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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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पक्ष व्यामोह - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍४

पक्ष व्यामोह, लौह पुरुष के भी, लहू चूसता।   भावार्थ-मोह को संसार परिभ्रमण या सम्पूर्ण दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है। श्री जिनेन्द्र भगवान् ने सुख - प्राप्ति के लिए मोह का विनाश करने को सर्वोत्तम तप बताया है। अरिहंतों की पूज्यता और सिद्धों का पद तथा आचार्यों, उपाध्यायों एवं साधुओं की गुरुता मोह के विनाश का फल है और शाश्वत एवं स्वाश्रित सुख का बीज है। पक्षपात से मोह (व्यामोह) का विकास होता है । आपसी सम्बन्धों में अविश्वास पैदा होता है । भव - भवान्तर में दुःख देने वाले कर्मों

गुणालय में - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍३

गुणालय में, एकाध दोष कभी, तिल सा लगे।   भावार्थ-तिल बेदाग होता है। गोरा मुख है और एक गाल पर काला तिल है तो वह सुन्दर नहीं लगता । उसीप्रकार गुणों का खजाना भरा है परन्तु द्वेष भाव विद्यमान है तो वह सर्वांग सुन्दर शरीर में तिल के समान है। श्रामण्य में थोड़ा-सा दोष क्षम्य है लेकिन भूमिका के अनुरूप उसका भी उन्मूलन होना चाहिए ।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है।

साधु वृक्ष है - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍२

साधु वृक्ष है, छाया फल प्रदाता, जो धूप खाता।   भावार्थ–साधु फलदार वृक्ष के समान होते हैं। जैसे वृक्ष सर्दी, गर्मी आदि प्रतिकूलताओं को चुपचाप सहकर भी पथिकों को छाया एवं स्वादिष्ट रसीले फल प्रदान करता है । उसीप्रकार साधु आतापनादि योग धारण कर जो धूप पीठ पर सहते हैं, मैं उन वृक्षों की छाया हूँ । व्रतों का पालन करते हुए अंतरंग - बहिरंग अनेक प्रकार के तपों को समता और आनंद के साथ तपता है। ऐसे अनुभाग के साथ तप करते हुए ऐसा आभा मण्डल निर्मित होता है, जो उसका रक्षा कवच होता है। ऐसा साध

तीर्थंकर क्यों - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍१‍

तीर्थंकर क्यों, आदेश नहीं देते, सो ज्ञात हुआ।   भावार्थ-दीक्षा लेते ही तीर्थंकर भगवान् मौन हो जाते हैं क्योंकि पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) का अभाव होने से असत्य का प्रतिपादन हो जाने की संभावना रहती है । इसी कारण वे किसी को आदेश नहीं देते और केवलज्ञान हो जाने के बाद भी बोलने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि दिव्य देशना के माध्यम से वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन स्वयं ही हो जाता है । - आर्यिका अकंपमति जी  हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति म

आज्ञा का देना - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍०

आज्ञा का देना, आज्ञा पालन से है, कठिनतम।   भावार्थ -आज्ञापालन की अपेक्षा आज्ञा देना ज्यादा कठिनतम, गुरुत्तम और विशिष्ट कार्य हैं क्योंकि आज्ञा देने वाला क्रिया तो कुछ नहीं करता लेकिन इस क्रिया के परिणाम का उत्तरदायी होता है । उस क्रिया के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले हानि-लाभ और जय-पराजय से उसका सीधा सम्बन्ध होता है। कभी-कभी आज्ञा देने वाले के सम्पूर्ण जीवन में उसका परिणाम परिलक्षित होता है । अत: आज्ञा देने की योग्यता कुछ विरले ही व्यक्तियों में होती है ।  आज्ञापालन करने व

मैं निर्दोषी हूँ - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ९

मैं निर्दोषी हूँ, प्रभु ने देखा वैसा, किया करता।   हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम

चाँद को देखूँ - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ८

चाँद को देखूँ, परिवार से घिरा, सूर्य सन्त है |   भावार्थ- सौरमण्डल में देखते हैं तो चन्द्रमा इन्द्र है और अपने परिवार यानि अन्य ग्रह, नक्षत्र, तारों से घिरा रहता है लेकिन सूर्य दिन में आकाश में अकेले ही दैदीप्यमान होता है । उसी प्रकार संत-साधु निस्संग, एकाकी ही विचरण करते हैं, गृहस्थ परिवार जनों से घिरे रहते हैं ।  संस्मरण-आचार्य श्री से किसी ने कहा कि आप इतने विशाल संघ के नायक हैं। तब आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि हम नायक नहीं, ज्ञायक हैं । - आर्यिका अकंपमति जी 

तेरी दो आँखें - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ७

तेरी दो आँखें, तेरी ओर हज़ार, सतर्क हो जा |   भावार्थ - लौकिक शिक्षा के साथ पारलौकिक सुख की प्राप्ति का उपाय बताते हुए आचार्य महाराज कह रहे हैं कि हे प्राणी ! जगत् की परीक्षा अथवा समीक्षा या आलोचना करने के लिए तेरे पास केवल दो आँखें हैं लेकिन तेरी परीक्षा या समीक्षा या आलोचना की दृष्टि से जगत् में हजारों आँखें तेरी ओर देख रही हैं इसलिए सर्वजन हिताय की भावना से और कर्मबंध से बचने के लिए कायिक और वाचनिक क्रियाओं में सावधानी रखते हुए मानसिक विचारों से भी बचें।  - आर्यिका अ

