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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -12


Vidyasagar.Guru

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हम सभी लोगों ने पिछले दिनों इस बात पर विचार करना शुरू किया था कि हाँ इस संसार में जो भी विविधता दिखाई पड़ती है, किसी के पास धन बहुत है, किसी के पास धन का अभाव है। किसी को शरीर स्वस्थ मिला है किसी के शरीर की अस्वस्थता पीड़ा देती है। किसी को पद प्रतिष्ठा मिली है, किसी को ज्ञान मिला है और किसी को पद प्रतिष्ठा कुछ भी नहीं मिली और ज्ञान भी बहुत अल्प है। ये ऐसी विविधता किसने दी होगी यहाँ हमें। तब हमने बहुत विचार करने के बाद ये निर्णय अपने अनुभव से लिया था कि यहाँ हम जो भी करते हैं जैसा भी करते हैं, उसका भला-बुरा प्रतिफल हम स्वयं पाते हैं, किसी और की उस प्रतिफल के पाने में जरूरत नहीं है। आग गरम है, जलाती है जो उसमें हाथ डालेगा उसका हाथ जलेगा। फिर चाहे वो जयपुर में डाले या कि जयपुर से बाहर डाले। भारत में हाथ डाले, या कि विदेश में जले। जब भी कोई आग में हाथ डालेगा तो उसका हाथ जलेगा। छोटा वाला बेटा डाले, चाहे बड़ा वाला व्यक्ति डाले, ज्ञानी डाले चाहे अज्ञानी डाले, इससे फर्क नहीं पड़ता। वो जो जिसका स्वभाव है उसके अनुरूप ही अपना प्रतिफल देगा। कर्म जो हम करते हैं उसके साथ उसका स्वभाव भी निश्चित हो जाता है और वह फिर हमें वैसा ही प्रतिफल देता है। कुछ हम रोज करते हैं जिनका हमें तुरन्त ही फल मिलता है और उनके आफ्टर इफेक्ट्स भी होते हैं। कुछ कर्म हैं जो हमारे साथ अटेच होते चले जाते हैं। जिनका हमें बाद में फल मिलता है। किसी को अगर हमेशा दूसरे के बारे में बुरा सोचने का संस्कार डल जावे तो वो संस्कार इतना प्रबल हो जाता है कि तुरन्त तो फल देता ही है और बाद को भी वो अपने साथ जुड़ा रहता है और वो अपना फल देता रहता है। तो इस तरह हम कर्म करते भी हैं, कर्म का फल भी भोगते हैं और निरन्तर नये कर्म संस्कार की तरह अपने साथ जोड़ते भी चले जाते हैं और हमने ये भी समझा है कि कर्म करने में हमारी स्वतंत्रता है, और वो हमारे नजरिये पर डिपेन्ड करता है, हमारे एटीट्यूड पर डिपेन्ड करता है कि हमें भले कर्म करना है या कि बुरे कर्म करना है और अज्ञानतावश मैंने जो भी भले-बुरे कर्म बाँध लिये हैं, जब वो अपना फल दें तब उनके साथ 'हाऊ टू बिहेव'। ये भी मैं ही तय करूँगा कि मुझे कैसे बिहेव करना है उनके साथ, क्योंकि मेरे जब अशुभ का उदय आता है तब ये जरूरी नहीं है कि मैं अशुभ के उदय में संक्लेषित होऊँ। लेकिन मैं होना चाहूँ तब। 


