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शक्ति, अभिव्यक्ति, समस्या और तपस्या


Vidyasagar.Guru

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शक्ति, अभिव्यक्ति, समस्या और तपस्या

नदी के किनारे एक चट्टान थी। धोबी उस पर बैठकर कपड़े धोया करते थे, सैलानी उस पर बैठते और लहरों के साथ अठखेलियाँ खेला करते थे। पत्थर कई दिनों से नदी के किनारे था। जो भी वहाँ आता अपने-अपने हिसाब से उसका उपयोग करता। एक दिन किसी शिल्पी की नजर उस पत्थर पर पड़ी। शिल्पी ने उस पत्थर को वहाँ से निकाला, अपनी वकशाप पर लाया और उसे तरासना प्रारम्भ कर दिया। कुछ ही दिनों में उसमें एक सुंदर प्रतिमा का आकार प्रकट हो गया। कल तक साधारण पत्थर अब प्रतिमा का रूप धारण कर चुका था, पाषाण ने भगवान का रूप ले लिया था।

 

बन्धुओं! इसी तरह पाषाण से भगवान की अभिव्यक्ति हमारी संस्कृति है। आज तप धर्म की बात है। शक्ति के रूप में हर प्राणी के अन्दर अनन्त सम्भावनाएँ हैं। जैसे हर पत्थर में प्रतिमा है वैसे हर आत्मा में परमात्मा है। 'अप्पा सो परमप्पा' ये जैनदर्शन का उद्घोष है। हर आत्मा परमात्मा है। आत्मा ही परमात्मा है। तुम्हारे भीतर वह शक्ति है पर तुम्हें उसका पता नहीं। जब तक हमें शक्ति की जानकारी नहीं होगी, हम उसका लाभ नहीं ले सकगे। तप धर्म के संदर्भ में चार बातें आप से कहना चाहूँगा।

 

तुम अनन्त शक्ति के स्रोत

आज की चार बातें- शक्ति, अभिव्यक्ति, समस्या और तपस्या। शक्ति. तुम्हारे पास जो शक्ति है पहले उसे पहचानो। जो प्राणी अपनी अन्तर्निहित शक्तियों की पहचानता है वही सच्चे अथों में अपना कल्याण कर सकता है। जानो तुम क्या हो। तुम्हारे पास अनन्त सम्भावनाएँ हैं। सच्चे अर्थों में देखा जाए तो तुम अनन्त शक्तियों के पुंज हो पर मुश्किल ये है कि इसका तुम्हें पता ही नहीं है। तुम क्या हो, तुम्हें पता नहीं है। ऊपर से देखने में हाड़-माँस का पुतला दिखता है लेकिन इसके भीतर जो आत्म-तत्व है वह अनन्त शक्तियों का पुंज है, उस शक्ति को पहचानो। जो उसे पहचानता है वही आगे जाकर अपने जीवन का कल्याण कर पाता है।

 

पाषाणेषु यथा हेम दुग्धमध्ये यथा घृतम् |

तिलमध्ये यथा तैलं देहमध्ये तथा शिव: ||

स्वर्णपाषाण में जैसे सोना होता है, दूध के भीतर जैसे घी है. तिल के भीतर जैसे तेल व्याप्त होता है वैसे ही देह के भीतर तुम्हारा परमात्मा है जो अनन्त शक्तियों का भण्डार है, धाम है, निधान है। कभी उस शक्ति को पहचाना? स्वर्ण पाषाण में सोना है ऐसा हर कोई नहीं जान पाता, जिसे उसकी परख होती है वही जानता है और जानने के बाद जब प्रयत्न करता है तब उसमें से उस सोने की अभिव्यक्ति होती है।

 

शक्ति की अभिव्यक्ति : तपस्या का बल

पहले शक्ति को पहचानो फिर उसके बाद उसे पाने के लिए, उसकी अभिव्यवक्ति के लिए पुरुषार्थ करो। पहचान के बाद पुरुषार्थ होता है। शक्ति को जानने वाला ही अभिव्यक्ति कर पाता है। इस स्वर्ण पाषाण में सोना है, इसे जो जानता है वह उसे तपाता है, गलाता है, जिससे उसकी किट्ट-कालिमा नष्ट होती है, उसके अन्दर की शुं समाप्त होता हैं तथा उसे भीतर का शुद्ध स्वर्ण प्रकट होता है।

 

सन्त कहते हैं इस शक्ति को तुम पहचानो। तुम्हारे भीतर सोना है पर अभी तुम सोने के पाषाण की भांति हो। सोने के पाषाण से सोने की अभिव्यक्ति करना ही हमारे जीवन का मूल लक्ष्य और ध्येय है। सच्चे अर्थों में यही साधना है, यही आराधना है। उस अभिव्यक्ति का साधन है तपस्या। जैसे सोने के ओर(स्वर्णपाषाण) को तपने पर उसके भतार का शुद्ध सोना निकलता है | वेसे ही तपस्या हमारी आत्मा की कुन्दन बना देती है, तपस्या से ही आत्मा परमात्मा बन पाता है। शक्ति को पहचानो। दूध में घी है, पर घी की अभिव्यक्ति कब होती है? अपने आप..? पता है दूध की बूंद-बूंद में घी समाहित है लेकिन दूध में रहने वाले घी की अभिव्यक्ति तब होती है जब दूध को जमाया जाता है, उसका मंथन किया जाता है, नवनीत निकाला जाता है और उसे तपाया जाता है तब कहीं जाकर दूध से घी निकलता है। तुम्हारे भीतर वह परमात्म तत्व है, देह के भीतर वह परमात्मा है पर उस परमात्मा की अभिव्यक्ति कब होगी? जब तुम साधना करोगे, साधना के बल पर अपनी आत्मा का अंथन-मंथन करोगे। उस अंथन-मंथन से जो नवनीत निकलेगा, उस अनुभूति के नवनीत को तपस्या की आंच में तपाओगे तब अपनी आत्मा को परमात्मा बना पाओगे।

 

