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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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वज्र पाषाण हृदयी,  निर्मोही, निर्दयी, निष्ठुर, निर्मम, आचार्यश्री......


राजेश जैन भिलाई

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वज्र पाषाण हृदयी,  निर्मोही, निर्दयी, निष्ठुर, निर्मम, आचार्यश्री......

प्राणिमात्र के हितंकर, दयावन्त, श्रमणेश्वर,साक्षात समयसार, मूलाचार के प्रतिबिम्ब समस्त चर ,अचरो के प्रति आपकी दया, करुणा,  हम मानवों में ही नही स्वर्गों के इंद्रो देवताओं में भी जगजाहिर है आप अनुकम्पा के विशाल महासागर अथवा चारित्र के उत्तुंग हिमालय जाने जाते हो ऐसे में उपरोक्त शीर्षक में आपके प्रति कठोर सम्बोधन लिखते समय मेरी उंगलियां कांप रही है लेकिन मैं क्या करूं जो है, सो है...... मेरे आपके हम सबके सामने है।


भला कभी ऐसा होता है क्या..... जो पूज्यवर, यतिवर, गुरुदेव अपने दिव्यदेह के प्रति कर रहे है......
अक्सर कहा जाता है कि जो अपने प्रति सहयोग करे उसका ध्यान रखना चाहिये अपने अनुचर, सहयोगी, उपकारी पर भी करुणा करना चाहिए लेकिन पिछले इक्यावन वर्षो से आचार्यश्री अपनी दिव्यदेह के प्रति ज़रा से भी करुणावान, दयालु नही दिखते चाहे ग्रीष्मकाल में सूरजदादा 48 डिग्री तापमान पर भी कीर्तिमान गढ़ने ततपर हो वह आपके सामने पानी पानी हो जाता है | लेकिन आप अपने करपात्र में दूध, फल, मेवा तो बड़ी दूर की बात, कुछ ही अंजुली जल और कुछ गिने नीरस ग्रास का आहार उदर तल तक तो दूर कंठ से उदर तक ही नही पहुचता और आपके आहार सम्पन्न हो जाते है।


शीतकालीन तुषारी ठंड में भी आप अपनी दिव्यदेह को 3 से चार घण्टे विश्राम करने निष्ठुर पाटा ही देते हो। हम सभी पथरीले, हठीले, कटीले तपते विहार पथ में आपके कोमल कोमल लाल लाल, मृदुल पावन चरणयुगलो को छालों युक्त, रक्तरंजित देख चुके है और आप ऐसे निर्दयी है कि उनकी ओर नज़र तक नही उठाते और आज हम सबने देख और  सुन भी लिया कि पिछले दिनों से आपकी दिव्यदेह जर्जर हो चुकी है सप्ताह हो चुके दिव्यदेह के अस्वस्थ हुए और आपके निराहार के लेकिन आप तो ठहरे निर्मोही, अनियतविहारी, वीतरागी महासन्त आपको भला कोई रोक पाया है और वह बेचारा रोकने का विचार ही कैसे कर सकता है...... क्योंकि इन दिव्यदेहधारी ने अपनी दिव्यदेह के माता पिता भैया बहनों की नही मानी तो फिर  हम दूसरों की क्या बिसात....


हमने माना कि चौथेकाल में ऐसे ही श्रमण होते थे उस काल मे वज्र सहनन क्षमता भी होती थी लेकिन इस महा पंचमकाल में जर्जर, वार्धक्य, दिव्यदेह के संग आपकी यह साधना, तपस्या सन्देश दे रही है कि कुछ ही भवों में दिव्यदेह धारी आचार्यश्री तीर्थंकर बन समोशरण में विराजित होंगे ऐसे कालजयी महासन्त के पावन चरणयुगलो में हृदय, आत्मा की असीम गहराइयों से कोटि कोटि नमोस्तु....... हे गुरुदेव! मेरी भी सुबुद्धि जागे काश..... मैं भी आपके समोशरण बैठ अपना भी कल्याण कर सकू..... क्षमाभावी एक नन्हा सा गुरुचरण भक्त.....

