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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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परीषय-विजय - संस्मरण क्रमांक 53


संयम स्वर्ण महोत्सव

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  ??????????    ☀☀ संस्मरण क्रमांक 53☀☀
   ? परीषय-विजय ? 

आचार्य महाराज का उन दिनों बुन्देलखंड में प्रवेश हुआ था।उनकी निर्दोष मुनि-चर्या और अध्यात्म का सुलझा हुआ ज्ञान देखकर सभी प्रभावित हुए।कटनी में आए कुछ ही दिन हुए थे कि महाराज को तीव्र ज्वर हो गया। प.जगन्मोहनलाल जी की देखरेख में उपचार होने लगा।सतना से आकर नीरज जी भी सेवा में संलग्न थे।एक दिन मच्छरों की बहुलता देखकर पंडित जी ने रात्रि के समय महाराज के चारों ओर पूरे कमरे में मच्छरदानी लगवा दी।

सुबह जब महाराज ने मौन खोला तो कहा कि- यह सब क्या किया ? पंडित जी!ने तो पहले ही सोच लिया था,सो बोले कि-  "महाराज ! आप तो शरीर के प्रति निर्मोही हो,उपचार भी नहीं करने देते।पर क्या करें,ज्वर के कीटाणुओं से आपका शरीर इतना विषाक्त हो गया है कि आपको काटने वाले मच्छरों को पीड़ा होती है।उन बेचारों की सुरक्षा के लिए यह उपाय करना पड़ा।"

आचार्य महाराज अस्वस्थता के बावजूद भी खूब हँसे।कहने लगे कि- "पंडित जी ! संसारी प्राणी अपने शरीर के प्रति अनुरागवश ऐसे ही तर्क देकर उसकी सुरक्षा में लगा है और निरन्तर दुखी है।मोक्षार्थी के लिए ऐसी शिथिलता से बचना चाहिए और परिषह-जय के लिए तत्पर रहना चाहिए।कर्म-निर्जरा तभी संभव होगी।" 

पंडित जी क्या कहते ? विनत भाव से आगम के अनुरूप आचरण करने वाले,परीषह-विजयी, शिथिलताओं से दूर और कर्म-निर्जरा में तत्पर आचार्य महाराज के चरणों में झुक गए और सदा के लिए उनके भक्त हो गए।

✏पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी महाराज का अपने गुरु आचार्यश्री विद्यासागर जी के प्रति अनूठा समर्पण था। उनका जीवन मानों अपने गुरु की ही धारा में बहता था. साये की तरह आचार्य श्री के पदचिन्हों पर चलते समय उनके जीवन से जुड़े अनेक संस्मरणों को मुनिश्री ने अपनी पुस्तक 'आत्मान्वेषी' में संकलित किया | उक्त संस्मरण 'आत्मान्वेषी' से ही लिया गया है |
        (कटनी 1976)
? आत्मान्वेषी पुस्तक से साभार ?
✍ मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज

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