ये अभिव्यक्ति है। जैसे दूध से घृत की अभिव्यक्ति उसकी प्रोसेस(प्रक्रिया) से होती है, सोने के ओर(स्वर्णपाषाण) से सोने की अभिव्यक्ति उसकी प्रक्रिया से होती है, तिल को घानी में पेलने से तेल निकलता है वैसे ही जब आत्मा साधना और आराधना के रास्ते पर चलता है तब उसके अंदर का परमात्मा प्रकट होता है। तुम परमात्मा हो लेकिन उसकी तुम्हें पहचान नहीं है। परमात्मा हो लेकिन भिखारी बनकर जी रहे हो, तुम्हें उसका पता नहीं। तुम्हारे भीतर की शक्ति क्या है, तुम्हें पता नहीं। शक्ति को पहचानो।

 

एक सेठ का बेटा पिता की मृत्यु को बाद गलत संगति का शिकार हो गया। व्यसन-बुराईयों में लिप्त होकर उसने अपनी सारी सम्पति का नाश कर दिया। सब कुछ खो दिया और स्थिति ऐसी हो गई कि वह दाने-दाने की मोहताज हो गया। एक दिन हारकर वह अपने पिता के मित्र के पास पहुँचा और कहा- मुझे कोई छोटी सी नौकरी दिला दें, अब जिन्दगी जीना मुहाल हो गया है, दाने-दाने के लिए मोहताज हो गया हूँ। उसने कहा- तुझे नौकरी करने की जरूरत नहीं है, तू आज भी करोड़पति है। अरे! चाचा! मजाक क्यों करते हो? सुबह खा लूँ तो शाम की जुगाड़ नहीं, शाम खा लें तो सुबह की जुगाड़ नहीं और आप कह रहे हो कि मैं आज भी करोड़पति हूँ। बेटे मैं तुझसे मजाक नहीं कर रहा हूँ, यथार्थ बता रहा हूँ।

 

लड़का बोला- मुझे आप की बात समझ में नहीं आ रही। चाचा ने कहाये तेरे गले में क्या है, उसके गले में तांबे का एक ताबीज था। तुमने यह ताबीज कब से पहना है, तुझे पता है? लड़का बोला- बचपन से पहना हुआ है, मुझे याद है एक दिन मेरे पिता ने मुझे पहनाया था। बोले बस, मैं तुझसे कहता हूँ अब तू इसको खोल दे। मोटा सा ताबीज था, पहले ताँबे का एक कवर निकला, ताँबे का कवर निकलने के बाद उसमें चाँदी का कवर निकला। बोला- इसको भी खोल फिर उसके ऊपर सोने का कवर था, बोला- इसकी भी खोल और जैसे ही सोने का कवर खोला तो उसके भीतर एक बेशकीमती हीरा पड़ा था। बोला- देख तेरे पिता ने तेरे गले में कितना मंहगा हीरा डाल रखा है और तू भिखारी बना हुआ है। पहचान तेरे पास क्या है। वह निहाल हो गया।

सन्त कहते हैं आज जितने लोग भी भिखारी बने हुए हैं और जो अपने दुखों का रोना होते हैं, जो अपने कष्टों का रोना रोते हैं, उन सब को समझने की जरूरत है कि तुम्हारे भीतर भी वह अनन्त उसका पता नहीं है, तुम्हें उसका ज्ञान नहीं है, उस पर अज्ञान का आवरण चढ़ा हुआ है, उस पर मिथ्यात्व का आवरण चढ़ा हुआ है, उस पर आसक्ति का आवरण चढ़ा हुआ है। ये आवरण जब तक नहीं हटाओगे तुम्हारे भीतर के उस तत्व की पहचान नहीं होगी। शक्ति को पहचानो, जो मनुष्य अपनी शक्ति को नहीं पहचानता वह कभी उसकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाता। तुम्हारे पास कितनी शक्ति है, इसका उदाहरण बताऊँ।

 

अभी यहाँ इस शिविर में बैठने वाले साठ-सत्तर लोग दस उपवास कर रहे हैं, दस दिन तक निराहार रहेंगे, कुछ लोग बत्तीस दिन तक भी निराहार उपवास कर रहे हैं। उनमें कुछ ऐसे भी लोग शुमार हैं जो एक घण्टे भी भूखे नहीं रह सकते। एक घंटे भूखा न रहने वाला व्यक्ति भी दस दिन तक और बत्तीस दिन तक निराहार रह सकता है। कहाँ से आई ये शक्ति? क्या हुआ, कहीं ऊपर से तो नहीं टपक रही? महाराज! आपके आशीर्वाद से शक्ति मिल गई।

 

अगर मेरे आशीर्वाद से शक्ति मिले तो मैं तो एक-एक को पकड़ कर शक्तिपात कर दूँ। किसी के आशीर्वाद से शक्ति नहीं मिलती, शक्ति तो तुम्हारे भीतर छुपी थी पर तुम्हें उसकी पहचान नहीं थी, तुम्हारा आत्मविश्वास कमजोर था, तुम्हें पता ही नहीं था कि मैं क्या कर सकता हूँ। तुम्हें उसकी पहचान हुई, आत्मविश्वास जागा, तुम तपस्या में निरत हो गए और अब उस शक्ति की अभिव्यक्ति हो रही है। सब कुछ सामान्य चल रहा है बल्कि आम दिनों से ज्यादा उत्साह और जोश है, सुबह तीन बजे से लेकर रात के नौ बजे तक की ये अलविया का पाल कनेक शतकों से आई गुन्दे कहते हैं

 

तन मिला तुम तप करो करो कर्म का नाश |

रवि शशि से भी अधिक है तुममें दिव्य प्रकाश ||

ये तन मिला है, इसके भीतर की शक्ति को पहचानो, इन्द्रियों का नियन्त्रण करो। ये तन तुम्हें भोगों का नाश करने के लिए मिला है, भोगों में रत रहने के लिए नहीं, कर्म का नाश करो। शक्ति को पहचानोगे, उसकी अभिव्यक्ति में लगोगे तो जीवन में कोई समस्या नहीं रहेगी और तपस्या बहुत सहज हो जाएगी, फिर कुछ कहने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी।

 

