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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

15. स्वयं-बुद्ध, स्वयं सिद्ध


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इन्द्र ने प्रभु की बार-बार पुण्य स्तुति की और प्रभु से कहा जगत् के कण-कण में बैठे भगवान् को जगाने का। महज संयोग कि इन्द्र का कहना और प्रभु का चलना हुआ। कण-कण में एक नव चेतना का संचार प्रभु के गमनमात्र से हो गया। कौन चल रहा है? कौन चला रहा है? क्यों चला जा रहा है? ये प्रश्न उत्तर को साथ लिए हैं। मौन विहार, मूक प्रकृति और विश्व का कल्याण आपो आप। राही ही राह बन गया। राह राही की बाट जोह रही है। महामही स्वामी वृषभ को स्वयमेव स्वर्ण कमलों की आँख बना कर निहार रही है। एक अपूर्व प्रेम, अद्भुत वात्सल्य है, प्रभु के दिव्यदर्शन में। जहाँ-जहाँ से प्रभु का विहार हुआ आक्रान्त चित्तों में शान्ति के पटल उघड़ते चले गए। मौन रह कर ही महासत्ता का परिचय दे रहे हैं। मैं मात्र मैं हूँ, तुम भी मेरे हो, मैं भी तुम्हारा हूँ, तुम तुम्हीं हो, तुम्हें तुम्हारी अनुभूत सदा रहेगी, मैं अब प्रकृति बन गया हूँ, स्वभाव हो गया हूँ, सब कुछ स्वभाव में ही शोभित होता है। चराचर जगत् से प्रेम करो, राग नहीं, द्वेष नहीं। प्रेम पवित्र अनुभूति है, प्रेम परसत्ता की स्वयत्ता का अनुभवन है। प्रेम स्व-अधीन है, प्रेम सत्ता की स्वीकारता है, प्रेम करने से वस्तु की वास्तविक अनुभूति होती है। यही स्वभाव है, यही धर्म है। जो मेरा भाव मेरे प्रति, वही भाव हो निखिल के प्रति, यही धर्म है। किसी को उसके स्वतन्त्र परिणमन से बाधित मत करो। राग बाधा पहुँचाता है, दूसरे को अपनी ओर आकृष्ट करता है, पर को अधिकृत कर पराधीन करना चाहता है इसलिए विकार है, अधर्म है। परसत्ता पर अहं के धब्बे लगाना महा अपराध है। इस अपराध की परम्परता ही आतंक है। उस अपराधी का वह विचार और उसका बखान ही पर को तंग करता है और जब यह तंगी चारों ओर से घिर जाती है तो काम, मोह, लोभ, मात्सर्य की दमघुटन प्रदूषण को जन्म देती है और यह आ-परि समन्तात्-तंग-आ-तंग ही आतंक है, जो कष्टप्रद है स्व और पर के लिए। इसी से पैदा होता है द्वेष; जो असमर्थ को और असमर्थ बनाता जाता है। मन की दुर्बलता ही इन विकारों की सतत् जननी है। प्रेम मात्र ज्ञाता-द्रष्टा बनाता है। प्रेम की दृष्टि में सब कुछ अच्छा लगता है, किन्तु अपने अधीन नहीं करना चाहता पर परिणमन को। विश्व में आत्मज्ञानी ही सच्चा प्रेमी है। विश्व में उस प्रेमी को सब जगह अच्छाई और प्रतिद्रव्य में गुणों की ही गन्ध आती है। यहाँ गुण, वहाँ गुण, स्व में वही गन्ध, पर में वही गन्ध; फिर किससे राग करूँ, किससे द्वेष करूँ, स्व की गन्ध में स्नपित होता हुआ वह स्व में विलीन हो जाता है, तब उसका ज्ञान स्वच्छ बनता है, तब उसमें प्रतिभासित होता है, प्रत्येक द्रव्य, उसकी सत् समाचीनता के साथ और तब उसका वचन मनःपाप को धोने योग्य होता है। इसलिए हे विश्व के प्राणियो! अपनी कलुषता को धोओ, अपनी आत्मा में विकृति के भाव अब मत जमाओ, स्वयं से प्रेम करो, स्वयं का मान करो, तुम अपने में पूर्ण हो, तुम एक महा प्रकाश पुञ्ज हो, तुम आपे में आओ, तुम स्वयं में खो जाओ, तुम्हारा यह पुरुषार्थ एक दिन मुझसे मिलाप करा देगा, अन्यथा तुम मुझे देखकर भी नहीं देख रहे हो। जो दिख रहा है वह मैं नहीं हूँ, जो देख रहा है वह दिखता नहीं, क्योंकि देखने दिखाने का यह भाव मोह का विलास है। मोह एक आवरण है, पर्दा है, जिसमें सम्यक् सुख की अवभासना नहीं, जिसमें सम्पूर्ण का ज्ञान नहीं .......... ।

 

इतने कितने ही मौन प्रवचन करते हुए कितने ही आसन्न भव्यों को स्वकीय सत्ता का भान स्वतः होता गया। कितने ही बार वे चरण कितनी ही जगह रुके। बैठे तो, प्रभु ने मूसलाधार वर्षा की तरह दिव्यदेशना से इस आर्यावर्त की मृत्तिका को कल्पकाल तक के लिए जीवित कर दिया। विश्व के कल्याण की विक्षोभकारी भावना का प्रतिफल था, जिसने विश्व को क्षुब्ध किया, धरातल पर धर्म का बीज बोया।

 

