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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संग्रह, अनुग्रह, परिग्रह और विग्रह


Vidyasagar.Guru

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संग्रह, अनुग्रह, परिग्रह और विग्रह

एक बार धरती ने वृक्ष से कहा कि मैं तुम्हें अपना रस पिलाती हूँ और तुम अपने फल-फूल औरों को लुटा देते हो; ऐसा करना तुम बंद करो। पेड़ ने धरती से विनम्रता से कहा- नहीं माता: मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मेरा तो जन्म ही औरों के उपकार के लिए हुआ है। पेड़ के इस उत्तर से धरती रूठ गई। पतझड़ आया, पेड़ का एक-एक पता झड़ गया। कल तक हरा-भरा दिखाई देने वाला पेड़ आज सूखे लूठ के रूप में परिवर्तित हो गया। धरती ने कहा अब भी चेत जाओ। पेड़ ने कहा नहीं मैं तो चाहता हूँ कि इस घड़ी में भी मेरी सूखी लकड़ियाँ भी किसी के काम में आ जाएँ तो मैं अपने जीवन को सार्थक समझेंगा। पेड़ के इस व्यवहार से धरती का हृदय पसीज गया। बसंत आया और पेड़ पहले से सौ गुना ज्यादा वैभव-सम्पन्न हो गया।

 

एक रोज हिमालय ने गंगा से कहा कि तुम नीचे क्यों उतरती हो? तुम यहीं रहो; अपना पानी यूँ न लुटाओ। गंगा ने हिमालय की बात को अनसुना कर नीचे बहना शुरु कर दिया। वह प्यासी धरती और सूखी खेती को हरा-भरा बनाते हुए लाखों-करोड़ों लोगों की व्याकुलता नष्ट कर प्रवाहित होने लगी। गंगा की इस वृत्ति से हिमालय द्रवीभूत हो उठा और उसने उसे जी भरकर पानी देना शुरु कर दिया। नतीजा: गंगा गंगोत्री में जितनी थी उससे हजार गुनी गंगासागर में बन गई।

 

आज के संदर्भ में ये दोनों रूपक बहुत सार्थक हैं। जो निरंतर देता है वह निर्बाध पाता है। अगर हम सृष्टि के समस्त क्रम को देखें तो सारी सृष्टि ग्रहण और त्याग से जुड़ी है। हमारा सम्पूर्ण जीवन ग्रहण और त्याग से जुड़ा है। हम श्वास लें और नि:श्वास न हो,श्वास भीतर लें और बाहर न निकालें तो क्या होगा? घुटन होगी। भोजन करें और शौच न हो तो क्या होगा? पीड़ा होगी। भोजन करना जितना जरूरी है मल का विसर्जन भी उतना ही आवश्यक है। श्वास लेना जितना जरूरी है श्वास छोड़ना भी उतना ही जरूरी है। ये प्रकृति का नियम है।

 

बहुत जरूरी जानना, त्याग/दान सम्बन्ध

बादल समुद्र से पानी सोखते हैं और वर्षा के रूप में हमें लौटा देते हैं। समुद्र यदि बादल को पानी न दे तो नदियाँ समुद्र को पानी नहीं दे सकेंगी; ये एक क्रम है। पेड़ धरती से रस लेता है तो हमें फल, फूल और छाया प्रदान करता है। गाय घास खाती है तो हमें अमृतोपम दूध पिलाती है। ये प्रकृति की व्यवस्था है जहाँ ग्रहण है वहाँ त्याग जरूरी है। जीवन का संतुलन तभी बनेगा जब ग्रहण के साथ त्याग होगा।

 

आज त्याग धर्म का दिन है। त्याग की व्याख्या कई प्रकार से की गई है। मुनियों को केन्द्र बनाकर जब त्याग की बात की गई तो कहा गया-‘परिग्रहनिवृत्तिः त्यागः' परिग्रह की निवृत्ति का नाम त्याग है। अर्थात् मुनियों का जो त्याग है वह सर्वस्व का त्याग है। अपने सर्वस्व का त्याग ही परिग्रह की निवृत्ति है। गृहस्थों के लिए जब बात कही गई तो कहा गया- 'त्यागो दानम्' त्याग का मतलब दान।

 

दान अंश का होता है त्याग सर्वस्व का होता है। गृहस्थ सर्वस्व को नहीं त्याग सकता। उसके पास जो है उसका एक अंश ही त्यागेगा। त्यागी का स्थान बहुत उच्च होता है। साधु सर्वस्व को त्यागता है, अपने पास कुछ भी नहीं रखता। तिल-तुष मात्र भी नहीं रखता। साधु त्याग की प्रतिमूर्ति होते हैं। गृहस्थ दानी अंश दान देता है। दान देने के लिए गृहस्थों को कहा गया है क्योंकि वह जो कुछ भी धन सम्पत्ति कमाता है उसमें पाप का उपार्जन होता है। बिना पाप के पैसा कमाना संभव नहीं है। अनीति के बिना पैसा कमाया जा सकता है पर बिना पाप के नहीं। क्योंकि धनार्जन में प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा षट्काय जीवों की विराधना होती है। अपने द्वारा अर्जित धन का कुछ अंश में भोग भी कर लेंगे और शेष एक दिन छोड़कर चले जाएँगे लेकिन उसके साथ जो उपार्जित पाप है वह कहाँ जाएगा। उस पाप को साफ करने के लिए गृहस्थों के लिए दान की प्रेरणा दी गई। सारा मत करो, अंश में दान करो, कुछ भाग दान करो जिससे वह पाप बैलेन्स (बराबर) हो जाए।

 

बंधुओं! जब त्याग और दान की बात आती है तो दान की अपेक्षा त्याग का स्थान ऊँचा है क्योंकि दान अंश का और त्याग सर्वस्व का होता है इसलिए हमारे देश में त्यागी की पूजा होती है और दानी की प्रशंसा। जो सब त्याग दे वह पूज्य हो जाता है और जो अंश में त्यागे वह प्रशंसा का पात्र बनता है। आज तुम्हारे द्वारा दिया गया अंश-दान कल तुम्हारे कल्याण का कारण बनेगा। आज का ये दान कल तुम्हें त्यागी बनने का पुण्य प्रदान करेगा। जिससे त्याग के बल पर अपने सर्वस्व को प्राप्त कर सकी।