एक व्यक्ति है जो तन को रात-दिन पीसने में लगा है, जो ये कहता है- मुझसे कुछ किया नहीं जाता, मुझसे कुछ ही नहीं सकता, मैं कुछ कर नहीं सकता, न भूख सहन हो सकती, न प्यास सहन हो सकती, न सदीं सहन कर सकता, न गर्मी सहन कर सकता, मैं कोई तपस्या-वपस्या नहीं कर सकता और एक व्यक्ति वह है जो शरीर को पाकर कठोर तपस्या करते हुए भी चौबीस घण्टे प्रसन्न है। आपके शिविर में एक माताजी आई हैं ललितपुर से, पाँच-छ: हजार उपवास कर चुकी हैं, उनके खाने के दिन कम और उपवास के दिन ज्यादा है। माता एक बार खड़े हो जाओ, तुम्हारे दर्शन करके लोग धन्य हो जाएँ। ये माता हैं इनको देखो, इनके चेहरे का तेज देखो, एक बार अभिनंदन तो करो। सत्तर-बहत्तर साल की उम्र और अपने जीवन में लगातार दो दिन भोजन नहीं करतीं, दो दिन उपवास हो जाता है। कल्पना कर सकते हैं? अभी बारह-तेरह उपवास के बाद पारणा करेंगी और वह भी अपने हाथ से बनाकर, दूसरों के हाथ से नहीं। हाड़-माँस तो वही है, जो हमारा-तुम्हारा है, सबका एक है लेकिन फिर भी इतनी शक्ति। शक्ति को पहचानो, आसक्ति को छोड़ो तब तुम उसकी अभिव्यक्ति के लिए तपस्या कर सकोगे। कुछ लोग हैं जिनको अपनी शक्ति की पहचान नहीं होती। जिन्हें शक्ति की पहचान नहीं होती वे कुछ कर नहीं सकते।

 

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें शक्ति की पहचान तो होती है पर आसक्ति इतनी होती है कि कुछ कर नहीं सकते। जब तक शरीर में आसक्ति होगी, तपस्या के नाम पर कपकपी आएगी, साधना कर ही नहीं सकते। आसक्ति मनुष्य को रोकती है, अवरोध पैदा करती है। उस शक्ति पर आसक्ति ने आवरण डाल रखा है, कुछ कर ही नहीं सकते, कैसे करेंगे? आसक्ति क्षीण होगी, विरक्ति का भाव होगा, विकृति का शोधन करोगे तब आत्मा की प्रकृति को प्राप्त कर सकोगे।

 

प्रकृति की प्राप्ति : देहालय में मस्ती की स्थापना

आज के चार शब्द साथ-साथ जोड़ लो। आसक्ति, विरक्ति, विकृति और प्रकृति। आसक्ति रोकती है, अवरोध पैदा करती है, विरक्ति प्रोत्साहित करती है, आगे बढ़ाती है। जब मनुष्य अपनी आसक्ति को मंद करता है तो भीतर में विरक्ति के संस्कार जगते हैं, विरक्ति के भाव बढ़ते हैं, आसक्ति मंद होती है और ऐसा व्यक्ति अपनी विकृतियों के शोधन में तत्पर हो जाता है, तब अपनी स्वाभाविक प्रकृति को प्राप्त कर पाता है। आसक्ति रोकती है, शक्ति के ऊपर आसक्ति हावी होने के बाद कुछ नहीं किया जा सकता।

 

सुकुमाल मुनि का जीवन याद करो, जिन्हें सरसों का दाना भी चुभता था। सरसों का दाना जिन्हें चुभा करता था उन्हें श्यालिनी के दंश नहीं चुभे। तीन दिनों तक श्यालिनी अपने दो बच्चों के साथ जिन्हें खाती रही, कमर तक खा लिया लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं किया। क्या शरीर बदल गया? सहनन बदल गया? क्या बदला? जब तक देह के प्रति आसक्ति थी तो सरसों का दाना भी चुभन पैदा करता था और देह से विरक्ति हो गई तो श्यालिनी के दंश तक नहीं चुभ सके, इतनी स्थिरता आ गई।

 

बन्धुओं! मैं आप से भी कहता हूँ जब तक आसक्ति में जिओगे, रोते रहोगे और जब विरक्ति आएगी तो हँसना सीख जाओगे। ये शरीर है। शरीर को पाकर एक व्यक्ति अपने शरीर के पोषण में लगा रहता है, उसी में रत रहकर अपने संसार को बढ़ाता है और एक व्यक्ति उसी शरीर के माध्यम से संसार को पार कर लेता है, दृष्टि का खेल है। आसक्ति होगी तो संसार में घूमोगे, विरक्ति होगी तो संसार से पार हो जाओगे।

 

येनैव देहेन विवेकहीनाः संसारबीज परिपोषयन्ति।

तेनैव देहेन विवेकभाजः संसारबीजं परिशोषयन्ति॥

विवेकहीन व्यक्ति जिस काया को पाकर संस्कार को बीज का संसार के बीज का शोषण करते हैं। एक संसार को पुष्ट करता है और एक संसार को सुखा डालता है। दृष्टि क्या है? विवेक जगाओ।

 

काना पौड़ा पड़ा हाथ यह चूसे तो रोवै |

फलै अनन्त जु धर्मध्यान की भूमि विषै बोवै ||

इस शरीर को पौड़े की उपमा दी है। पौड़ा बोलते हैं गन्ने को। गन्ने में एक काना पौड़ा होता है जिसमें कोई रस नहीं होता, रेसे होते हैं, उसको चूसो तो मसूड़े और छिल जाते है पर हासिल कुछ भी नहीं होता। यदि उसी पौड़े को जमीन में बो दिया जाए तो वह बीज का काम करता है, उससे सरस गन्ना प्रकट हो जाता है। कवि कहता है- ये शरीर काने पौड़े की तरह है, इसका भोग करोगे तो दुखी होने के सिवाय कुछ भी नहीं होगा, 'चूसे तो रोवै'- इस शरीर का जितना भोग करोगे उतना दुख होगा और 'फले अनंत जु धर्म ध्यान की भूमि विषै बोवै'- इस शरीर को धर्म ध्यान में लगा दोगे तो कैवल्य का आनंद फल प्राप्त कर लोगे। इसलिए बन्धुओ! इस शरीर का उपयोग करो, उपभोग नहीं। ये शरीर कड़वी तुम्बी के समान है। कड़वी तुम्बी को खाओगे तो फूड पॉइंजन(बीमारी) हो जाएगी और चाहो तो उसी तुम्बी के सहारे उफनती नदी को भी पार किया जा सकता है। इसी प्रकार इस शरीर का उपभोग करोगे तो मर जाओगे और उपयोग करोगे तो तर जाओगे। अपनी शक्ति की पहचानें, उसकी अभिव्यक्ति करें तो हमारा जीवन आगे बढ़ेगा। आसक्ति अभिव्यक्ति में बाधा बनती है।