द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुरूप ही कर्म अपना फल देता है। कई बार बहुत पीड़ा होने के बाद भी और हम उसको टोलरेट कर लेते हैं, हम उसे इगनोर कर देते हैं और अपने काम में लगे रहते हैं तब वो कर्म अपना फल थोड़ा-थोड़ा देकर के, या कि किसी दूसरे फोर्म में अपना फल देकर के चला जाता है। तो इस तरह हम जब कर्म उदय में आते हैं तब उनके साथ भी जैसा व्यवहार करना चाहें, वैसा व्यवहार कर सकते हैं। जब तक वे हमारे साथ संचित हैं हम उनको अगर वहीं का वहीं नष्ट करना चाहें तो नष्ट भी कर सकते हैं। हम उनमें जो चेन्जेज हैं वो भी कर सकते हैं। भले कर्मों की सामर्थ्य बढ़ा सकते हैं, बुरे कर्मों की सामर्थ्य भीतर-भीतर घटा सकते हैं। जब हम कोई बुरा कर्म कर लेते हैं उसके बाद जो प्रायश्चित्त करते हैं, पश्चाताप करते हैं, कन्फेस जिसको हम कहते हैं या कि अच्छे कर्म करना शुरू कर देते हैं तब वो जो बुरे कर्म मेरे साथ संचित हो जाते हैं उनका दबाव कब हो जाता है और मेरे साथ भले कर्मों का जो संचय है वो बढ़ना शुरू हो जाता है। ये सारी प्रक्रिया हमारे हाथ में है। हमारे वर्तमान के कर्मों पर ही हमारे अतीत के कर्म टिके हुए हैं। हमारे वर्तमान के कर्मों पर ही हमारा भविष्य टिका हुआ है। हमारा अतीत हो सकता है कि बहुत बुरा हो लेकिन हम हमारे वर्तमान को सँभाल करके और अपने भविष्य को उज्ज्वल कर सकते हैं। ये सामर्थ्य हमारे भीतर है। इन सब बातों पर अपन पिछले दिनों विचार कर रहे थे। बीच में थोड़ा सा गेप हो गया। फिर अपन इसको फिर कन्टीन्यू कर रहे हैं।

और ऐसे कौनसे कर्म हैं जिससे कि हमने आज वर्तमान में जो कुछ भी पाया है उस पर हम विचार कर लें। अगर हमारे ज्ञान कमती है, हमारे देखने की जानने की सामर्थ्य कमती है तो उसके लिये कुछ ना कुछ हमने पहले ऐसा किया होगा जिससे कि आज जानने-देखने की सामर्थ्य में ऑवस्ट्रक्सन आ गया है, बाधा आ गई है। हमारे ज्ञान को ढकने वाले, हमारी दृष्टि को ढकने वाले कर्म हैं, उस पर हमने विचार किया। हमारे जीवन में जो दुःख और सुख है वो भी हमारे संस्कारों की वजह से है। तो जरूरी है इस बात को समझना कि आज वर्तमान में दुःख मिला तो उसका कोई कारण मेरे भीतर होगा। आगे अगर मुझे दुःख नहीं पाना है तो फिर मुझे ऐसा इन्तजाम करना चाहिये। अगर मैं दुःख नहीं पाना चाहता तो फिर दूसरे को दुःख देना बंद कर देना चाहिये। अगर मैं किसी से गाली सुनना पसन्द नहीं करता तो फिर मुझे दूसरे को गाली देनी बन्द कर देना चाहिये। बहुत सीधा-सीधा सा हिसाब है। जो चीजें मैं अपने जीवन में नहीं चाहता हूँ, लेकिन वो चीजें मेरी अज्ञानता से मेरे साथ ट्रेप हो गई हैं, अटेच हो गई हैं। तो अब मैं आगे तो कम से कम इतना करूँ कि जिन चीजों को मैं पसंद नहीं करता हूँ उन चीजों को ना करूँ। ऐसे मैं दुःख से बच सकता हूँ, और सुख के उपाय अपने जीवन में आगे के लिये संचित कर सकता हूँ। असल में, दूसरे को दुःख देने की भावना अन्ततः हमें भी दुःखी करती है और सब जीवों को सुख पहुँचाने की, सबसे मैत्री रखने की, प्रोटेक्शन, सबकी सुरक्षा की भावना हमें सुख देती है। जितना हम संचित करते हैं उतना हमें दुःख मिलता है और जितना हम त्याग करते हैं, जितना हम निर्लोभ वृत्ति अपनाते हैं उतना हमें साता का बंध होता है। इन बातों पर विचार किया है। 


और इतना ही नहीं ऐसा क्या है कि जब हम चाहते हैं कि हम सच्चाई पर भरोसा करें लेकिन सच्चाई पर भरोसा नहीं होता। हमारे भीतर विश्वास ही नहीं होता। श्रद्धा ही नहीं जागृत होती सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के प्रति। तो हमने ऐसा क्या करा होगा पहले जिससे कि आज वर्तमान में श्रद्धा जागृत नहीं होती ? कुछ तो करा होगा। आज तो हम सब अच्छा कर रहे हैं लेकिन पुराना वाला भी तो हमारे साथ में संचित है। जिससे हमारी श्रद्धा होते होते गड़बड़ा जाती है। संदेह बहुत जल्दी हो जाता है और विश्वास करना बहुत मुश्किल होता है तो मेरे भीतर कोई ऐसा कर्म है। हमने उस पर विचार किया कि “केवलि-श्रुत संघ-धर्म देवावर्णवादो दर्शन-मोहस्य।" 