 

संग्रह नहीं परिग्रह बुरा 
बंधुओं! दान के सन्दर्भ में आज की चार बातें- संग्रह, अनुग्रह, परिग्रह और विग्रह। आप गृहस्थ हो; धन का संग्रह करते हो का संग्रह कतई बुरा नहीं है। कुछ लोग धनी-मानी लोगों को अलग दृष्टि से देखते है | ऐसी अवधारणा बनाकर रखते है कि जिनके पास पैसा है वे सब पापी ही है, अनाचारी ही है, पाखण्डी है,  अनेतिकता से जीवन जीते है | ऐसा नहीं है; ग्रहस्थ जीवन में धन- संग्रह का उपदेश हमारे तीर्थकर भगवन्तो ने दिया है |

 

वे कहते है - धन का संग्रह करो | संग्रह करो मतलब पैसा इकट्ठा करके रखो, जोड़ते जाओ और जोड़-जोड़कर रखते जाओ। नहीं; जोड़ना संग्रह है और जोड़कर उससे चिपक जाना परिग्रह है। क्या कहा? जोड़ना संग्रह है और जो जुड़ा है उससे चिपक जाना परिग्रह है। संग्रह से अनुग्रह होता है और परिग्रह से विग्रह। विग्रह यानि झगड़ा। तुमने संग्रह किया; अनुग्रह करो और संग्रह नहीं करोगे तो अनुग्रह नहीं कर सकोगे। लोकोपकार के जितने भी कार्य हैं बिना धन के संभव नहीं होते। धन कहाँ से आएगा? जब संग्रह करोगे, अर्जन करोगे तभी तो आएगा। इसलिए हमारी संस्कृति कहीं धन का निषेध नहीं करती। धन का संग्रह करो पर किसके लिए? अनुग्रह के लिए। अनुग्रह मतलब उपकार, परोपकार। स्व-पर के कल्याण के लिए धन का संग्रह करो।

 

धन को जल की तरह कहा गया है। जल का स्वभाव होता है बहना। आज की भाषा में धन को लिक्वड (तरल पदार्थ) बोलते हैं। लिक्वड द्रव (तरल पदार्थ) है जल। जल जितना बहेगा उतना बढ़ेगा। लेकिन पानी कहाँ बहता है नीचे की ओर बहता है। जहाँ उसकी आवश्यकता है वहाँ पानी को बहाओ। पर पानी को बेवजह मत बहाओ। जब जरूरत है तब बहाओ, जहाँ जरूरत है वहाँ बहाओ। स्टोरेज (संग्रहण) की व्यवस्था करो। संग्रह करो ताकि आवश्यकता पर काम आए। जरूरत मंदों के काम आए, देश, संस्कृति, समाज और मानवता के कल्याण में काम आए।

 

संग्रह करना मतलब नदी में बाँध बनाना | नदी में बाँध क्यों बनाते हैं? पानी को रोकने के लिए। पानी को रोकोगे नहीं तो सारा पानी समुद्र में जाकर वेस्ट (बर्बाद) हो जाएगा। वेस्ट (बर्बाद) होगा तो काम कैसे होगा? बारिश तो चार महीने ही होनी है और चार महीने भी सब जगह हो ही यह भी कोई जरूरी नहीं। कहीं कम, कहीं अधिक और कहीं बिल्कुल भी नहीं। इसलिए एक व्यवस्था बनाई कि पानी को रोको, बाँध बनाकर रखो। पानी को रोकने को लिए बाँध बनाते हैं पर बाँध बनाने के बाद पानी रोके ही रखो तो खतरनाक हो जाएगा। बाँध टूटेगा, जल-प्रलय आ जाएगा, बाढ़ की विभीषिका में परिवर्तित हो जाएगा। सबका सत्यानाश कर देगा।

 

बाँध तो आप लोगों ने देखा होगा। राजस्थान में भी बाँध हैं। बाँध में गेट बनाए जाते हैं। गेट कब खोले जाते हैं? जब जरूरत होती है। कितना खोलते हैं? जितनी आवश्यकता होती है। नदी पर बाँध बनाते हैं, बाँध में गेट लगाते हैं और गेट लगाने के बाद जब आवश्यकता प्रतीत होती है तो उसे खोलते हैं, गेट खोलने के बाद उस पानी को जहाँ उसकी आवश्यकता होती है वहाँ पहुँचाते हैं। बाँध बनने के बाद नहरों और नालों के माध्यम से उस पानी को वहाँ पहुँचाया जा सकता है जहाँ सूखा मचा हुआ है। बाँध के पानी से सूखी धरती में भी हरियाली फैलाई जा सकती है इसलिए बाँध बनाते हैं। बाँध नहीं बनाएँ तो क्या ऐसा हो सकता है? कभी भी नहीं हो सकता। गेट कब खोलते हैं? जब पानी का फ्लो बढ़ जाता है तब। पानी का जितना फ्लो आता है उतना ही बहाया जाता है।

 

सन्त कहते हैं धन का संग्रह करना भी समाज के कल्याण के लिए बाँध का निर्माण करने के समान है। बिना धन संग्रह के समाज-कल्याण नहीं होता। महाराज हम तो सोचे थे आज आप दान करने की बात करोगे; आपने तो संग्रह की बात कर दी। हमको ऐसा पता होता तो बाल-बच्चों को लेकर आते। बिल्कुल, मैं अपनी बात को दुहरा रहा हूँ। धन को संग्रह को बिना समाज का कल्याण नहीं होगा, संस्कृति की रक्षा नहीं होगी, देश का उत्थान नहीं होगा, पिवता की सेवा न हो। इसकल धनाक सहजताते बाँध बनाओ लेकिन ध्यान रखो बाँध बनाते समय सर्वे होता है कितना पानी ये इोल सकेगा, कितने पानी को रोकने की क्षमता है और इस पानी को कन्ज्यूम (उपयोग) करके कितनी धरती को हम सिंचित कर सकेंगे। ये पूरा सर्वे होता है फिर उसी हिसाब से पानी को वहाँ रखा जाता है। ये तय किया जाता है किस माह में हमें कितना पानी रखना है और कितना पानी छोड़ना है। जितना क्यूसेक (पानी की मात्रा को मापने की इकाई) पानी आता जाता है उसी हिसाब से छोड़ते भी जाते हैं। डेट्स (तारीख) फिक्स (निश्चित) रहती है। जितना पानी आया उतना खाली करो नहीं तो बाँध टूट जाएगा।