चौरासी-गणधरों सहित चतुर्विध संघ को लिए यह विहार अनवरत चला। एक हजार वर्ष और चौदह दिवस मात्र शेष थे, एक लाख पूर्व में; इतने प्रभूत काल तक धर्मामृत की वृष्टि होती रही। परन्तु काल का अन्तःप्रवास अलंघ्य है। परकल्याण की भावना एक सीमा तक ही प्रतिफलित होती है। स्व कार्य को भूले बिना वह करना विरले योगी ही जानते हैं । सहसा प्रभु की देशना अब रुक गयी। चैतन्य प्राण मचल रहे हैं, इस आयुप्राण की जड़ता के बन्धन को तोड़ने के लिए। किंचित् भी पर-लगाव इन आत्म प्रदेशों पर असह्य हो गया। आयु की कणिका उतनी ही शेष जितने चौदह दिन के कालाणु। भरत, अर्ककीर्ति, जयकुमार, यशस्वती, सुनन्दा आदि कितने ही लोगों ने शुभ स्वप्न देखे। उन सबका प्रतिफलन है, मात्र भगवान् की देह का इन चक्षुः से न दिखना। कैलाश की शुभ्रभंगिमा में मेला लगा है। चक्रवर्ती भी, इन्द्र के साथ पूजा में सम्मिलित हैं, देखना चाहते हैं इन चर्म चक्षुओं से अगम्य गमन । आज माघ कृष्णा की चतुर्दशी है, अभिजित् नक्षत्र चन्द्र के साथ है। सूर्योदय का शुभ मुहूर्त है और प्रभु विराजित हैं, पूर्व दिशा को मुख किए पर्यंक आसन में । चौदह दिन से चल रहा है, इन योगों के प्रचलन से आत्म प्रदेशों को रोकने की प्रक्रिया का अजस्र क्रम। मन, वचन, श्वासोच्छास और कायकृत योगों का निरोध हुआ कि, ध्यान सूक्ष्मक्रिया के साथ अप्रतिपाती बन गया। जिस ध्यान से पुनः लौटना नहीं, ऐसा यही तृतीय अप्रतिपाती ध्यान है, जो सयोग कैवल्यता के अन्तिम क्षणों में होता है। पश्चात् इस संसृति में पार्थिव देह का दर्शन मात्र पञ्च लघु अक्षरों के उच्चारण काल तक ही होता है, जो योगरहित अवस्था है। समस्त क्रियाओं से निवृत्त होकर चतुर्थ ध्यान नाम पाती है, आत्मा की वह अन्तिम परिणति सकल अघातिया कर्मों का नाश इस ऊष्मा से ही होता है। यहाँ ही यथाख्यात चारित्र परिपूर्ण यथाख्यात होता है। औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर का नाश इस चारित्र से ही होता है और एक क्षण में सिद्धालय में विराजमान हो गयी वह चेतना, उन अन्तिम लोक के प्रदेशों में जहाँ से ऊपर गमन सम्भव नहीं। सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन की एकमेकता, अपने ही अगुरुलघु गुण से अनन्तानन्त अर्थपर्यायों का प्रतिपल उठना और विलीन होना, जहाँ सब कोई अबाधित हैं एक-दूसरे से, अपने-अपने में जो लीन हैं। यह अव्याबाध गुण, यह सूक्ष्मत्व आज प्रत्यक्ष हुआ। ज्ञान चेतना की मात्र अनुभूति आज प्रकट हुई। आज कृतकृत्य हुई भगवान् वृषभ की आत्मा । महा परिनिर्वाण की पूजा चल रही है। भरत महाराज किंचित् खेद खिन्न हैं, किन्तु श्री गणधरदेव के प्रतिबोधन से आत्मशक्ति पा रहे हैं। लोग महाबल से पूर्व जयवर्मा के भव से लगाकर एक साथ श्री गणधर के मुख से प्रभु का चरित्र श्रवण कर कृतार्थ हो रहे हैं और युगद्रष्टा के चरित्र को इस अढ़ाईद्वीप में दिखाकर, इतने ही प्रमाणपरिमित सिद्धशिला पे विराजित प्रभु को ज्ञान चक्षु से अवलोकित कर रहे हैं, उनके साथ बीते प्रतिपल का अनुस्मरण कर विभोर हो रहे हैं।

 

  • आदिम तीर्थङ्कर आदिनाथ जयवन्त हों!
  • स्वयमेव अनुशासित प्रशस्य शास्ता जयवन्त हों।
  • शम-दम-दया के निलय वृषभ ज्येष्ठ प्रजा की रक्षा करें।
  • अनवद्य-निर्ग्रन्थ श्रमण, श्रमण-शिखामणि रहें।
  • परीषहजेता मर्यादित नेता कलिकाल में भी अमर रहें।
  • इन्द्र, देवेन्द्र, महेन्द्र, अहमेन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र, वंदित चरण आमुक्ति मम हृदय पटल पर अंकित रहें।
  • सिद्धबुद्ध मुक्त निरंजन परमात्मा की चिज्ज्योति. सदा प्रकाशित रहे।
  • श्रुति, स्मृति, पुराणों, काव्यों, उपन्यासों, वेदों, ऋचाओं और सकल अनुयोगों में भगवान् वृषभ की कलायें अमिट रहें।
  • इस युग के महामानव, युगद्रष्टा सदा सबके प्रणम्य हों। राजा धार्मिक हो, प्रजा सात्त्विक हो, विद्वान् विनीत हो और साधक अकाम ऐसी मम भावना चिरकाल रहे अविराम ॥

 

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वर्षायोग 2002 ई. श्री सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर (देवास) में भगवान् आदिनाथ का यह संक्षिप्त जीवन चरित्र स्वपर हितार्थ पूर्ण हुआ।

 

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