जब-जब मैं महापुरुषों में जो दोष नहीं हैं उन दोषों का आविष्कार करता हूँ। उन दोषों की उनमें कल्पना करता हूँ, इससे मेरी दृष्टि की निर्मलता नष्ट होती है, इससे मेरी जो श्रद्धा है मलिन होती चली जाती है। मुझे अब अपने अन्दर श्रद्धा और विश्वास की सामर्थ्य बढ़ानी है। मुझे, महापुरुषों में जो दोष नहीं है उन दोषों का आविष्करण या उन दोषों की कल्पना नहीं करनी चाहिये वरना कल के दिन मेरी श्रद्धा और विश्वास टूट जायेगा और मुझे हर जगह सन्देह होने लगेगा और इतना ही नहीं हमारे अपने आचरण को भी मलिन करने वाले कुछ कर्म हैं जो हम करते हैं, कषाये हैं जो हमारे आचरण को मलिन करती हैं। हम उन कषायों के उदय आने पर और अधिक तीव्र परिणाम, संक्लेष के परिणाम कर लेते हैं जिससे कि वो हमारे साथ और अधिक अटेच हो जाती हैं।


एक ऐसी कषाय है जो हमारी दृष्टि को भी मलिन करती है। क्रोध मान, माया, लोभ की एक ऐसी वैरायटी है जो कि हमारी श्रद्धा को भी गड़बड़ाती है और क्रोध, मान, माया, लोभ की एक वैरायटी है जो व्रत, नियम नहीं लेने देती, उसमें बाधा डालती है और क्रोध, मान, माया, लोभ की एक ऐसी वैरायटी है जो हमें महाव्रत लेने में बाधा डालती है और इतना ही नहीं, ऐसी भी क्रोध, मान, माया, लोभ है जो कि हमें हमारे स्वभाव से परिचित नहीं होने देती। इन सबसे अपने को बचाने का पुरुषार्थ करना। 

ये सारी बात मैंने ब्रीफ कर दीं। अब आगे शुरू करें। आज के लिये हमें क्या करना है। हम अगर मनुष्य हैं तो हमने ऐसा क्या किया है, जिससे कि हम मनुष्य बने हैं? यदि हम पशओं को देखते हैं तो मन में ये विचार आना चाहिये कि वे पश क्यों बने ? उन्होंने ऐसा क्या किया कि उन्हें पशु बनना पड़ा। ये दो लोग तो हमें दिखाई पड़ते हैं, लेकिन सुनते हैं कि देव भी हमारी तरह ही अपने किन्हीं अच्छे कर्मों की वजह से बन जाते हैं ? तो एक देव की भी स्थिति है। कुछ ऐसे भी हैं जो कि अपना नरक भोगते हैं, इसी संसार में। उनको इस स्थिति में कौन ले जाता है तो कुल मिलाकर के एक ही चीज है, हर व्यक्ति का अपना कर्म उसे यहाँ पर वह चाहता है जैसा कर्म करता है, वैसा उसका फल उसे प्राप्त हो जाता है। आचार्य भगवन्तों ने लिखा कि हम सावधान रहें। यदि हम जान गये हैं कि नरक अच्छी चीज नहीं है और हम नरक जाना पसन्द नहीं करते हैं तो हमें सावधान रहना चाहिये। कहा है - "ब्रह्मारम्भ - परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः' अर्थात् बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह करने से जीव अपने आपको नरक की तरफ ले जाने की तैयारी करता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आज यही कर रहे हों। आरम्भ किसे कहते हैं ? बहुत अधिक पाप के कार्य करना आरम्भ कहलाता है और बहुत अधिक ममत्व रखना ये परिग्रह कहलाता है। यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ, इस तरह के भाव को बोलते हैं परिग्रह। आरम्भ और परिग्रह सामान्य रूप से तो सभी करते हैं। लेकिन जब कोई बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह करे तब फिर मानियेगा कि वो अपनी नरक जाने की तैयारी कर रहा है। नरक एक्चुअली क्या है ? जहाँ मारी-थारी मची हुई है। जहाँ लोलुपता है, जहाँ आसक्ति है, जहाँ बहुत पाप की बहुलता है। वो ही तो नरक है। हम जब चाहें उसे निर्मित कर लें। हम अपने आस-पास कई बार निर्मित कर लेते हैं ऐसा नरक। जहाँ मारी-थारी मची हुई है, मेरा-तेरा मचा हुआ है। ये मेरा है, ये तेरा है। और जहाँ बहुत अधिक पाप की बहुलता है। यहीं तो नरक है। अगर हम ये सब करेंगे तो अन्ततः हम अपना नरक अपने हाथ से निर्मित करेंगे इसलिये सावधानी जरूरी है। थोड़ी सी तो आजीविका, चार रोटी तो चाहिये है, दिन भर का पेट भरने के लिये, लेकिन पेटी भरने के लिये इतना पाप, जरा विचार कर लीजिए। अरे भई आजीविका तो कोई भी चला लेता है। तो आजीविका चलाने के लिये ही अगर मुझे कोई कार्य करना है तो मैं उस कार्य को चुनने से पहले देखू कि उस कार्य में मेरे से बहुत अधिक जीवों का घात तो नहीं हो रहा है। मेरे को बहुत झूठ तो नहीं बोलना पड़ता उस कार्य में। मेरे को कहीं चोरी करने के लिये मजबूर तो नहीं होना पड़ता। मैं ऐसा धन्धा कर रहा हूँ जिसमें चोरी करने को मजबूर होना पड़े। ऐसा तो नहीं है जिसमें मुझे अपने व्यवहार को मलिन करना पड़ता हो लोगों से। ऐसा धन्धा तो नहीं कर रहा हूँ। जिससे कि मेरी आसक्ति और बढ़ती चली जाये। 