 

मैं आपसे कहता हूँ धन का संग्रह करो, पर बाँध की भाँति करो। जितना पैसा आए उतना बहाते भी जाओ। जीवन में सदैव कल्याण बना रहेगा। जिस अनुपात से कमाओ उसी अनुपात से खर्च करो। संग्रह करो लेकिन अनुग्रह के लिए। इसी अनुग्रह का नाम दान है। आचार्य उमास्वामी ने दान के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखा

 

"अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसगों दानम्"

स्व-पर के अनुग्रह के लिए अपने ‘स्व' यानि धन का अतिसर्ग अर्थात् त्याग करना; दान है। अनुग्रह के लिए धन का त्याग करना दान है। तुमने धन संग्रह किया अब उसका क्या करना है? अनुग्रह करना है। किसका अनुग्रह? स्व का और पर का। धन के त्याग से स्व का अनुग्रह। धन का त्याग करने से पहले स्व का अनुग्रह होगा। धन की आसक्ति कम होगी, अभिमान घटेगा, तुम्हारे अन्दर उदारता आएगी, करुणा आएगी और पाप का प्रक्षालन होगा। ये स्व का अनुग्रह है। तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी ये स्व का अनुग्रह है, कीर्ति बढ़ेगी ये स्व का अनुग्रह है।

 

समाजवाद का विरोधी है, परिग्रह

जो धनवान व्यक्ति कजूस होता है दुनिया उसको गाली देती है और जो धन-सम्पन्नता के साथ उदारता अपनाता है दुनिया उसे अपने हृदय में विराजती है। क्या चाहते हो स्व का अनुग्रह और पर का अनुग्रह? तुम्हारे द्वारा जोड़े गए धन से समाज का कल्याण हो, धर्म की प्रभावना हो, संस्कृति की रक्षा हो, राष्ट्र का उत्थान हो और मानवता की सेवा हो। ये पर का अनुग्रह किससे हुआ? संग्रह से अनुग्रह। अगर संग्रह किया है तो अनुग्रह करो। अगर संग्रह ही करके रख लोगे तो वह परिग्रह बन जाएगा।

 

परिग्रह क्या है? पाप। पाप ही नहीं ‘परिग्रहो विग्रहहेतु:"। परिग्रह सारे झगड़ों का मूल है, जड़ है। जहाँ परिग्रह है वहाँ झगड़ा है, झंझट है, अशांति है, दु:ख है, उद्वेग है, पीड़ा है और परिताप है। तुम जितना परिग्रही बनोगे तुम्हारे जीवन में उतनी जटिलता और अशांति आएगी।

 

मैं एक बात कहता हूँ संग्रह के साथ जहाँ वितरण है वहाँ आनन्द है और जहाँ केवल संग्रह है वहाँ बहुत गड़बड़ है। आप देखो नदियों का पानी मीठा होता है और सागर का पानी खारा। आखिर ऐसा क्यों कभी आपने विचार किया? नदियों का पानी मीठा और सागर का पानी खारा केवल इसलिए होता है क्योंकि नदियाँ अपने पास कुछ भी संग्रहित करके नहीं रखतीं, सब बाँट देती हैं और सागर सब कुछ अपने पास संग्रहित करके रखता है।

 

मैं एक सूत्र देता हूँ जहाँ केवल संग्रह है वहाँ खारापन है और जहाँ वितरण है वहाँ मिठास है। जीवन में मिठास लाना चाहते हो तो संग्रह के साथ वितरण करना प्रारम्भ करो नहीं तो परिग्रह बनकर विग्रह हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति न भोग पाता है न किसी को दे पाता है। बंधुओं! मेरे सामने अनेक संग्रही भी हैं और अनेक परिग्रही भी हैं। मैंने संग्रह करने वालों की उदारता और अनुग्रह को भी देखा है और परिग्रह का संचय करके विग्रह में उलझकर अपने जीवन को बर्बादी के कगार पर पहुँचाने वालों को भी देखा है।

 

धन-सम्पति के प्रति मनुष्य के मन में बहुत मोह होता है, लगाव होता है। कहावत है "चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाय"। दान जैसे सत्कृत्य के प्रति हर किसी के मन में भाव नहीं जगता। जिसका भवितव्य अच्छा होता है वही अपने द्रव्य का सही उपयोग कर पाता है। आचार्य गुरुदेव ने एक बार कहा कि सम्पत्ति का मिलना तो कदाचित पुण्य का उदय हो सकता है पर उसका सदुपयोग तो तप का फल समझना चाहिए। पिछले जीवन में तुमने कोई अच्छा कर्म किया होगा जिससे तुम्हें आज ऐसी सम्पति मिली कि सम्पत्ति पाकर उसका सदुपयोग करने का भाव मिला। धन को संग्रहित करने वाले कजूस लोग और धन-संग्रह के बाद सुरा-सुंदरी में बहाने वाले लोग दुनिया में बहुतायत में और सरलता से मिल जाएँगे लेकिन धन के संग्रह के बाद उससे अनुग्रह करने वाले लोग बहुत कठनाई से और बहुत कम मिलते हैं।

 