 

एक शहर में बहुत सुंदर मंदिर था। उस भव्य मंदिर में मूल प्रतिमा को ठीक सामने एक स्तम्भ(खम्भा) था। एक दिन दोपहर को समय जब मंदिर में कोई नहीं था तब मूल प्रतिमा के सामने खड़े स्तम्भ ने प्रतिमा से कहा- अरी बहिन! देखो न लोगों का पक्षपात, तेरी-मेरी जाति एक अंश एक, वंश एक, जहाँ तू पैदा हुई वहाँ मैं पैदा हुआ, जिस खान से मैं निकला उसी से तू निकली लेकिन फिर भी देख न लोगों का कैसा पक्षपात है, जो आता है तुझे शीश नवाता है, तेरी पूजा करता है, आरती उतारता है पर मुझे पूजा करने, प्रणाम करने, आरती करने की तो बात तो दूर, जो आता है वह मुझसे टिककर बैठ जाता है ये कैसा पक्षपात है।

 

खम्भे की पीड़ा सुनकर प्रतिमा मुस्कुराई और उसने खम्भे को सम्बोधते हुए कहा- भईया! तुम्हारी इस उपेक्षा से मुझे भी अच्छा नहीं लगता, तुम्हारे प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है लेकिन मैं एक बात निवेदन करना चाहती हूँ। बोले क्या? इसमें कसूर तुम्हारा है, किसी का पक्षपात नहीं। प्रतिमा की बात सुनकर खम्भा तिलमिला गया। इसमें मेरा क्या कसूर? ये सरासर पक्षपात नहीं तो क्या है?

 

प्रतिमा ने कहा- भईया! इतने आवेश में मत आओ। तुम्हें ये दिखता है कि लोग मेरी पूजा करते हैं, आरती उतारते हैं, वन्दना करते हैं पर क्या तुम्हें ये पता है कि यहाँ तक पहुँचने के पीछे मैंने क्या-क्या सहा है? तुम उस दिन को भूल गए जिस दिन शिल्पी आया था और हमें अपने परिजनों से अलग करने की चेष्टा की थी। कितने हथौड़ों और घनों का प्रहार किया था याद है? एक बारगी तो मैं भी काँप गई थी पर तभी मैंने शिल्पी की आँखों में देखा तो मुझे लगा कि उसकी आँखों में बहुत प्यार है, वह मेरे भीतर कुछ अलग तैयार करना चाहता है, मैंने अपने आप को समर्पित कर दिया। उसने मुझे वहाँ से उठाकर अपनी कार्यशाला मे पटक दिया, मुझे लगा- हे भगवान! अब क्या होगा? फिर उसने मेरी छाती पर चढ़कर मेरे ऊपर छेनी और हथौड़ियों का लगातार प्रहार करना शुरु कर दिया, मेरा जी घबराया, मैंने फिर शिल्पी की आँखों में देखा तो उसमें वही प्यार उमड़ रहा था। तब मुझे लगा कि नहीं, ये शिल्पी मेरे भीतर कुछ घटित करना चाहता है, मुझे कोई सुन्दर आकार देना चाहता है। मैंने अपने आप को पूरी तरह समर्पित कर दिया। शिल्पी ने मुझे तरासना शुरु किया, मेरे अंदर के अवांछित और गलत तत्वों को उसने तरासकर अलग करना शुरु कर दिया और ज्यों ही उसने मुझे तरासना शुरु किया मेरे भीतर आकार बनना शुरु हो गया। तरासते-तरासते जब मेरे भीतर का अन्तिम अवांछित तत्व भी हट गया तो मेरे भीतर इस प्रतिमा का आकार बन गया। और अधिक मैं क्या कहूँ, जैसे ही मैं इस रूप में प्रकट हुई सबसे पहले उसी शिल्पी ने मुझे प्रणाम किया। पर उस दिन तुमने चलने से इंकार दिया। काश! तुम मेरे साथ आते तो तुम भी मेरी जगह समान स्थान पाते लेकिन उस दिन तुम वहीं रह गए इसलिए आज तुम्हारी दुर्दशा हो रही है।

 

बंधुओं! मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ संसार में दो तरह के प्राणी हैं- एक वे जो प्रतिमा की तरह पूजे जाने योग्य होते हैं और दूसरे वे जो खम्भे की तरह हमेशा खड़े रहते हैं। अपने भीतर झांककर देखो, तुम्हारा जीवन खम्भे जैसा है या प्रतिमा जैसा है? खम्भे को प्रतिमा बनाना है तो उसके लिए तुम्हें तपस्या करनी होगी, साधना करनी होगी, आराधना करनी होगी। अपने आपको निखारो, अपने भीतर की विकृतियों का शोधन करो। तुम्हारे भीतर के विकारों का जितना शमन होगा, जीवन में उतना निखार आएगा।

 

बंधुओं! शक्ति, आसक्ति, विकृति और प्रकृति को साथ-साथ लेकर चलो। अपने लक्ष्य, प्रकृति तक जाना है तो अपनी शक्ति को पहचानी और उसकी अभिव्यक्ति का प्रयत्न करो। अभिव्यक्ति के प्रयत्न में सबसे बड़ी समस्या है हमारे भीतर का अज्ञान, हमारे भीतर का मोह, हमारे भीतर पलने वाली आसक्ति जो कुछ करने नहीं देती, उसका निवारण हो तो जीवन में कहीं कोई कठिनाई नहीं। तपस्या करने के लिए आसक्ति समस्या है, अज्ञान समस्या है। इस अज्ञान और आसक्ति से अपने आप को मुक्त करोगे तो तुम्हारा चित्त तप से निरत हो जाएगा। अपने जीवन को मोड़ सकते हो, उधर से मोड़ो।

 

अपने अंदर की विकृति का शमन करना चाहते हो तो तपस्या करो, अपने भीतर के विकारों का शमन करना चाहते हो तो तपस्या करो और जीवन की समस्याओं का समाधान पाना चाहते हो तो तपस्या करो। आज मैं आप से कौन-सी तपस्या की बात करूं? उपवास करने की, ऊनोदर करने की, रस छोड़कर भोजन करने की, विविक्त शैय्यासन की, एकान्त में ध्यान लगाने की, शारीरिक कष्टों को सहन करने की? कौन सी तपस्या की बात करूं? अगर इस तरह की तपस्या की बात करूं तो कहोगे महाराज! हमारे वश में नहीं है। ये मुँह से कहते हो, तुम्हारे वश में क्या है तुम्हें पता नहीं। तुम्हारे वश में क्या है, इस बात का अंदाजा तो केवल इससे लगाया जा सकता है कि आधा किलोमीटर चलने में असमर्थ व्यक्ति जब सम्मेद शिखर जाता है तो सताईस कि.मी. की यात्रा कैसे कर लेता है?