इन सब बातों का विचार हमें करना चाहिये। जो ऐसा विचार करता है वो समझियेगा कि अपने हाथ से अपना नरक निर्मित नहीं कर रहा है। वो सावधान है। और यदि ऐसा नहीं कर रहा है तो वो अपने हाथ से अपना नरक ही निर्मित कर रहा है। बहुत आरम्भ मतलब यही है कि मैं अपनी आजीविका के लिये बहुत पाप कर रहा हूँ जो थोड़े पाप कर्म में हो जाना था उसको बढ़ाकर के बहुत अधिक कर रहा हूँ। आज जितने भी ये जो पोल्ट्री फार्मिंग, फार्मिंग ये आज जितने भी जीवों की हिंसा करके बहुत धन्धे किये जा रहे हैं, कॉस्मेटिक्स के बहुत बड़े-बड़े प्लान्ट्स मैन्युफेक्चरिंग, ये जितने भी हैं वो सब थोड़े से पैसे के लिये किया जाने वाला बहुत बड़ा पाप है। जो अन्ततः हमें नरक ही निर्मित करेगा। अभी जरूर हमें सुख-सुविधा की सामग्री प्राप्त हो रही है। लेकिन ये मेरे भीतर एक स्थिति में नरक ही निर्मित करेगी। जरा सुख-सुविधा की सामग्री वालों से पूछे कि वे कितने दुःखी हैं। उनके पास दुनिया भर के सुख हैं लेकिन जो जीवन का सुख है, वो गायब है। और अपने जीवन में भी अपन ये अनुभव करते हैं। चार चीजों में शांति से गुजारा होता है और चालीस रख लेवें तो उन्हीं को संभालना। जब तक प्राप्त नहीं हुई थीं तब तक प्राप्त हो जावे, इस बात का संक्लेश। अब प्राप्त हो गई हैं तो उनको कैसे सँभाल कर रखू, इस बात का संक्लेश और कल के दिन वे अगर छिन जायेंगी. उनका अभाव हो जाएगा तो फिर जिनके नहीं होने पर पीड़ा, जिनके होने पर भी पीड़ा और जिनके छिन जाने पर पीड़ा, उन चीजों को हम जरा सँभलकर इकट्ठा करें, बस इतना ही कहा जा रहा है। वरना हम अपने हाथ से अपना घाटा करेंगे यह सावधानी हम रखें। कर्म तो हमें करना है, कौन नहीं करता है, “योगाः कर्म सुकौशलम्' जरा कर्म करने की कुशलता तो हम सीख लेवें। ये ही कुशलता है कि जिसमें मेरा अहित होता है जिसमें मेरा नरक निर्मित होता है, मैं उस तरह के भावों और उस तरह के कर्मों से अपने को बचाऊँ। परिग्रह ममत्व को कहते हैं और बहुत के मायने हैं। संख्या की अपेक्षा भी और परिमाण की अपेक्षा भी, दोनों ही हम बहुत अधिक अपने पास संगृहीत करके रखते हैं। अनावश्यक, उसके लिये हमें कितना शोषण करना पड़ता है, कितना दूसरे को तकलीफ पहुँचानी पड़ती है और स्वयं हमारे जीवन को उससे कोई ज्यादा सुख पहुँचता, हो ऐसा नहीं है। आपको ज्यादा अनुभव है भैया। आप तो मेट्रो सिटी में रह रहे हैं। महानगर में रह रहे हैं। यहाँ की तामझाम और वे सारी चीजें आपकी देखी हुई हैं और उनसे मिलने वाला सुख-दुःख का अनुभव भी आपको ज्यादा है पर अगर हम गौर से देखें तो हम महसूस करेंगे कि भैया तुम छोटे से गाँव में हो, भले ही कुछ चीजों का अभाव है मगर सुख से तो हैं। हमें तो इधर बहुत तकलीफें हैं भले ही बहुत बड़ी हवेली है और अनाप-शनाप पैसा है। मगर लड़के बिगड़ गये, तुम्हारे तो फिर भी ठीक है। बताओ आप ऐसी बहुत सी चीजें अपने देखने में, अपने जीवन में अनुभव में लाते हैं तब फिर क्यों हम ऐसा कर्म करें जिससे कि हमारा ही अहित हो। हमें यह चीजें चाहिये हैं, लेकिन बहुत चाहिये हैं ऐसा तो जरूरी नहीं है। 


