से गुजर  जाने के लिए मजबूर कर सकते हैं। ये मेरी कर्मों के ऊपर ग्रिप है। कर्म की पकड़ में, मैं नहीं हूँ। 


ऐसे कर्म जिनको कि बाँधते समय हमारे परिणामों की अज्ञानता और तीव्रता से हम बाद में जिनमें कोई रद्दोबदल नहीं कर सकते, जैसा फल वे देंगे वैसा भोगना पड़ेगा। ऐसे कर्मों को भी जिनेन्द्र भगवान के बिम्ब के दर्शन करने मात्र से हम नष्ट कर सकते हैं। ये उपाय हैं हमारे पास, इसका भी उपाय है। “जिन-बिम्ब दर्शने'- साक्षात जिनेन्द्र भगवान के समोवशरण में बैठे भगवान के दर्शनों से नहीं, उनकी अनुकृति से, उनकी इमेज से, उनके बिम्ब से, तो इस तरह हम देखें तो कर्मों को काटना हमारे हाथ में है। बाँधना हमारे हाथ में है तो उनको काटना भी हमारे हाथ में है। हम मजबर नहीं है। एक बहत बडा कलाकार था। जंजीरें बनाता था और उसकी जंजीर पर वह अपनी आखिरी में एक सील लगा देता था। इस जंजीर को कोई तोड़ नहीं सकता और वाकई में दूर-दूर तक इस बात की प्रसिद्धि थी कि उसकी बनाई जंजीर कोई नहीं तोड़ सकता और उसके भीतर भी यह भाव बैठ गया, बहुत गहरे बैठ गया कि मेरी बनाई हुई जंजीर कोई नहीं तोड़ सकता और एक दिन ऐसा हुआ कि किसी अपराध में उस कलाकार को कैद कर लिया गया और जंजीर पहना दी गई और जब उसे जंजीर पहनाई जा रही थी तो उसको कोई भय नहीं था। बहुत खुश था क्योंकि जितनी प्रसिद्धि उसकी इस बात की भी थी कि कोई भी जंजीर ऐसी नहीं है दुनिया की, जिसे वह तोड़ ना सके, बस उसकी बनाई हुई जंजीर को कोई नहीं तोड़ सकता। लेकिन दुनिया में किसी की बनाई हुई जंजीर को वो तो आसानी से तोड़ सकता है, ये प्रसिद्धि थी, इसलिये वो बहुत मुस्करा रहा था। जंजीरें बाँधते समय कि एक झटका देना है क्योंकि आज तक कोई जंजीर नहीं बन सकी जो कि मैं न तोड़ सकूँ, ये उसको विश्वास था, लेकिन मेरी ही बनाई हई जंजीर कोई नहीं तोड़ सकता। 