किसी वेग में - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ६

किसी वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक हैं |   भावार्थ - जम्हाई, नींद, छींक, खाँसी आदि सामान्य वेगों में महायोगियों को छोड़कर शेष संसारी प्राणी असहाय या परवश हो जाते हैं। इन वेगों में पढ़े लिखे हों या अनपढ़ सभी समान हैं । यहाँ मोक्षमार्ग का प्रसंग होने से वेग शब्द का अर्थ कर्म बंध कराने वाले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आदि वेगों को समाहित किया जा रहा है अर्थात् पुस्तकीय ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति हो या अनपढ़ दोनों के ही मिथ्यात्व आदि वेगों में कोई अंतर नहीं है । वैराग्य भ

द्वेष से बचो - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ५

द्वेष से बचो, लवण दूर् रहे, दूध न फटे |   भावार्थ- जिस प्रकार लवण अर्थात् नमक के सम्बन्ध से दूध विकृत हो जाता है उसी प्रकार द्वेष करने से जीव विकृत-सारहीन और दुःखमय हो जाता है क्योंकि द्वेष करने से इस लोक में मधुर सम्बन्ध भी कड़वे हो जाते हैं। मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। यहाँ तक कि अपने भी पराये हो जाते हैं तथा द्वेष करने वाला पाप कर्म का बंध करता है अतः परलोक में भी दुःखी रहता है  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, द

छोटी दुनिया - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ४

छोटी दुनिया, काया में सुख दुःख, मोक्ष नरक |   भावार्थ - जिसकी दृष्टि में दुनिया बहुत छोटी है और जो दुनिया में रहकर भी बहुत छोटा है अर्थात् अपनी आत्मा में स्थित होकर उसने अपनी दुनिया को समेट लिया है तो उसे शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त हो जायेगा । आत्मा से बढ़कर कुछ नहीं है । शेष सब पदार्थ मूल्यहीन हैं, ऐसा मानकर जो जीर्ण- शीर्ण तिनके के समान पर पदार्थों का त्याग कर देता है, वह मोक्ष का पात्र होता है किन्तु जो दुनिया को अपने पैरों की धूल समझकर अपने को ही सब कुछ मानता है तो वह नरक जात

ज्ञान प्राण है - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ३

ज्ञान प्राण है, संयत हो त्राण है, अन्यथा श्वान|   भावार्थ - ज्ञान जीव का त्रैकालिक लक्षण है। कर्म योग से सांसारिक दशा में वह ज्ञान सम्यक् और मिथ्या, दोनों प्रकार का हो सकता है सम्यग्ज्ञान भी व्रती और अव्रती के भेद से दो प्रकार का होता है। आचार्य भगवन् ने यहाँ संयमी जीव के ज्ञान के विषय में कहा है कि संयमी का सम्यग्ज्ञान संसार-सागर से पार लगा देता है लेकिन मिथ्यादृष्टि का ज्ञान श्वान अर्थात् कुत्ते के समान पर पदार्थों का रसास्वाद लेते हुए व्यर्थ हो जाता है और जीव को चौरासी लाख

संदेह होगा - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २

संदेह होगा, देह है तो, देहाती ! विदेह हो जा |   भावार्थ - देह का अर्थ शरीर है और केवली भगवान् ने औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण; ये पाँच प्रकार के शरीर बताये हैं जो संसार भ्रमण के मुख्य कारण हैं । पौद्गलिक और पर-रूप शरीर में अपनत्व मानकर जीव स्वयं के वास्तविक स्वभाव को भूल जाता है । उसे अपने सत्यार्थ स्वरूप पर भी संदेह होने लगता है । अतः वह शरीरगत अनेक प्रपंचों में फँसकर गहनतम दुःखों से जूझता है । ऐसी देह में निवास करने वाले देहवान आत्मा को आचार्य देहाती का सम्बोधन

जुड़ो ना जोड़ो - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍

जुड़ो ना जोड़ो, जोड़ा छोड़ो जोड़ो तो, बेजोड़ जोड़ो। भावार्थ आचार्य भगवन् का यह सूत्र पूर्णतः आध्यात्मिकता से जुड़ा हुआ है । यहाँ जुड़ो और जोड़ो से तात्पर्य अपनी आत्मा के अतिरिक्त सम्पूर्ण जड़-चेतन पदार्थों से मन-वचन-काय पूर्वक पूर्ण या आंशिक सम्बन्ध स्थापित करना है । अतः संसारी प्राणी सुख चाहता है तो उसे मन- वचन-काय से चेतन परिग्रह एवं जड़-पदार्थ, धन-सम्पदा आदि से अपनत्व भाव नहीं रखना चाहिए। अज्ञान दशा में जिन जड़-चेतन पदार्थों से ममत्व भाव रखकर सम्बन्ध स्थापित किया था, उसे पूर्
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