विनोबा ने लिखा कि शरीर तो एक ही मिला है, उस पर एक जोड़ी कपड़े पहने जा सकते हैं, आप भले ही संदूक में पचास जोड़ी रख लो, पहनोगे तो एक ही। क्या पचास जोड़ी एक बार में पूरे के पूरे पहनोगे, ना एक ही पहन पायेंगे, लेकिन उस एक के पहनने के लिये उनचास। सुख तो दे रहा है एक जोड़ी कपड़ा लेकिन उसमें सुख नहीं हैं, वो जो उनचास पेटी में रखे वो भीतर बहुत गुदगुदी पैदा करते हैं। हमारे पास इत्ते सारे रखे हुए हैं। अच्छा रखे रहो, क्या काम के हैं देखने भर के हैं वो। कुछ सुख दे रहे हैं क्या ? सोच सोचकर हम सुखी हैं, सो ठीक है। जिस दिन उसमें से एक कम हो जाएगा सो उसका दुःख भी मिलेगा जबकि कपड़े जो शरीर पर पहने हैं वो कौनसा दुःख दे रहे हैं वो तो कुछ भी नहीं दे रहे हैं। आपके शरीर की सुरक्षा के लिये हैं सो सुरक्षा कर रहे हैं। वो जो सन्दूक में रखे हैं, सो थोड़ा सा होने का सुःख और जब नहीं हैं सो और दुःख। जबकि शरीर के वस्त्र में कोई फर्क नहीं आया। उनमें से एक कम हो गया इस बात का दुःख। फोकट का दुःख ये कहलाता है, लेकिन ये चीज ध्यान में आये तब ना। 