एक साधु उसे जंजीरों में जकड़े लेकिन प्रसन्न रास्ते से गुजरते देखकर के जरा मुश्किल में पड़े कि आदमी लगता है पहुँचा हुआ है, क्योंकि जंजीरों में जकड़े होने के बावजूद चेहरे पर मलिनता नहीं है। प्रसन्नता का कोई कारण नजर नहीं आता, कुछ ना कुछ बात है भीतर और जब वह कटघरे के भीतर खड़ा हो गया तो बाहर से साधु ने कहा कि तुम्हारे मुस्कराने का कारण क्या है ? तो उसने कहा कि सुनो, कोई भी जंजीर तो बस इनको हटने दो जरा, फिर मैं तोड़ दूंगा। इसीलिये मुस्करा रहा हूँ, लेकिन अगले क्षण, 5 मिनट ही हुए होंगे और सुबक-सुबक के उसके रोने की आवाज सुनाई पड़ी। बाबा ने फिर से मुड़कर देखा, क्या हआ, अभी तो उसने कुछ भी पुरुषार्थ शुरू नहीं किया कि जंजीर तोड़ना शुरू की हो और नहीं टूट रही हूँ इसलिये रो रहा हो। आखिर रोने का कारण क्या है ? उसने कहा कि अब तो मेरे जीवन का अन्त इसी कारागार में हो जायेगा। मुझे मरने को यहीं मजबूर होना पड़ेगा। अरे बताओ तो क्या कारण है ? इस जंजीर में तो मेरा मार्का लगा हुआ है और मेरे मार्के की जंजीर की तो यह प्रसिद्धि है कि उसे कोई नहीं तोड़ सकता। ये तो ठीक है पर मैं तो अपनी बनाई हुई जंजीर तोड़ सकता हूँ, मैं अपने बाँधे कर्मों को; मैं किसी और के, अपने परिचितों के, अपनी बहुत प्यारी माँ के भी बाँधे हुए कर्मों को नहीं काट सकता। ये ठीक है लेकिन मेरे बाँधे हुए कर्मों को तो मैं काट सकता हूँ, मेरी माँ भी मेरे बाँधे हुए कर्मों को नहीं काट सकती। पर मेरे बाँधे कर्मों को मैं काट सकता हूँ। ये बात, ये विश्वास हमारे पास में होना चाहिये। ये चीज हमारे हाथ में है तो भैया आज अपन ने एक बहुत बड़ी बात सीख ली है। कर्म हम बाँधते हैं, उसमें जितनों की भागीदारी है उसमें से दो पर मेरा वश है और वो दोनों अगर मैं जाग्रत कर लूँ, अपने पुरुषार्थ को जाग्रत कर लूँ, कर्म बंध की प्रक्रिया को ठीक-ठीक जान लूँ तो कैसे और कितने बाँधना है और उनको कब-कैसे नष्ट कर देना है, ये पुरुषार्थ मेरे भीतर जाग्रत हो सकता है। ये मेरे हाथ में है। मेरे जीवन का निर्माण मेरे हाथ में है। मेरे जीवन का निर्माता मैं स्वयं हूँ। उत्तरदायी मैं स्वयं हूँ। अपने जीवन को मैं जितना पवित्र करता हूँ, उसका उत्तरदायित्व भी मेरा है और जितना मैं ऊँचा उठाता हूँ उसकी जिम्मेदारी भी मेरी है। ठीक है, मेरा अतीत खराब हो सकता है, लेकिन ऐसा कोई जरूरी नहीं है कि जिसका अतीत खराब हो उसका भविष्य भी खराब होगा। किसी ने लिखी हैं दो लाइनें - 

 

“शानदार था भूत, भविष्य भी है महान, 
लेकिन कोई अगर सँभाले उसे जो है वर्तमान ।” 


अगर हम वर्तमान को सँभाल लें तो हमारा अतीत और हमारा भविष्य हमारे हाथ में है, उसके निर्माता हम स्वयं हैं और एक छोटी सी घटना सुनाऊँ और आज अपन इस प्रक्रिया पर आराम से घर जाकर के विचार करेंगे और बहुत सारे प्रश्न मन में उठेंगे जिनका समाधान अपन खोजेंगे कि क्या सचमुच ऐसा है ? इतनी बातें सुनने के बाद मन में एक कसमसाहट जरूरी होगी। क्या ऐसा कर सकता हूँ? मैं तो अभी तक यही सोचता था कि मैंने जो पहले बाँधा है वो भोगने की मजबूरी है और मैं तो पूरे जीवन यही देखता आ रहा हूँ। पूरा जीवन मेरा गुजर गया। मैंने जब-जब भी जहाँ हाथ डाला मुझे लाभ होना था तो लाभ हुआ। जहाँ हाथ डाला हानि होनी थी, तो वहाँ भी हानि हुई। मैं क्या कर सका ? मैं तो अत्यन्त मजबूर किसी के हाथ की कठपुतली की तरह, मैं अपना जीवन जी रहा हूँ। मैंने तो आज तक यही सोचा था आज यह कौनसी बात कह रहे हैं ? विचार करना, मेरी बात को सहसा मान मत लेना। ऐसे तो हम बहुत सारी बातों को मानते आये हैं, किस किसकी मानेंगे अब किसी की नहीं मानना, अपने भीतर झाँक करके देखना कि वास्तविकता क्या है उसको मानना। 