 

नौ किलोमीटर की पहाड़ी चढ़ते हो, नौ कि.मी. की वंदना करते हो फिर नौ कि.मी. उतरते हो, कहाँ से आती है शक्ति? वह वंदना कौन कराता है तुम्हारे पैर? पैर नहीं इरादे, तुम्हारी आस्था, तुम्हारी श्रद्धा। जिस दिन तुम्हारे मन में ये बात आ जाएगी उस दिन बड़ी से बड़ी तपस्या तुम्हारे लिए अति सामान्य बन जाएगी। चलिए आज मैं आप से उस तपस्या की बात नहीं करता जिसमें आप को कुछ छोड़ना पड़े। मैं आपको एक बहुत अच्छी तपस्या बताता हूँ जिसमें आपको कुछ नहीं छोड़ना पड़ेगा, खा-पीकर तपस्या करो। ऐसी कौन सी तपस्या है जो खा-पीकर की जाती है?

 

समस्या ही समाधान है, समाधान का रास्ता है तपस्या

सन्त कहते हैं जब भी जीवन को समस्या से ग्रसित पाओ, तपस्या करो। सच्चे अर्थों में समस्या का समाधान ही तपस्या है। क्या कह रहा हूँ? समस्या का समाधान ही तपस्या है। चलिए पहले समस्या देखें फिर उसका समाधान देखें, तपस्या अपने आप समझ में आ जाएगी। यदि आपके जीवन में कोई समस्या है तो आज सबका समाधान कर दूँगा। तप का दिन है, बोलो किसको क्या समस्या है? तुम्हारी समस्या कैसी भी हो हमसे ट्रीटमेन्ट(इलाज) लोगे तो समाधान लेकर ही जाओगे। बताओ क्या समस्या है? चलो अब तुम्हारी समस्या भी मैं ही बता देता हूँ। तुम लोग तो सब सामने वालों से ही कराना चाहते हो, खुद नहीं करना चाहते।

 

समस्या है- मन में उद्वेग, आवेग, अशान्ति। मन में कभी उद्वेग आए, आवेग आए, अशान्ति आए तो मन खिन्न हो उठता है, समस्याग्रस्त हो जाता है। ये उद्वेग, आवेग, अशान्ति क्यों आती है? जीवन में कभी अनुकूल संयोग होते हैं, कभी प्रतिकूल संयोग होते हैं। अनुकूल संयोग होते हैं तो मन खुश रहता है, प्रतिकूल संयोग होते हैं तो मन खिन्न हो जाता है। कभी विषयों की लालसा मन में जागती हैं, उसे पा लेते हैं तो कुछ देर के लिए थोड़ी खुशी होती है और जब नहीं पा पाते हैं तो मन खिन्न हो उठता है। जो हम चाहते है वह मिल जाता है तो मन प्रसन्न होता है, नहीं मिलता है तो मन खिन्न होता है। संयोगो की अनुकूलता का न बन पाना एक बड़ी समस्या है, प्रतिकूल संयोगों का आ जाना एक बड़ी समस्या है, मन पर तनाव का हावी हो जाना एक बड़ी समस्या है और चित्त में चिंता का हावी हो जाना एक बड़ी समस्या है। सारी समस्याएँ इनमें समाहित हैं। अनुकूल संयोगों का अभाव होना, प्रतिकूल संयोगों का जुड़ जाना, मन में तनाव आ जाना, चित्त में चिन्ता का आना आपकी समस्या है।

 

समस्याएँ दो प्रकार की हैं- शारीरिक समस्याएँ और मानसिक समस्याएँ। शारीरिक समस्या, समस्या नहीं है; असली समस्या मानसिक समस्या है। मैं आपसे कहता हूँ इस सारी समस्या का समाधान तपस्या है। कैसे? हमारे यहाँ तीन प्रकार के तप बताए हैं। महराज! हमने तो बारह तप सुने हैं। बारह तप भी हैं; मैं आपसे इन तपों से भिन्न बात करना चाहता हूँ। तप तीन प्रकार के हैं- 1. शारीरिक तप 2. वाचिक तप और 3. मानसिक तप। व्रत करना, त्याग करना,

 

उपवास करना तपस्या करना आदि ये सब शारीरिक तप है। मैंने आपको छुट्टी दी तुमसे शारीरिक तप नहीं बनता तो मत करो। वाचिक तप करो। वाचिक तप मतलब वाक-संयम। तुमसे कोई अपशब्द बोले तो उस समय मौन रख ली; तपस्या हुई कि नहीं हुई? आप उपवास तो कर सकते ही पर किसी की बात की बरदाश्त (सहन) नहीं कर सकते। भोजन छोड़ना सरल है पर किसी के दुर्वचन को सहना बहुत कठिन है।

 

सन्त कहते हैं ये तपस्या है। इस तपस्या से समस्या का समाधान है क्योंकि किसी ने आपसे अपशब्द कहा, उस अपशब्द ने आपके दिमाग में चक्कर काटना शुरु कर दिया, सौ प्रकार के विकल्प आने लगे, टेंशन हो गया, उसने मुझे ऐसा बोल दिया। उसने मुझे अपमानित कर दिया, वह मुझे नीचा दिखाने की सोचता है, देखता हूँ, बड़ी औकात बढ़ गई है उसकी। अच्छा! उसने मुझे गधा कह दिया, मुझे गधा कहता है, बहुत भाव बढ़ गए हैं, एक दिन में धूल चटा दूँगा। ऐसी पटकनी दूँगा कि उठ नहीं पाएगा; मुझे गधा कहता है। सामने वाले ने एक बार गधा कहा और तुमने खुद को कितनी बार गधा बना दिया? जैसे शान्त सरोवर में किसी ने एक ककड़ फेंका और वह ककड़ वलय दर वलय बनाते-बनाते पूरे सरोवर को घेर लेता है। तुम्हारे कान में एक शब्द पड़ा, तुम उसे पकड़कर बैठ गए और उसने तुम्हें नीचे से ऊपर तक हिला दिया। अशान्त बना दिया, उद्विग्न बना दिया, खिन्न बना दिया। यदि तुमने उस समय ये सोच लिया कि मुझे वाचिक तप करना है, कोई मुझे कुछ भी बोल दे लेकिन मुझे कोई भी उल्टी प्रतिक्रिया नहीं करना है, हँसकर टालना है। बोलो! इसमें कोई कठिनाई है।