लक्ष्मी के चार रूप

आज की चार बातें लीजिए- भाग्यलक्ष्मी, पुण्यलक्ष्मी, पापलक्ष्मी और अभिशप्तलक्ष्मी। यहाँ लक्ष्मी का मतलब सम्पदा से है। लोक में लक्ष्मी को सम्पदा कहा जाता है। यहाँ लक्ष्मी से तात्पर्य सम्पदा-सम्पति से लेना। सम्पति कभी किसी की नहीं रही। कहा जाता है कि कीर्ति कुंवारी है और लक्ष्मी यानि सम्पत्ति को वेश्या के समान कहा है। यहाँ किसी देवी की बात नहीं; धन-पैसे को लेना। सम्पदा को वेश्या और कीर्ति को कुंवारी कहा गया क्योंकि जो कीर्ति को चाहते हैं कीर्ति उसे नहीं चाहती, इसलिए उसका ब्याह ही नहीं हो पाया और जो सम्पदा को चाहते हैं सम्पदा उसको नहीं चाहती; सम्पदा रोज अपना पति बदलती है, अपना स्वामी बदलती है इसलिए सम्पदा की वेश्या बताया गया। वह किसी एक की नहीं होती इसलिए वेश्या है और कीर्ति किसी को चाहती नहीं इसलिए वह कुंवारी है।

 

ये जीवन की स्थिति है। चार प्रकार की सम्पदा में सबसे पहली भाग्यलक्ष्मी। भाग्यलक्ष्मी का मतलब ऐसे लोगों की सम्पदा जिन्हें बिना प्रयास के सारी सम्पति मिल गई। एक बच्चे ने किसी करोड़पति के घर में जन्म लिया उसको भाग्यलक्ष्मी विरासत में मिल गई। उसके लिए उसे कोई प्रयास-पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं हुई। जिस दिन जन्म लिया उसी दिन वह करोड़ों का स्वामी बन गया। ये है भाग्यलक्ष्मी।

 

एक बालक भिखारी के घर पैदा हुआ। उसी दिन से भिखारी हो गया। ये उसके दुर्भाग्य की सम्पदा है। दुर्भाग्य व्यक्ति को भिखारी बनाता है तो सौभाग्य व्यक्ति को करोड़पति, अरबपति, राजा भी बना देता है। जो लक्ष्मी तुम भाग्य में लेकर आए वह भाग्यलक्ष्मी है। निश्चित रूप से तुम सब लोग भाग्यशाली हो क्योंकि तुम में से कोई भी भिखारी के घर पैदा नहीं हुआ। भाग्य की सराहना करो। बहुत ऊँचा भाग्य है तुम्हारा, कुछ न कुछ लेकर ही आए हो, ये भाग्यलक्ष्मी है 

 

दूसरे क्रम पर है पुण्यलक्ष्मी। पुण्यलक्ष्मी का मतलब जिस लक्ष्मी को तुमने पुण्य के कार्य में लगा दिया, जिस सम्पदा को तुमने पुण्य के कार्य में लगा दिया, जिस सम्पत्ति को तुमने सत्कार्य में लगा दिया वह भाग्यलक्ष्मी पुण्यलक्ष्मी में परिवर्तित हो जाती है। तुमने अपार दौलत पाई। उस दौलत का उपयोग किसमें किया? जितना तुमने पुण्य में लगाया वह है पुण्यलक्ष्मी। अर्थात् सम्पत्ति का जो पुण्य में वियोजन है वह भाग्य को पुण्य लक्ष्मी में परिवर्तित करने की कला है। इतना ही नहीं विरासत में तुमने सम्पत्ति पाई, कुछ पुण्य भी लेकर आए; उस पुण्य ने तुमको अनुकूल संयोग दिया, उस पुण्य की बैकिग में तुमने जो पैसा कमाया (अच्छा कार्य करके, बुरा कार्य करके नहीं) वह भी पुण्यलक्ष्मी है। सत्कर्म में लगाया गया द्रव्य पुण्यलक्ष्मी और सत्कर्म करके कमाई गई सम्पति भी पुण्यलक्ष्मी।

 

अनैतिकता, अप्रामाणिकता और गलत हथकण्डे अपनाकर पैसा कमाने वाले अलग लोग हैं लेकिन दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो सही रास्ते पर चलकर पैसा कमाते हैं और उसे सही रास्ते पर ही लगाते हैं। सही रास्ते से पैसा कमाना और सही रास्ते पर पैसा लगाना दोनों बहुत महत्वपूर्ण हैं। ऐसा कौन करते हैं जो पुण्यलक्ष्मी के धनी होते हैं। आपके पास पुण्य है; भाग्य लेकर आए और पुण्य भी साथ में है। अब क्या कर रहे हो? पुण्य से कमा रहे हो या पुण्य कमा रहे हो? दोनों चीजें है पुण्य से कमाओ और कमाने के बाद पुण्य कमाओ। ये पुण्यलक्ष्मी का प्रतीक है।

 

मतलब समझ में नहीं आया। अभी समझ में आ जाएगा। पुण्य से कमाओ यानि अच्छा कार्य करको कमाओ, बुरा कार्य करको मत कमाओ। अनैतिकता, अप्रमाणिकता, हिंसा, शोषण आदि के रास्ते से पैसा कभी मत कमाओ। क्रूर कर्म करके पैसा कभी अर्जित न करो। अनैतिक कृत्य करको पैसा कभी अर्जित न करो। पुण्य से कमाओ और बिना पुण्य के कमा भी नहीं सकोगे। एक ग्लास दूध में आपने एक चम्मच चीनी डाली; दूध मीठा हो जाएगा क्या? नहीं; दूध को मीठा करने के लिए चीनी डालना मात्र पर्याप्त नहीं है। आपने चीनी डाली और तुरंत पी लिया तो दूध फीका ही लगेगा। चीनी डालने के साथ चम्मच से उसको घोलना भी पड़ेगा तब कहीं जाकर दूध मीठा होगा। बंधुओं दूध को मीठा करने के लिए चीनी डालना जितना जरूरी है उसको घोलना भी उतना ही जरूरी है। अपने जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करना चाहते हो उसके लिए तुम्हारा पुरुषार्थ भी जरूरी है और साथ में पुण्य भी जरूरी है।

 