एक नौकर काम करता था सेठजी के यहाँ पर। हमने शायद पहले भी सुनाया था। हम फिर से सुना रहे हैं। क्योंकि कुछ लोग भूल गये होंगे। सेठजी के वहाँ वो नौकर काम करता था। एक दिन साफ करते-करते सफाई में और उससे घड़ी सेठजी की टूट कर नीचे गिरी। उसको लगा कि अब तो मामला गड़बड़ है। क्या होगा ? सेठजी नाराज होवेंगे। और तनख्वाह में से हो सकता है, पैसे काट लें। तो शाम को आये सेठजी और उनसे कह दिया कि वो मेरे से घड़ी टूट गयी। तो सेठ जी ने कहा - अब ठीक है थोड़ा सावधानी से किया करे काम और सुनो वैसे तो कोई विशेष बात नहीं है, लेकिन तुम्हें नहीं मालूम इस घड़ी के साथ मेरा बड़ा रिश्ता है। ये मुझे अपने ब्याह के समय मिली थी और मुझे इससे बहुत लगाव है। और मुझे पीड़ा बहुत है कि ये गिर गयी। और सामान कोई टूट जाता घर का तो शायद इतनी पीड़ा नहीं होती पर इससे मुझे ज्यादा लगाव है तो इससे मुझे पीड़ा हो गयी। खैर अब टूट ही गयी है तो कोई बात नहीं और नहा-धोकर के आये खाना-वाना खाकर के और फिर नौकर ने कहा तो मैं जाऊँ। अरे जाओ, पर सुनो मैं सोच रहा था कि अगर ये घड़ी नहीं टूटती तो मैं तेरे को दे देता । अब, अभी नौकर को दिन भर से घड़ी टूटने का उतना दर्द नहीं था जितना कि इस बात को सुनकर के कि ये घडी मुझे मिल सकती थी और टूट गई। अब दुःख शुरू हो गया। अब नौकर महाराज को भी दुःख होना शुरू हो गया। अभी तक तो टूट गई थी इसका दुःख नहीं था। वो मेरी पगार में से पैसे ना कट जाये, इसका दुःख था। अब घड़ी टूटने का दुःख इसलिये हो गया कि मुझे मिल सकती थी और टूट गयी। ये मेरी हो सकती थी, ये जो मेरे मन में भाव आ गया। घड़ी दुःख नहीं दे रही भैया। वह देती हो तो जब टूटी थी तब देना चाहिये था। वो मेरी है और फिर टूट जावे तो बहुत दुःख देती है। घड़ी-साज के यहाँ ढेर सारी घड़ियाँ टॅगी हुई हैं। वो अपन को सुख देती हैं, दुःख देती हैं क्या ? कुछ नहीं देती वो जब अपन खरीद कर अपने घर में ले आते हैं तो सुख देती हैं और जब गिर जाती हैं तो दुःख देती हैं। हमारा अपना ममत्व हमें सुख दुःख देता है और जिस व्यक्ति का ममत्व बहत है आसक्ति बहत है। बहत चीजों में आसक्ति है और बहुत मात्रा में आसक्ति है। बताइये उसको दुःख ही दुःख नहीं मिलेगा और जहाँ दुःख ही दुःख है उसी का नाम तो नर्क है। जहाँ क्षण भर का सुख नहीं है दुःख ही दुःख है। जहाँ सुख में से भी दुःख निकालने की प्रवृत्ति वाले लोग रहते हैं वो ही नर्क है। क्या हम, क्या हम उसे निर्मित करना चाहेंगे अपने जीवन में। नहीं, कोई भी नहीं चाहता कि वो नर्क जावे या अपने जीवन में ही नर्क निर्मित करे। तब फिर जरूरी है ..... हम तो हमेशा कहा करते हैं कि जैसे ये बैनर लगाये जाते हैं ना यहाँ पर तो एक बैनर बनवा लेना चाहिये, अपने घर में लगाने के लिये। और इस पर क्या लिखना चाहिये। मैं बहुत पाप कार्य करता हूँ और बहुत सम्पत्ति से ममत्व रखता हूँ, मैं नरक जाऊँगा। हाँ ऐसा लिखवा लीजिये उस पर और रोज जब दुकान से लौट कर आये वो देख लीजिये। अगर मैंने सावधानी रखी है तो बच जाऊँगा और गड़बड़ करी है तो नरक जाऊँगा। मैं अपने हाथ से ये इन्तजाम कर रहा हूँ। तो बार-बार ये बात हमें ध्यान में बनी रहेगी। कर्म तो हमें करना है लेकिन इतनी सावधानी रखना है कि उससे मेरा अहित ना हो। बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह करने से हम नरक जाते हैं। अच्छा बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह क्या कहलाता होगा इस पर अपन विचार करेंगे। छोटे-छोटे से उदाहरण हैं। 


क्या हुआ एक कवि सम्मेलन होना था तो उसमें कवि लोग किसी गाँव में गये और वो गाँव शहर से थोड़ा इन्टीरियर में था। तो वहाँ आँधी और पानी बहुत होने से कवि सम्मेलन पोसपोंड हो गया। पोसपोंड हो गया तो उनको सबको वापिस आना था। सबको वापस आना था तो उसमें से एक कवि ने बोला कि मेरे पास दो कम्बल हैं अपन सब लोग मिलकर उन दोनों को ओढ़ लेते हैं और कम से कम ताँगा स्टैण्ड तक चलते हैं फिर वहाँ से ताँगा मिल जाएगा और बस तक पहुँच जाएँगे अपन। तो उसमें से जो संयोजक कवि थे उन्होंने कहा कि अरे भई वो जो दिल्ली वाले आये हैं ना कवि सम्मेलन सुनने, उनकी गाड़ी ले लेते हैं अपन तो। जो पहले से अनुभवी कवि थे, वो कहने लगे कि मिलेगी नहीं । ऐसे कैसे कह रहे हो, हमारी तो उनसे बहुत पहचान है। उनसे पूछा तो मालूम है क्या जवाब दिया उन्होंने। देखो यात्रा में ड्राइवर बहुत थक गया है अभी वो विश्राम करेगा अभी गाड़ी नहीं मिल सकती। 