 

आज से नियम ले लो, अब मुझे कोई गाली भी देगा तो मैं कुछ नहीं बोलूँगा। कितने लोग इस सभा में हैं जो ये नियम लेने के लिए तैयार है? ये तपस्या के लिए एक अवसर है। ध्यान रखो! एकदिन गुरुदेव ने बहुत अच्छी बात कही थी– “प्रतिकूल प्रसंगो को समता से सहना बहुत बड़ी तपस्या है।” ध्यान से सुनो- "प्रतिकूल प्रसंगों को समता से सहना बहुत बड़ी तपस्या है।” सच्चे अर्थों में समता ही सबसे बड़ी तपस्या है। गुरुदेव ने लिखा-

 

मासोपवास करना, तन को सुखाना,

आतापनादि तपना, तन को तपाना।

सिदद्वान्त का मनन, चिन्तन औ मौन धरना

ये व्यर्थ हैं श्रमण के बिन साम्य पाना।

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तुम्हारे मन में समता नहीं तो तुम कितना कायक्लेश करो, कितना व्रत-उपवास करो, कितना अध्ययन करो, कितना मौन करो, ये सब व्यर्थ हैं यदि समता नहीं है। समता मूल है।

 

एक बार की बात; हम लोग विहार कर रहे थे। विहार के क्रम में कई बार कच्चे रास्तों से जाना होता है। कई बार लोग गलत सूचनाएँ भी दे देते हैं। अठारह मील का अठारह किलोमीटर बता दिया, और उस पर भी दो पहाड़ी चढ़नी थी। एक पहाड़ी चढ़ो, उतरो, फिर दूसरी पहाड़ी चढ़ो, उतरो फिर उसके बाद चलना था, सड़क भी बहुत खराब, चुभने वाली। अब क्या हुआ? इतनी थकानभरी यात्रा में पैदल चलना। सब लोगों ने उस व्यक्ति को कोसना शुरु कर दिया जिसने रास्ता बताया था। उनमें हम लोग भी शामिल थे। अरे! कैसा रास्ता बता दिया, कितनी परेशानी हुई। उस दिन पूरा संघ तितर-बितर हो गया। सात स्थानों पर पहुँचा, तय स्थान तक कोई नहीं पहुँच पाया।

 

हम सात साधु आचार्य महाराज को साथ; जिस जगह पहुँचना था वहाँ से तीन किलोमीटर पहले एक स्कूल में रुके। शाम हो गई थी, फरवरी का महीना था, शीतलहर तेज चल रही थी। सरकारी स्कूल था, खप्पर वाला, चौड़े वाले खप्पर (इंग्लिश खप्पर) लगे हुए थे जिनमें से पाँच-सात खप्पर गोल थे (नहीं थे)। खिड़की, रोशनदान वगैरह में भी बन्द करने के साधन नहीं लगे हुए थे, दरवाजे भी सरकारी ही थे। सांय-सांय हवा आ रही थी। सभी सात साधु बिना चटाई वाले और ऐसे ही रात काटनी थी। ठण्ड भी बहुत लग रही थी।

 

हमारे साथ के एक-दो साधुओं ने कहा- आज तो परेड हो गई, खूब चलवा दिया, कैसा रास्ता बताया आदि-आदि उसको कोस रहे थे। आचार्य महाराज ने कहा- उसको कोसो मत; उसको धन्यवाद दो कि उसने तुम्हें तपस्या करने की अनुकूलता प्रदान कर दी, कर्म-निर्जरा का अवसर दे दिया। है इतना माद्दा तुम्हारे भीतर कि कोई तुम्हें गलत कहे और तुम उसे अच्छी नजर से देख सको वाचिक संयम लाओ। कह दिया, चलो कह दिया, ये मेरी कर्म निर्जरा का कारण हो गया। बरदाश्त कर ली, तपस्या हो गई। ऐसी तपस्या यदि तुम लोग कर लोगे तो तुम्हारे घर में कोई समस्या ही नहीं होगी।

 

मन का संयम : प्रसन्नता का सूर्योदय

रोज घरों में महाभारत क्यों छिड़ता है? इसी कारण से। वाणी के असंयम के कारण, एक दूसरे के वचनों को बरदाश्त न करने के कारण। बड़ी समस्या बन जाती है। मैं आपसे कह रहा हूँ छोटी सी तपस्या कर ली, सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। बोली समाधान का नुस्खा जाँचा कि नहीं जैंचा? अच्छा लगा हो तो एक बार ताली तो बजा दो (तालियों की गड़गड़ाहट)। अरे! इतनी बड़ी समस्या का समाधान बता दिया और तुम्हारी कोई प्रतिक्रिया ही नहीं। अरे! हमसे संवाद तो जुड़ा रहना चाहिए। महाराज! हम तो सुनते हैं जितनी देर आप सुना दो, यहाँ से जाने के बाद सब मामला साफ। वाणी के संयम में कुछ नहीं लगना है खा-पीकर तपस्या करना है।

 

मन का संयम। मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, मन का निग्रह और अन्त:करण के भावों की भलीभाँति पवित्रता -इस प्रकार यह मनसम्बन्धी तप है।

 