मैं आपको यह साहस दिला रहा हूँ कि जब किसी दूसरे की कही हुई बात को हम फिर से ऐनालाइस (विश्लेषण) करके देख सकें। अभी हम लोगों के पास यह साहस नहीं है। हम स्वयं अपने जीवन में झाँक के देखें कि जो मैंने निर्मित किया है उसकी जिम्मेदारी मेरी है कि या किसी और दूसरे की या कि मेरे कर्मों की। कर्मों पर भी अपनी जिम्मेदारी नहीं डालना। कर्म बाँधने की जिम्मेदारी मेरी है बस इतना ही है, लेकिन मेरे जीवन को बनाने में कर्मों का कितना हाथ है, कहीं उससे ज्यादा मेरे अपने पुरुषार्थ का, मेरी अपनी च्वॉइस का है। बहुत बड़ा हाथ है। वो उदाहरण बहुत छोटा सा है, एक ज्योतिषी जो भी प्रीडिक्शन करता था, वह बहुत सही निकलते थे, उसकी सारी भविष्यवाणियाँ सही निकलती थीं। दो युवकों को उससे ईर्ष्या हुई उन्होंने कहा परीक्षा करेंगे। परीक्षा करेंगे कि सही निकलती कि नहीं निकलती। उन्होंने अपने ओवरकोट के जेब में एक-एक चिड़िया पकड़कर के रख ली। चले गये उस ज्योतिषी के पास और कहा कि मैं आपसे यह नहीं पूछना चाह रहा हूँ कि मेरे ओवरकोट के जेब में हम ही बताये देते हैं कि एक चिड़िया है, लेकिन हम सिर्फ यह पूछना चाहते हैं कि आपके ज्योतिष में कितनी दम है, मुझे बताओ कि मरी है कि जिन्दा है तो मालूम उसने क्या जवाब दिया था। चिड़िया तुम्हारे हाथ में है और चिड़िया का मरना और जीना भी तुम्हारे हाथ में है। ये एक प्रतीक है इस बात का ? क्योंकि वो तो ये सोचकर गये थे कि जैसे ही ये कहेंगे कि मरी हुई है तो हम फौरन छोड़ देंगे कि जिन्दा है और ये कहेंगे कि जिन्दा है तो दबाने में कितनी देर लगनी है। तो उसने भी यही जवाब दे दिया कि चिड़िया का मरना और जिन्दा होना वो तुम्हारे अपने हाथ में है। ये इस बात का प्रतीक है कि बहुत सारी चीजें हैं जो हमारे हाथ में हैं। लेकिन ऐसा अहंकार मत करना। मेरा पुरुषार्थ मुझे अहंकार करने की प्रेरणा नहीं देता। मेरा पुरुषार्थ मुझे ठीक-ठीक बात को समझ करके और मुस्करा करके प्रसन्नतापूर्वक उन चीजों को जिनको मैं नहीं चाहता, उनको हटाऊँ और जिन चीजों को अपने जीवन में चाहता हूँ, उनको लाऊँ सिर्फ इतनी ही सलाह देता है। आने पर अहंकार करना और नहीं मिलने पर अधिक संक्लेश करना, उसमें तो है, बहुत सावधानी की आवश्यकता। हम समझें और इस प्रक्रिया को समझ करके और अपने जीवन को दिशा दें और अपने जीवन को अच्छा बनायें। इस प्रक्रिया का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि कोई अपनी विद्वता बढ़ाने का या कि कोई अपने को बहुत अधिक होशियार होने का नहीं है, बस अपने जीवन को अच्छा बनाने का उद्देश्य है। यह पूरी प्रक्रिया इसलिये हम समझ रहे हैं बैठकर के एक साथ। अकेले-अकेले तो सब समझते हैं जो जितना समझते हैं पर एक साथ बैठकर समझना एक बहुत बड़ी चीज है और हम एक-दूसरे से समझें। एक-दूसरे के जीवन में भी देखें। क्या वास्तव में ऐसा ही है और फिर हम उस प्रक्रिया में क्या परिवर्तन करके अपने जीवन को अच्छा बना सकते हैं, ऐसा विचार करें। 


इसी भावना के साथ इसी भावना के साथ बोलो आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
००० 

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