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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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संवेदना - 54 वां स्वर्णिम संस्मरण


संयम स्वर्ण महोत्सव

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वीतरागी गुरुओं का जीवन दया और करुणा से भरा हुआ होता है। वह अपने दु:ख को सहन करने के लिए वज्र के समान कठोर हो जाते हैं, और दूसरे के दु:ख को देखकर नवनीत या मोम की तरह पिघल जाते है जब मेरे पैर में तकलीफ थी, तब आचार्य श्री जी कक्ष के सामने से देव वंदना के लिए निकले। कुछ 10-25 कदम आगे निकल गए, अचानक उन्हें कुछ याद आया, कि मुझे पैर में दर्द है। देव वंदना के पूर्व ही मेरे कक्ष में लौट कर आ गए।

मैंने नमोस्तु करते हुए कहा- "आचार्य श्री जी आप देव वंदना के बाद भी तो आ सकते थे, आप बीच से ही लौट आए?"
आचार्य श्री ने कहा- "हाँ! ठीक है।  यह भी तो जरूरी है। कैसी है तकलीफ?"

यह उनकी दया और अनुकंपा है, जिसे हम मात्र अनुभूत कर सकते हैं, शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। इससे गुरु से हमें यह शिक्षा मिलती है, कि मंदिर जाने से पहले किसी को दु:ख है, तो उसमें संवेदना व्यक्त करनी चाहिए। दया-अनुकंपा सबसे जरुरी है। आचार्य श्री जी ने लिखा भी है। पर की पीड़ा हमारी करुणा की परीक्षा लेती दूसरे के दुख को दूर करने के भाव करना भी उपाय विचय धर्म ध्यान माना जाता है। 

गुरुवर का दिल दु:ख गया, देख पराई पीर।
दयोदय का उद्भव हुआ, तिलवारा के तीर।।

पूज्य मुनि श्री कुंथु सागर जी महाराज द्वारा लिखित "संस्मरण" पुस्तक से।

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