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।

मन को प्रसन्न रखना, मन को खिन्न नहीं होने देना। कितनी ही प्रतिकूलता आए, मन में समता। अनुकूल संयोग न रहें, मन में समता रख सकते हैं आप? कुछ भी प्रतिकूल हो, दस मिनट आपका पंखा बन्द हो जाए, बरदाश्त कर पाते हो? यहाँ तो कर लेते हैं, घर में नहीं होता। प्रतिकूल संयोग को सहन करो। कैसे? तत्वज्ञान के माध्यम से। क्या भावना रखो? क्या धारणा रखो? संसार के सारे संयोग मेरे अधीन नहीं, मेरे कमों के अधीन हैं। ये हकीकत है कि नहीं बोलो? तुम्हारी तिजोरी की चाबी तुम्हारे पास है पर तुम्हारी किस्मत की कुछ पता नहीं। किस्मत कब खुलेगी और कब बन्द हो जाएगी पता नहीं। कब तुम्हारे साथ अनुकूल संयोग घटेंगे और कब प्रतिकूल संयोग बन जाएँगे; तुम्हें इसका कोई पता नहीं। ये सच्चाई है जीवन की। तो फिर परेशान क्यों होते हो? खुल जाए तो भी आनन्द और बन्द हो जाए तो भी आनन्द। तपस्या है ये। कर्म-सिद्धान्त पर भरोसा रखो। अनुकूल का भी स्वागत करो, प्रतिकूल का भी स्वागत करो। अच्छे का भी साथ दो, बुरे को भी स्वीकार करो। कर सकते हो? महाराज! अच्छे में तो बहुत अच्छा लगता है पर बुरा आता है तो बुरा लगने लगता है। आप तो कुछ ऐसा बताओ कि बुरा आए ही नहीं।

 

ध्यान रखो! सन्त कहते हैं बुरा न आए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं, लेकिन बुरा भी तुम्हें अच्छा लगने लगे, ऐसी व्यवस्था है। बुरे को टालने की ताकत धर्म के पास नहीं पर बुरे को अच्छा बनाने की सामथ्र्य धर्म के पास है। यदि अपना चिन्तन बदल लो तो बुरा भी अच्छा लगेगा। एक उदाहरण देता हूँ। आपके घर में कई मेहमान आते हैं, आप सबका स्वागत करते हो। उदाहरण के लिए बताऊँ घर में जमाई (दामाद) आता है, और घर में चाचा भी आते हैं। जिस दिन जमाई आता है उस दिन टेंशन आता है कि नहीं आता? आता है। जिस दिन जमाई आता है उस दिन आपको अतिरिक्त तैयारी करनी पड़ती है। चार प्रकार की मिठाईयाँ बनानी पड़ती हैं, पाँच प्रकार की सब्जियाँ बनानी पड़ती हैं, उसके स्वागत-सत्कार की व्यवस्था करनी पड़ती है और जाते समय टीका लगाकर कुछ भेंट भी देना पड़ता है। जमाई है ही ऐसा। जमाई के लिए एक कवि ने लिखा

 

सदा वक्रः सदा क्र्कूरः सदा मानधनापहः।

कन्याराशिस्थितो नित्यं जामाता दशमो ग्रहः॥

नौ ग्रहों का नाम तो आपने सुना है। दसवाँ ग्रह है जमाई। उसका स्वभाव भी समझ लो। हमेशा वक्री रहता है, हमेशा क्रूर रहता है, हमेशा मान और धन को हरने वाला होता है और हमेशा कन्या राशि में बैठा रहता है। जमाई आता है तो आप इस प्रकार उसका स्वागत करते हो और घर में चाचा आएँ तो चाचा के आने पर आपको कुछ करना पड़ता है? कुछ नहीं। घर की जो सामान्य प्रक्रिया है वही खिला दो-पिला दी। चाचा एडजस्ट हो गए, आराम से चले जाते हैं और जाते समय कुछ देकर जाते हैं। जमाई लेकर जाता है और चाचा देकर जाते हैं। स्वागत दोनों का आप करते हैं। मैं आपसे यही कहता हूँ जब दु:ख आए तो समझ लो जमाई आया और जब सुख आए तो समझ लो चाचा आए।

 

स्वागत करो। सबका स्वागत करो। मन में खेद-खिन्नता आएगी ही नहीं। यही तपस्या है। सन्त कहते हैं जो मनुष्य अपनी स्थिति से सन्तुष्ट नहीं वह कभी सुखी नहीं हो सकता और जो अपनी स्थिति से सन्तुष्ट है वह कभी दु:खी नहीं हो सकता। कोई भी समस्या शेष नहीं रहेगी। समाधान ही समाधान है। ये तपस्या है। व्रत-उपवास कर लेना सहज है पर ऐसे समय में अपने मन को समाधान देना बहुत कठिन है। यदि तुमने ऐसा कर लिया तो सब हो गया।

 

तपस्या का फल : तनाव मुक्त जीवन

तपस्या उसे कहते हैं जिससे कर्म की निर्जरा हो। तपस्या को कर्म की निर्जरा का साधन कहा। ‘तपसा कम्मं णिरज्जड़'। तपस्या से कर्म झड़ता है। आपने कभी कर्म को झड़ते हुए देखा? बोलो! उपवास करने वालों! कितने कर्म झड़ाए? निश्चित कर्म झड़ते हैं लेकिन कर्म झड़े इसकी पहचान क्या? मेरी भावदशा में अन्तर। जब भी कोई अशुभ संयोग आए सोचो मेरी कर्मनिर्जरा का समय आ गया। समता भाव रखेंगा तो कर्म झड़ जाएँगे, ये परिस्थितियाँ अपने आप बदल जाएँगी। मेरी मन:स्थिति शान्त हो जाएगी जीवन धन्य हो जाएगा। कर्म निर्जरा हो गई। समता से कमों की निर्जरा होती है। और जिससे निर्जरा होती है उसी का नाम तपस्या है। समस्या का निवारण किसमें है? तपस्या में है। आज से समस्या की बात करोगे कि तपस्या की बात करोगे? आज से तपस्या करना शुरु कर दो। कोई भी प्रतिकूल प्रसंग आएगा उसको समता से मैं सहूँगा। जीवन में कैसी भी विषमता आए समता से स्वीकार करो। जो तत्वज्ञानी होता है वह सहज भाव से स्वीकार कर लेता है। कितने भी उतार-चढ़ाव आ जाएँ लेकिन विचलित नहीं होता।

 