खाली दूध में चम्मच घुमाओगे तो क्या हाथ आएगा। हाथ आएगा कुछ बिना पुण्य के? बिना चीनी डाले चम्मच घुमाने से दूध मीठा नहीं होगा। मानते हो कि नहीं? खाली दूध में चम्मच घुमाते हो कभी? महाराज! इतना बेवकूफ समझ रखा है क्या हम जयपुर वालों को, हम इतने बेवकूफ नहीं हैं। खाली दूध में कोई चम्मच नहीं घुमाता, दूध में चीनी डाली जाती है तब चम्मच घुमाते हैं तब उसमें मिठास आती है। ध्यान रखना! कोरे पुरुषार्थ से जीवन में कभी सफलता नहीं मिलती। सफलता तभी मिलती है जब पुण्य की बैंकिग होती है। यदि तुम्हारे पल्ले पुण्य होगा और सारी दुनिया तुम्हारे खिलाफ होगी तो भी तुम्हारी बुद्धि इतनी निर्मल और कुशल होगी कि तुम अपना रास्ता निकाल लोगे और आगे बढ़ते जाओगे, तुम्हें कोई रोक नहीं पाएगा। इसलिए पुण्य से कमाओ और पुण्य से कमाने के बाद पुण्य कमाओ।

 

मैं आपसे एक बात पूछता हूँ रामलाल का पैसा आप रामलाल को दोगे कि श्यामलाल को? (श्रोताओं के जबाब की आवाज आती है)हाँ.....मुझे सुनाई नहीं पड़ा जोर से बोलो। रामलाल का पैसा रामलाल को ही देते हो, कभी भूलकर भी श्यामलाल को दिए क्या? हाँ अगर कहीं धोखे से श्यामलाल के पास चला गया तो? धोखे से चला जाता है तो क्या करते हो? महाराज! बहुत तकलीफ होती है, सोचते हैं कैसे इसकी भरपाई करूं। आप सब रामलाल का पैसा रामलाल को ही देते ही श्यामलाल को देना कभी नहीं चाहते। यदि तुम समझदार हो तो मैं तुमसे कहता हूँ पुण्य का पैसा भी पुण्य को दो, पाप में न देने का संकल्प ले लो। पुण्य का पैसा है तो उसको पुण्य में लगाओ पाप में क्यों लगाते हो? बोलो रामलाल का पैसा श्यामलाल को दोगे तो रामलाल नाराज होगा कि नहीं होगा? टीक है श्यामलाल को तुमने ऑवलाईज कर लिया (मना लिया) लेकिन वह धोखेबाज है, अंगूठा दिखा देगा तो रामलाल नाराज हो जाएगा और तुमको नुकसान पहुँचा देगा और हो सकता है कि तुम्हारे ऊपर मुकदमा भी कर दे क्योंकि उससे ऐग्रीमेन्ट (वायदा) किया हुआ है। रामलाल को नाराज करोगे तो तुम परेशान हो जाओगे।

 

बंधुओ! मैं आपसे कहता हूँ पुण्य का पैसा अगर पाप में लगाओगे तो तुम्हारा पुण्य नाराज हो जाएगा और तुम पर पाप हावी हो जाएगा। पुण्य है इसलिए सुरक्षित हो। इसलिए पुण्य से उपार्जित धन को पुण्य में लगाओ, पाप में मत लगाओ। संकल्प लो आज के त्याग धर्म के दिन कि मैं अपनी सम्पदा का सही उपयोग, सही विनियोजन करूंगा। मैंने जो पैसा कमाया है उसमें कुछ न कुछ पाप जरूर हुआ है तो उस पैसे को भोगने में पाप न करूं, पैसे को परमार्थ में लगाकर कुछ पुण्य कमाऊँ। पुण्य से कमाओ और कमाने के बाद पुण्य कमाओ। देखो आपको कमाई की बात कितनी अच्छी लगी। मैं दान की बात तो करता नहीं, आप लोग बहुत कजूस हो। आपके पास इतनी कमाई का ऑफर है, आपको समझ में ही नहीं आ रहा। ऑफर दे रहा हूँ कि नहीं दे रहा हूँ? ऐसे लोक में कोई थोड़ा सा ऑफर देता है तो तुरंत मुँह में पानी आ जाता है। अभी तो आपके मुँह सूखे दिख रहे हैं, ये कमाई का अवसर है पुण्य कमाओ, पाप नहीं।

 

बंधुओं! थोड़ा विचार करो, धन सम्पति का अंत क्या है? पैसा कमाओगे उसके बाद क्या होगा? तुमने पैसा कमाया, जिंदगी भर जोड़ा, उसके बाद एक दिन छोड़कर जाओगे। है और कोई उपाय? या तो देकर जाओगे या छोड़कर जाओगे, लेकर जाने की कोई व्यवस्था तो है नहीं। भैया! छोड़कर जाने से अच्छा है देकर जाना। किसको देना है? अपने बाल-बच्चों को दोगे जो जिंदगी भर गाली दिए, जिन्होंने तुम्हें कोसा, जिन्होंने तुम्हारी उपेक्षा की; उनको दोगे? यदि देकर जाना है तो अच्छे कार्य में लगाकर जाओ। अच्छा! ईमानदारी से बोलना, आप लोगों से एक सवाल करता हूँ- आप अपने बाल बच्चों को अपनी सम्पति देते हो; ये आपकी भावना है या मजबूरी? क्या हो गया? अपनी संतान को आप अपनी सम्पत्ति सौंपते हो, ये तुम्हारी भावना है या मजबूरी? कुछ लोग बोल रहे भावना, कुछ लोग बोल रहे मजबूरी। जिनकी भावना है तो अच्छी बात है। जो लोग भावना बोल रहे हैं मैं उनसे पूछता हूँ अगर ऐसी कोई व्यवस्था हो कि सारी सम्पत्ति अपने साथ लेकर जा सको तो क्या करोगे? अपने बेटे को दोगे या खुद लेकर जाओगे?