राजेश जैन भिलाई

9 Comments


Recommended Comments

अतिसुन्दर शब्द चयन भैया

*गुरुजी के स्वास्थ्य के प्रति समूचा जैन समाज चिंतित है ।*
*निश्चिंत है तो बस एकमात्र आचार्यश्री !!!* 🙏🙏🙏

गुरुजी तो उनकी चर्या में लगे रहेंगे, कर्तव्य है हम सब श्रावकों का पूज्यवर की वैयावृत्ति करने का ।

*परोक्ष रूप में अपने अपने मंदिरो में घरों में भक्तामर एवम णमोकार का पाठ कर आचार्य भगवन की स्वास्थ्य मंगल कामना तो हम सब कर ही सकते है* 🙏🙏

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अनुपम बहुत सुदर शब्दो मे रचना की है भैया 👌🏻👌🏻👏🏻👏🏻 आचार्य श्री के पावन चरणों में कोटी कोटी नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

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भाई राजेश जी अद्भुत शब्द संयोजन, पूज्य श्री की अद्भुत अनुपम साधना को आपके शब्द मनोहारी ढंग से व्यक्त करते हैं. 

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प्रिय राजेश जी ,

धन्य हैं गुरुवर, और धन्य हैं हम सब, जो हमें आचार्य भगवन जैसे गुरुदेव मिले..

जिस भक्त की आत्मा में गुरुवर समायें हों, वो ही , अपने ह्रदय में गुरुदेव के प्रति उमड़ रहे भावों की इतनी सुंदर अभिव्यक्ति कर सकता है‍‍‌‍‌‍‍‌‍ /

गुरुदेव को शीघ्र अति -शीघ्र स्वास्थ्य लाभ हो ऐसी हम सभी की मंगल कामना है, गुरुदेव के पावन चरणों में मन वचन और काय से मेरा त्रय बार

कोटि कोटि नमोस्तु , नमोस्तु , नमोस्तु 

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On 1/11/2019 at 10:38 PM, anuyog jain said:

शीर्षक - कर्म निर्जरा करने की विधि

नमोस्तु आचार्य श्री 😊

व्यक्ति बढ़ता जितना 
अध्यात्म मार्ग में 
लगता बहुत दूर है 
मंज़िल अभी 
उसकी 
जितना चला 
लगता 
शुरूवात है ये 
उसकी ..
होता गुरु जिनके पास 
नहीं होने देता उसे 
ऐसा अहसास 
संबोधता 
बताकर उसे 
आगे का मार्ग 
कठिन डगर भी 
उसे सरल लगने लगती ...

नमोस्तु गुरुवर 
त्रियोग वंदन 
 

Edited by anil jain "rajdhani"
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मम गुरुवर ! आचार्यश्री 
मिले स्वास्थ्य लाभ उन्हें जल्दी !
इतनी ही प्रभु चरणों में करते विनती !!!
माना कि शरीर भिन्न - आत्मा भिन्न 
भिन्न उसे करने के लिए शरीर से 
जरुरत होती शरीर की ही 
उसी के सहयोग से 
होती आत्मा की सिद्धि ...
इसलिए !
देखभाल उसकी भी करना है जरुरी 
शरीर बना रहे स्वस्थ 
देता रहे साथ 
जब तक न हो जावे हमें 
कार्य की उपलब्धि 
उसके लिए जरुरी है देना उसको 
भोजन पानी 
यदि आ जाती उसमे कोई व्याधि 
जरुरी है उपचार उसका भी 
आहार भी सुपाच्य होता जभी 
जब निहार होता रहे नित्यप्रति 
उसके लिए विरेचक लेना 
ऋतू अनुसार है जरुरी 
दो चम्मच सौंफ और 
एक चम्मच अजवायन 
दो बड़ी इलायची 
इसका कूटकर बना हुआ योग 
आहार के अंत में गर्म दूध से लेने पर
होता लाभकारी 
यदि लिया जाए नित्यप्रति 
नहीं आएगी कभी 
निहार की व्याधि 
स्व परीक्षित योग है ये 
सुपाच्य बना रहता आहार ...
एक त्यागी की प्रकृति को जानकर 
खोजा था ये योग मैंने 
जो हुआ था प्राप्त 
गुरुवर आपकी ही कृपा से 
उपयोगी है यह 
सभी त्यागी व्रतियों के लिए ...
जानते हम सभी 
राम का नाम लिखने पर 
नहीं डूबी थी शिला जल में 
राम ने जो छोड़ी शिला 
डूब जाती थी वो जल में 
गुरुवर !
तारना है अभी तो बहुत 
भव्यों को तो तुम्हे 
स्व के लिए न सही 
पर के उपकार की खातिर 
तो जरुरी है आपको 
स्वास्थ्य लाभ मिले जल्दी 
जिसके लिए 
नित्यप्रति विरेचक भी है जरुरी ...
गुरुचरणों में त्रिकाल वंदन !
अनिल जैन "राजधानी"
श्रुत संवर्धक 
२४.१.२०१९

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राजेश जी, 
सुन्दर शब्द संयोजन 
गुरुदेव के चरणों में सुन्दर भावांजलि 
बधाई !
जय जिनेन्द्र 
 

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