देखो! धर्मात्माओं के जीवन में कैसी भी विपत्ति आई लेकिन वे टस से मस नहीं हुए। हम जहाँ हैं वहीं रहेंगे, हटेंगे नहीं ये धर्मात्मा की पहचान है। बात आप समझ रहे हैं तो अपने जीवन में कितना भी बड़ा झंझावात आ जाए कभी हिर.ना नही, घबराना नहीं। कर्म का उदय है स्वीकार करेंगे। प्रतिकूल संयोग मिलने पर समता, अनुकूल संयोग मिटने पर समता। अनिष्ट के संयोग में समता, इष्ट के वियोग में समता। चक्र है, चल रहा है, चलने दो मैं तो उसका एक पार्ट (हिस्सा/भाग) हूँ। यह मेरे हाथ में नहीं।

 

मैं आपसे एक सवाल पूछता हूँ - आप किसी के घर गए। उसके घर में कुछ चीजें आपको अव्यवस्थित दिखीं। किसी के घर में अव्यवस्थित चीजें देखकर आपके मन में कुछ होता है क्या? ऐसा व्यक्ति है जिसकी चीजें अव्यवस्थित हैं उससे आपको क्या करना है। जीवन में भी ऐसे ही चलना चाहिए। एक परिवार की बात मैं बता रहा हूँ। एक सज्जन ने मुझे बताया- उनके घर में एक एम.बी. ए. पढ़ा हुआ लड़का था लेकिन उसका कमरा एकदम अव्यवस्थित। अच्छा पैकेज पाने वाले, एक बड़ी कम्पनी में बड़े पद पर काम करने वाले युवा का कमरा एकदम अव्यवस्थित। इस कारण कोई लड़की वाले आएँ तो उसे पसन्द न करें। वह सज्जन उनके परिचित थे उन्होंने कहा भाई! उसे कुछ समझाओ, लड़का माने तो कुछ रास्ता निकले। लड़के के कमरे में गए तो वहाँ हर चीज अव्यवस्थित देखकर लड़के से कहा- भैया! हर चीज व्यवस्थित होना चाहिए, व्यवस्थित जिन्दगी जीना चाहिए। उन्होंने कहा महाराज जी! उस लड़के ने मुझे बहुत बड़ा बोध दे दिया। उसने दरवाजा खोला और दरवाजे के पीछे तरफ ओट में लिखा हुआ था दिस इज माय रूम, यू लव इट और लीव इट (यह मेरा कमरा है आप चाहें तो इसे प्यार करें चाहें तो इसे छोड़ दें)। यह मेरा कमरा है आप इसे प्यार करो या छोड़ो, मैं जैसे चाहूँगा वैसे रहूँगा। वह सज्जन वापिस आ गए कि इसके कमरे पर मेरा कोई नियन्त्रण नहीं यह जैसे चाहेगा वैसे रहेगा।

 

यह कर्म का संसार है, इसमें मेरा कोई रोल (भूमिका) नहीं, वह जैसा चाहे रहे, जैसा चाहे रखे। ऐसी दृष्टि अपने भीतर विकसित कर लो। तुम्हारे हाथ में कुछ है ही नहीं। तुम जिस चीज को जैसा मैन्टेन करना (बनाए रखना) चाहो, वैसा हो ही नहीं सकता। कर्म जैसे करोगे फल भी वैसे ही मिलेंगे और कर्म जैसा चाहेगा तुम्हें वैसा नचाएगा। जिस दिन इस बात पर विश्वास हो जाएगा जीवन धन्य हो जाएगा।

 

मन में तनाव और चिन्ता, इससे अपने आपको मुक्त कर लेना एक तपस्या है। तनाव क्यों आता है? आजकल तो तनाव, टेंशन एक बहुत बड़ी समस्या है। महामारी बन गई है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक। आठ साल का बच्चा हो या साठ साल का वृद्ध; सबको टेंशन है। बच्चों को शुरु से अपने पेपर के माक्र्स (अंको) की टेंशन हो जाती है, बड़ी को अपनी नौकरी-पेशे, व्यापार का टेंशन, बच्चों के विवाह का टेंशन और बूढ़ों को अपने बुढ़ापे का टेंशन। आदमी टेंशन में जन्मता है, टेंशन में ही मरता है और जितने दिन जीता है उतने दिन टेंशन में ही रहता है।

 

ये तनाव क्यों आता है? कभी आपने विचार किया? परिस्थिति और मन:स्थिति के बीच जब असन्तुलन होता है तभी तनाव आता है। परिस्थितियाँ कुछ होती हैं, मन:स्थिति कुछ होती है, हम चाहते कुछ हैं और होता कुछ है, तो तनाव हो जाता है। मन के विरुद्ध हुआ, मन कुछ सोच रहा है, मन कुछ चाह रहा है और हो कुछ रहा है तो तनाव हो रहा है। सन्त कहते हैं अपने मन को प्रसन्न रखो क्योंकि मन के अनुकूल होगा ही नहीं। मनोऽनुकूल सब कुछ घटे ये शक्ति तुम्हारे पास नहीं है पर जो कुछ भी घटे उसे मनोऽनुकूल बना लेने की शक्ति तुम्हारे पास है। जो घट जाए, मन को उसके अनुकूल बना ली, उसे स्वीकार कर ली कर्म के उदय के रूप में। कर्म सिद्धान्त के ऊपर विश्वास करके। तुम्हारे जीवन की बड़ी तपस्या हो जाएगी। यदि ऐसी तपस्या करोगे तो न तनाव होगा, न चिन्ता होगी, नकारात्मक कुछ भी नहीं होगा। बस जीवन में निश्चिन्तता और आनन्द की अनुभूति होगी। ये एक ऐसी तपस्या है जिसमें कोई समस्या नहीं है।

 

बन्धुओ! अपने मन को प्रसन्न रखें, सौम्य भाव रखें, पवित्रता को अपने हृदय में विकसित करें, इन्द्रियों का निग्रह करें, अपनी विषयों की आसक्ति को नियन्त्रित करें, इच्छाओं का शमन करें -ये सब तपस्या है। ऐसी तपस्या सबके जीवन में प्रकट हो तो फिर कोई समस्या शेष नहीं रहेगी, हमारे जीवन का निश्चयत: उद्धार होगा। आज तप धर्म के दिन ये नई तपस्या जो आप सबको बताई है, मुझे विश्वास है कि ये आप सबको पसन्द आएगी और आज से आप सबके जीवन में घटित हो जाएगी।

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