कितना करते हैं और जोड़-जोड़ के रख लिया और अगर सदुपयोग नहीं कर रहे हैं तो मानिये कि बहुपरिग्रही है, बहुत आसक्ति है तब तो सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं और बहु-परिग्रही का एक और उदाहरण है दूसरे ढंग से। एक व्यक्ति जा रहे हैं बस में, उनके पास एक रेडियो है। वो उसने बस की छत पर रख दिया है सत्रह दफे लोगों को सुना सुनाकर कह चुके हैं। ड्राइवर से कहा कि देखो त्रिपाल ढाँक देना। हजार रुपये का है रेडियो गीला न हो जाये। क्लीनर से कह रहे हैं, ऊपर चढ़ते-उतरते समय जरा सावधानी रखना, हजार रुपये का है, अच्छी बात है। फिर और लोगों को जो आसपास में बैठे हैं उनसे कह रहे हैं कि वो देहरादून में मैंने चीज खरीदी वो एक रुपये में दो सेर मिल गयी और वो ही अगर मैं मसूरी में खरीदता तो एक सेर मिलती। और सुनो ये जो पेन देख रहे हैं न, पेन बताओ, कित्ते का होगा ? अरे ये तो महँगा लग रहा है जनाब डेढ़ सौ रुपये का होगा। एक पहाड़ी लड़के को बुद्ध बनाकर पाँच रुपये में लाया हूँ, पाँच रुपये में। उसने भी चुराया ही होगा कहीं न कहीं से, बड़े प्रसन्न हैं। इतना ही नहीं बता रहे हैं कि ये देखो डाक आयी उसमें से दो रुपये की टिकिट पर सील ही नहीं लग पाई, मैंने वो इसमें से उखाड़ ली और दूसरे पर लगाऊँगा, काम आयेगी। अपना ईमान जिसे सस्ता है और धन महँगा है, वो बहुपरिग्रही। ठीक, जो धन का सदुपयोग न करे वो बहुपरिग्रही। अब आ जायेगा जल्दी समझ में ताकि बचें अपन इससे। और तीसरी चीज, मौसी ने बुलाया शादी के बाद बेटे बहू को। दोनों गये हैं वहाँ, और मौसी ने चेन दी है दोनों को। वो चेन शब्द, चैन है वो किन्तु बेचैन कर देती है वो बहुत (हँसकर) चेन जरूर है वो कोट के, कालर के ऊपर रहे तो बड़ा चैन मिलता है और उसके भीतर रहे तो चैन नहीं मिलता। लोगों को दिखती रहे तो बड़ा चैन मिलता, नहीं तो बेचैगी कोई देखे नहीं अगर। ऐसी वो चेन दे दी। अब आ रहे हैं जनाब बस में बैठे, और चार लोग और बैठे हैं रिश्तेदार, बताना कितने वजन की, लग तो रही है महँगी, महँगी नहीं होगी, हो सकता है पालिश की हो उसमें। डिस्कशन चल रहा है। कितने की होयेगी ? जो दूसरे की भावना और त्याग से ज्यादा मूल्यवान वस्तु को माने, वो बहुपरिग्रही। बस ये तीन चीजें है बहुपरिग्रही होने की। जो चीजों का सदुपयोग न करे, जोड़-जोड़ के रखे वो बहुपरिग्रही। अकेला जोड़कर रखने वाला बहुपरिग्रही नहीं होता। जो सदुपयोग न करे वो बहुपरिग्रही। और जो अपना ईमान खो देवे, ईमान को सस्ता माने, चीजों को महंगा मानें, वो बहुपरिग्रही। और जो दूसरे की भावनाओं की कदर न करे, मौसी ने दी है ये तो नहीं कहा एक भी बार। कितनी भावनाओं से उसने दी होगी, कितना त्याग किया होगा। यह पूछ रहे हैं कि कितने वजन की है कितनी महँगी होगी ? किस तरह हम अपने जीवन को बना रहे हैं अपने हाथ से। और हम कहाँ जाएँगे, कैसा हमारा जीवन आगे बन जायेगा। 