 

क्या हो गया? अगर ऐसा कोई सिस्टम(व्यवस्था) हो कि अपने साथ लेकर जाया जा सकता है तो एक आदमी भी अपने बच्चों को नहीं देगा, सब लेकर जाएँगे, जाएँगे कि नहीं जाएँगे? सब लेकर जाएँगे कि चलो परलोक में काम में आएगा। आप सबने अभी सहमति दी कि हम सारी सम्पति अपने साथ ले जाते तो पक्का बताओ अगर ले जाने की व्यवस्था ही तो आप लेकर जाओगे कि नहीं? हाथ उठाओ, नहीं लेकर जाओगे यहीं छोड़ जाओगे। गजब! तो छोड़ो फिर, अभी छोड़ दी, फिर आगे की बात क्या करना। आज आप लोगों को मजा नहीं आ रहा होगा। एक लड़के ने एक दिन कहा महाराज! आपके सारे प्रवचनों में मजा आता है लेकिन जिस दिन आप पैसे पर प्रवचन करते हैं न तो तकलीफ होती है, छुड़वा न दें, ये हजम नहीं होता। मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि ऐसी कोई व्यवस्था हो कि तुम्हारे द्वारा जोड़ी गई सारी सम्पत्ति तुम ले जा सकते हो तो ये बताओ कौन-2 है जो अपनी सम्पत्ति को अपने साथ ले जाने के लिए तैयार है? हाथ उठाओ। कल्पना करो अभी थोड़ी देर के लिए मैं प्रावधान बनाता हूँ। अगर ऐसा प्रावधान हो तो हाथ उठाओ कौन-कौन लेकर जाएँगे? अपना हाथ उठाओ। बंधुओं मैं आपको अपनी सम्पति अपने साथ ले जाने की व्यवस्था देता हूँ, ले जाना चाहते हो? बहुत समझदार हो कोई हाथ नहीं उठा रहा है। आप अपनी सम्पति को अपने साथ ले जा सकते हो। बताओ भारत की करैन्सी (मुद्रा) अमेरिका में काम में आती है क्या? क्या करते हो उसके लिए? आपको रुपयों को डॉलर में एक्सचैन्ज करना (बदलना) होता है। करैन्सी को एक्सचैन्ज करते (बदलते) हैं तो यहाँ का पैसा वहाँ काम में आता है। मैं आपसे कहता हूँ तुम्हारी ये करैन्सी वहाँ काम में नहीं आएगी। यहाँ का पैसा वहाँ काम में नहीं आएगा उसके लिए करैन्सी चैन्ज करना (बदलना) होगी। करैन्सी को चैन्ज करने (बदलने) की प्रक्रिया का नाम ही दान है। तुम दान कर दो सब तुम्हारे साथ जाएगा। बात समझ में आई कि नहीं। अगर तुम लोग वहाँ फटे हाल जाओगे तो भूखों मरोगे।

 

तुम लोग जब एक देश से दूसरे देश जाते हो तो उस देश की करेंसी लेकर जाते हो कि नहीं? सारी व्यवस्था करके जाते हो। एक-दो महीने के लिए देश से विदेश जाते हो तो पहले पासपोर्ट करते हो। ये तय है कि कुछ दिनों के लिए जाना है फिर भी उसके लिए इतनी तैयारी, पर भैया जो पक्की यात्रा है उसके लिए तुम्हारी झोली में क्या है? अन्टी में कुछ लेकर जाओगे तो वहाँ मालामाल रहोगे नहीं तो भिखारी बने रहोगे। अब बताओ क्या करना है पर लोक में भिखारी बनना है या यहाँ जैसा सेठ बनना है? क्या बनना है बोलो। बोलती बंद हो गई? अरे हम तुमको बनाना चाहते हैं सम्राट पर तुम्हारी मानसिकता इतनी खराब है कि सारे सपने ही मर चुके हैं। तुम भिखारी हो और सारी जिंदगी भिखारी बने रहना चाहते हो। भीतर के साम्राज्य को वे ही अभिव्यक्त कर पाते हैं जो अपने भीतर की उदारता को प्रकट करते हैं। जिनकी विचारधारा उदार होती है वे सम्राट होते हैं और जिनके विचारों में कृपणता होती है वे भिखारी बने रहते हैं। वैचारिक द्ररिद्रता ही भिखारीपन है। अपने हृदय को उदार बनाओ। पुण्यलक्ष्मी को जुटाओ, वह कहाँ से आएगी? दान से आएगी। आज धरती पर तुम्हें जितने भिखारी दिखाई पड़ते हैं वे भिखारी क्यों बने और तुम सेठ क्यों बने कभी विचार किया? वे भिखारी बने तुम सम्पन्न बने क्यों? एक कवि ने लिखा

 

शिक्षन्ते न हि याचन्ते भिक्षाचरा: गृहे गृहे।

दीयतां दीयतां नित्यम् अदातुः गतिः ईदृशी॥

तुम्हारे दरवाजे पर आने वाला भिखारी तुमसे भीख नहीं माँगता, सीख देता है कि भैया! दान दो-दान दो, मैंने दान नहीं दिया इसलिए मेरा ये हाल हो गया। तुम अपने हाल का ख्याल करो, ये सीख है। ये सीख लो, नहीं तो भीख माँगनी पड़ेगी। अपनी अन्टी भरकर, अपनी झोली भरकर जाओ। अपनी सारी करैन्सी एक्सचैन्ज कर ली अभी व्यवस्था है। जिंदगी भर जितना बदलते जाओगे, वह सब निहाल करेगा।

 

अन्यायोपार्जितं वित्तं स्व जीवनं विनश्यति

तीसरी है पापलक्ष्मी। पाप और अनाचार करके जो सम्पति कमाई जाती है वह पापलक्ष्मी कहलाती है। गलत कार्य करके, अनैतिकतापूर्ण आचरण करके, हिंसा और हत्या का रास्ता अपनाकर, शोषण करके या अन्य तरह के पापमय रास्ते से जो पैसा कमाते हैं वह पापलक्ष्मी कहलाती है। वह लक्ष्मी इस जीवन में भी दुखी बनाती है और भावी जीवन को भी दुर्गति का पात्र बना देती है। पापलक्ष्मी कभी अनुकरणीय नहीं है। सट्टा, जुआ के माध्यम से, तस्करी के माध्यम से, अन्य प्रकार के अनाचारों से, हिंसा के रास्ते को अपनाकर, और जीव हत्या के माध्यम से कमाया गया पैसा; ये सब पापलक्ष्मी है। जीवन में निर्धनता को स्वीकार कर लेना लेकिन पाप से पैसे का उपार्जन करने की कोशिश कभी मत करना। यहाँ पाप से अभिप्राय है अनैतिकता। नैतिकता से धन सम्पन्नता हो सकती है; ऐसा जरूरी नहीं कि आपको अनैतिकता का ही रास्ता अपनाना पड़े। अनैतिकता के रास्तों को अपनाने वालों की सम्पत्ति पापलक्ष्मी होती है। पापलक्ष्मी कमाने वालों को जब भण्डाफोड़ होता है तो वे कहीं के नहीं रहते। आदमी के साथ बड़ी मुश्किल है। आदमी को पैसा बहुत अच्छा लगता है।

 

एक बार लक्ष्मी और द्ररिद्रता के बीच एक दूसरे से श्रेष्ठता साबित करने की होड़ हो गई। लक्ष्मी कहे कि मैं पावरफुल(ताकतवर) और द्ररिद्रता कहे मैं पावरफुल। लक्ष्मी ने कहा- मैं जहाँ रहती हूँ सब लोग उसकी पूजा करते हैं और द्ररिद्रता कहे कि सारी दुनिया पर मेरा साम्राज्य है। दोनों में बहस छिड़ गई। तय हुआ कि चलो नगरसेठ से पूछा जाए, वह तय करेगा कि दोनों में कौन सही है, कौन ज्यादा बलशाली है। लक्ष्मी और द्ररिद्रता दोनों सेठ के पास पहुँचीं और पूछा- ये बताओ हम दोनों में किसका बल अधिक है? सेठ ने सोचा बड़ा विचित्र मामला है, एक का पक्ष लिया तो दूसरा नाराज। किसी से भी पंगा लेना ठीक नहीं। उसने बनिया-बुद्धि लगाई और कहाठीक है, मैं निर्णय देता हूँ। सामने जो पेड़ है दोनों उसे छूकर आओ फिर मैं बताऊँगा कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है। दोनों पेड़ छूने के लिए गई और दोनों ने एक साथ पेड़ को छू लिया। जब दोनों लौटकर आई तो सेठ ने कहा- तुम दोनों अच्छी हो, तुम दोनों सुंदर हो। उन्होंने पूछा कैसे? तो सेठ ने लक्ष्मी से कहा- लक्ष्मी! जब तुम आती हो तो सुंदर लगती हो और द्ररिद्रता से कहा- तुम जब जाती ही तो सुंदर दिखती हो। लक्ष्मी आती हुई सुंदर दिखती है और द्ररिद्रता जाती हुई सुंदर दिखती है। बंधुओं! गलत रास्ते से धन उपार्जित करने का कभी मत सोची, ये पापलक्ष्मी है। इसे पास मत फटकने दो।

 

चौथी है अभिशप्तलक्ष्मी। अभिशप्तलक्ष्मी मतलब वह लक्ष्मी जो केवल संग्रहित होकर पड़ी है, जिसका न भोग है न त्याग; बस जोड़-जोड़कर रखी हुई है। ऐसे लोग महाकजूस होते हैं। उनसे धर्मकार्य के लिए एक पैसा भी नहीं निकलता। वे पैसे को परमार्थ के कार्य में लगाना ही नहीं जानते। बड़ी सार्थक पंक्तियाँ हैं -

 

कजूस बाप को मरता हुआ देखकर,

बेटे ने बनवा लिया दोगुना बड़ा कप्फन,

सोचा- मेरे पिता ने

ठीक से न कुछ खाया, न पहना,

कम से कम मैं उढ़ा तो सक्यूंगा

दोगुना बड़ा कफन।

देखते ही बाप जी चिल्लाया (अभी मरा नहीं था)

और कहा

बेटे! ठीक नहीं है तेरी मजी,

क्यों करता है फिजूलखची?

कपड़ा; आखिर कपड़ा है, बेकार नहीं जाएगा

आधा मुझे उढ़ा दे, आधा तेरे काम आ जाएगा।

ये अभिशप्तलक्ष्मी है जो किसी के काम की नहीं। ऐसी लक्ष्मी से अपने आपको बचाओ। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जो आज दुनिया में नहीं हैं। मध्य प्रदेश के गंजबासौदा शहर में एक घटना घटी। घटना लगभग 25-30 वर्ष पुरानी है। वहाँ एक पंजाबी दम्पती थे। 'मुन्ना पंजाबी' उनका नाम था। घर में तीसरा कोई नहीं था; नि:संतान थे। ब्याज-बट्टे का काम था। पैसा अपार था। तीन दिन तक उनके घर का दरवाजा नहीं खुला। लोगों ने सोचा- कहीं बाहर गए होंगे। लेकिन देखा तो घर अंदर से बंद है, दरवाजा खुला नहीं। तीन दिन में बदबू आने लगी।

 

लोगों को संशय हुआ। प्रशासन की उपस्थिति में दरवाजा तोड़ा गया। अंदर गए.....। देखते क्या हैं.....दोनों बूढ़ा-बूढ़ी अपनी सारी सम्पत्ति को फैलाए हुए हैं और दोनों छाती पर हाथ रखकर बैठे हैं। दोनों के प्राण एक साथ निकल गए। अपार सम्पत्ति......। उनको घर की सामग्री को हटाने में, उठाने में नगर पालिका को सात दिन लग गए। जिस आदमी ने जिन्दगी भर केवल पैसा जोड़ा, खाया भी नहीं; खिलाया भी नहीं; एक दिन सब छोड़ कर चला गया। ये है अभिशप्तलक्ष्मी। जिस सम्पत्ति को उन्होंने जीवन भर जोड़ा उसी के पास बैठकर वे चल दिए। ये अभिशप्तलक्ष्मी है जिसका वे भोग नहीं कर सके। वह इतना धनलोलुपी था कि बैण्डवालों का एक बैण्ड भी रख ले, अगर कोई एक जूता भी गिरवी रखना चाहे तो रख ले, इस स्तर का आदमी, सम्पत्ति को भोगे बिना ही मर गया। यदि तुमने धन-सम्पति जोडी और जोड़कर रख ली, उसको स्व-पर के कल्याण में नहीं लगाया तो वह अभिशप्त लक्ष्मी है, वह पैसा तुम्हारे लिए अभिशाप है, तुम्हारे जीवन को बर्बादी के कगार पर पहुँचा देगा। इसलिए पुण्यलक्ष्मी को भागी बनो। भाग्यलक्ष्मी तो जो आ गया सो आ गया वह तुम्हारे हाथ में नहीं, पुण्यलक्ष्मी तुम्हारे हाथ में है। पुण्य से पैसा कमाना और कमाए हुए पैसे को पुण्य में लगाना ये तुम्हारे हाथ में है। तुम जोड़-जोड़ कर रखोगे तो कोई काम नहीं होगा। आचार्य कुमारस्वामी ने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में बहुत अच्छी बात लिखी, पहले के जमाने में लोग पैसा जमीन के अंदर गाड़कर रखा करते थे। उन्होंने लिखा-