आचार्यों ने इसीलिये ये बात लिखी कि जहाँ अल्प पाप करने से कार्य चलता हो, वहाँ बहुत मत करना। जहाँ अपनी आवश्यकता थोड़े में पूरी होती हो वहाँ पर ज्यादा आसक्ति मत बढ़ाना, तो अपन आराम से इस चीज से बच जाएँगे। और भी कुछ चीजें हैं जो कि हमें नरक ले जाने में या कि जीवन को नरक बनाने में, दोनों ही बातें, नरक ले जाने में या कि जीवन नरक भी बन जाता है, किन्हीं चीजों से। आचार्यों ने कहा है कि जो अशिष्ट आचरण करता है वो अपने हाथ से अपना नरक निर्मित करता है। आचरण हमारा अशिष्ट नहीं होना चाहिये किसी के भी प्रति। किसी को भी हम छुद्र ना मानें, किसी का भी हम तिरस्कार ना करें। ये चीज हमारे आचरण में शामिल हो। अब अशिष्टता किसे कहते हैं? जब अपने आपको सब कुछ मानें और दूसरे के कुछ भी नहीं माने और जेन्टिलनेस किसे कहते हैं ? जो सबका ख्याल रखे। सबके प्रति प्रेमभाव रखे और फिर कह रहे हैं जिसका गुस्सा पत्थर की लकीर के समान हो। जो बद्ध बैर हो अर्थात् बैर को बाँध लेने की आदत जिसकी हो। समझ लो कि उसने अपने भीतर अपना नरक निर्मित कर लिया। कोई और नहीं करेगा। उसने खुद निर्मित कर लिया अपने हाथ से। ऐसा पत्थर के समान कठोर, क्रोध, अगर है, दया शून्य होना नरक निर्मित करना है। जब हम दया से शून्य हो जाते हैं, तब भी हम अपना नरक निर्मित करते हैं। दूसरे को पीड़ा पहुँचाकर के या दूसरे की पीड़ा देखकर के मन ही मन प्रसन्न होगा। बढ़िया रहा, भोगो बेटा। वो तो वैसे ही दुःखी है अपने कर्म से, आप प्रसन्न हैं कि अच्छा हुआ। भैया ! शत्रु की भी अति नहीं चाहना चाहिये। 


मित्र की तो छोड़ो। शत्रु की भी क्षति ना हो, और अगर क्षति हो तो कम से कम प्रसन्न तो नहीं हो। शत्रु की क्षति में भी प्रसन्न नहीं होना। ये परिणाम हमारे कितनी जल्दी गड़बड़ा जाते हैं इसकी सावधानी रखना और कहते हैं, साधुजनों के बीच आपस में फूट डाल देना। इनकी उनसे, उनकी इनसे, बहुत करते हैं लोग। इस महाराज के पास उस महाराज की निन्दा करेंगे और उसके पास जाकर के कि महाराज वो आपके बारे में ऐसा कह रहे थे। कई लोग यही करते रहते हैं, आपको नहीं मालूम। उनका काम ही यही है। ये अपने हाथ से अपना नरक बनाना। साधु सजन पुरुष हैं, त्यागी व्रती हैं, मुनिजन हैं उनके बीच फूट डाल देना, उनके बीच आपस में विरोध पैदा कर देना, इसमें रुचि लेना। ये सब अपने हाथ से अपना नरक निर्मित करना है और मरते समय अत्यन्त संक्लेश परिणामपूर्वक मरण करना, ये नरक जाने का उपाय है। भैया और भी बहुत सारी चीजें हैं, जो अच्छी नहीं हैं वे सब चीजें सब समझते हैं कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है। जो जितना बहुत अधिक बुरा है वो सब हमें वहाँ ले जाता है क्योंकि वहाँ बुरा ही बुरा है। नरक के मायने जहाँ सब कुछ गड़बड़ है और हम यहीं से उसकी शुरूआत करते हैं। तो अपन यहाँ पर भी सावधानी रखें। कर्म तो करना है लेकिन ऐसे कर्म ना करें जिससे कि अपना जीवन कष्टकर हो जाये। दूसरे के लिये भी तकलीफ दायक हो जाये और अपने लिये भी क्षति पहुँचे। ये सावधानी रखें तो हम अपने नरक से अपने को बचा सकते हैं। इसी भावना के साथ कि हम अच्छे कर्म करें जिससे कि हमारा जीवन अच्छा बने। 


बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 

००० 

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