 

जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइदूरे।

सो पुरिसो तं लच्छि पाहाण-समाणियं कुणदि।

जो धन-सम्पति को संगृहीत करके धरती के नीचे गाड़कर रखते हैं वे अपनी सम्पत्ति को पाषाण बना देते हैं। हम लोग कहानियाँ सुनते हैं कि किसी व्यक्ति ने सम्पत्ति कमाकर धरती के अंदर गाडुकर रखा और जरूरत पडने पर निकालना चाहा तो पता चला कि सम्पत्ति वहाँ से कहाँ खिसक गई, कोई पता नहीं। अथवा वह सम्पति कोयला बन गई, कोई पता ही नहीं। अभिशप्तलक्ष्मी के भागी मत बनो। सम्पत्ति पाई है तो उसका लाभ लो। अपनी सम्पदा को अपने जीवन का वरदान बनाओ अभिशाप नहीं। जो अपनी सम्पदा को परमार्थ में लगाते हैं उनकी सम्पदा वरदान बन जाती है और जो सम्पत्ति को संग्रहित करके रख लेते हैं उनकी सम्पति अभिशाप बन जाती है। हमारे यहाँ परिग्रह को पाप कहा है। आपकी जेब में सौ का नोट पड़ा है; जब तक जेब में है तब तक क्या है? परिग्रह है। जेब में पड़ा सौ या दो हजार का नोट परिग्रह है, पैसा जब तक जेब मे पड़ा है तब तक परिग्रह है। परिग्रह क्या है? परिग्रह पाप है। अंदर से बोल रहे हो कि हमको बोलने के लिए बोल रहे हो? महाराज ! बोल नहीं रहे है, बोलना पड़ रहा है, मज़बूरी है सामने बैठे हैं। परिग्रह पाप है, कोई दो मत तो नहीं? अगर उसी पैसे को निकालकर मंदिर की गुल्लक में डाल दिया तो वही पैसा क्या हो गया? दान हो गया। समझ में आया? जोड़कर रखना पाप है और ध म में लगा देना पुण्य है। बस आपकी करैन्सी चैन्ज करने का यही उपाय है। यहाँ से उठाकर यहाँ डाल दो करैन्सी चैन्ज हो जाएगी। पाप को पुण्य में बदल डालने की क्षमता तुम्हारे पास है पर तुम लोग बड़े कजूस हो, पुण्य की बात करते हो और पाप से प्यार करते हो, ये गड़बड़ी है। इस गड़बड़ी से अपने आप को मुक्त कर लो। एक दिन तो दुनिया से जाना ही है।

 

दो धनपति के बेटे आपस में बात कर रहे थे। एक ने कहा मेरा पिता अपने पीछे दस करोड़ छोड़ गया दूसरे ने कहा मेरे पिता ने मरते समय बीस करोड़ छोड़े। दो भिखारी के बच्चे उनकी बात सुन रहे थे दोनों ने आपस में बात करते हुए कहा- दोनों उल्लू के पट्ठे हैं एक कह रहा है दस करोड़ छोड़ गया दूसरा कह रहा है बीस करोड़ छोड़ गया। 'ये दोनों उल्लू के पट्ठे हैं" ये बात दोनों सेठपुत्रों ने सुन ली, दोनों को बुरा लगा। उन्होंने भिखारी के बेटों से पूछा- ये क्या बोल रहे हो? बोले कुछ नहीं। कैसे कुछ नहीं, हम लोगों को उल्लू का पट्ठा बोला है। बोला- मैंनें कोई गलत नहीं बोला। बोले क्यों? तब बोले- आप में से एक कहता है कि मेरे पिता अपने पीछे दस करोड़ छोड़ कर गए और इनके पिता बीस करोड़ छोड़कर गए; अरे! हमको देखो, हमारे पिता तो अपने पीछे पूरी दुनिया छोड़कर गए हैं। दस-बीस करोड़ की बात तो मामूली है, पूरी दुनिया छोड़कर गए हैं। जीवन की ये सच्चाई जिस दिन समझ में आ जाएगी; उस दिन तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा। दुनिया छोड़कर जाना है, दस-बीस करोड़ तो बहुत मामूली सी बात है।

 

बंधुओं! आज मौका है करेंसी एक्सचैन्ज करने का। खुला ऑफर है अच्छी कमाई का। ऑफर का लाभ उठाकर भरपूर कमाओ और अपने जीवन को धन्य करो। अपनी सम्पत्ति परमार्थ के कार्य में लगाओ। जो लगाओगे वही तुम्हारा है बाकी तो सब व्यर्थ है।

 

जो दे सके

व्यर्थ को अर्थ।

वही सिद्ध,

वही समर्थ।

व्यर्थ को अर्थ दो तब तुम सिद्ध बनोगे, तब तुम समर्थ बनोगे अन्यथा सब ऐसे ही चला जाएगा। आज की तिथि में अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ दान सबको करना है। हर व्यक्ति को दान करना है चाहे एक बच्चा भी क्यों न हो अपनी पॉकिट मनी से कुछ न कुछ दान जरूर करे। आप सब बहुत ध्यान से इस बात को सुनें, इसे हल्केपन में न लें। ये जीवन के निर्माण का सूत्र है। सूत्र लीजिए संग्रह; अनुग्रह के लिए, परिग्रह: विग्रह के लिए। भाग्यलक्ष्मी के साथ पुण्यलक्ष्मी को बढ़ाना है। पापलक्ष्मी के रास्ते पर कतई नहीं जाना है। अभिशप्तलक्ष्मी के अधिकारी तो हमें कभी बनना ही नहीं ये बात ध्यान में रखना है।

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