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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
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डूबना ध्यान - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ३०

डूबना ध्यान, तैरना स्वाध्याय है, अब तो डूबो। भावार्थ-ध्यान में डूबना होता है और स्वाध्याय तैरने के समान है। स्वाध्याय में प्रवृत्ति है और ध्यान में निर्वृत्ति । रत्नाकर में स्थित रत्नों को गोताखोर ही प्राप्त कर सकते हैं इसलिए अपने आत्मा में डूबो और अनंत चतुष्टय रूप रत्नों की उपलब्धि करो । आचार्य महाराज ने लिखा है- डूबो मत, लगाओ डुबकी।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्

कछुवे सम - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २९

कछुवे सम, इन्द्रिय संयम से, आत्म रक्षा हो।   भावार्थ - जिस प्रकार कछुवा संकट आने पर अपने अंगोपांग को संकुचित कर अपना जीवन सुरक्षित करता है । उसी प्रकार से देशव्रती और महाव्रती इन्द्रिय विषयों का त्याग करके अपनी आत्मा की रक्षा कर लेते हैं । - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्व

वर्षा के बाद - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २८

वर्षा के बाद, कड़ी मिट्टी सी माँ हो, दोषी पुत्र पे।   भावार्थ - जैसे खेत की सूखी मिट्टी वर्षा होने के बाद पुनः मृदु होकर एक समान हो जाती है । उसीप्रकार माँ पुत्र को अनुशासित करने के लिए दण्डित भी करती है परन्तु कुछ देर पश्चात् पुनः मातृत्व से भरकर मृदु हो जाती है।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।

तैराक बना - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २७

तैराक बना, बनूँ गोताखोर सो, अपूर्व दिखे।   भावार्थ-समुद्र के पानी की सतह पर तैरते रहने से रत्नों की प्राप्ति नहीं होती। नीचे गहरे पानी में गोता लगाने से ही वे रत्न मिल सकेंगे जो आज तक तैरने मात्र से नहीं मिल पाये । उसीप्रकार पर पदार्थों का ध्यान करने से कभी भी आत्म तत्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकेगी। उस अपूर्व (जो आज तक प्राप्त नहीं हुआ) रत्नत्रय रूप आत्म तत्त्व की प्राप्ति करना है तो आत्मा के ज्ञान दर्शन आदि अनंत गुणों के समुद्र में गोता लगाना ही पड़ेगा ।  - आर्यिका अकंपम

ज्ञेय चिपके - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २६

ज्ञेय चिपके, ज्ञान चिपकाता सो, स्मृति हो आती।   भावार्थ - आत्मा ज्ञान गुण के द्वारा जानता है । आत्म द्रव्य ज्ञायक पिण्ड है। ज्ञान में अनन्त ज्ञेय आते हैं । ज्ञान, ज्ञान रूप परिणमन करता है अर्थात् ज्ञेय ज्ञान में आता तो है पर वे स्वयं चिपकते नहीं बल्कि आत्मा का जाननहारा ज्ञान गुण उन्हें चिपकाता है । उन (जानने योग्य) ज्ञेय पदार्थों को जानते हुए यदि स्मृति में लाकर हम उनमें राग द्वेष करते हैं तो वे अनन्तकालीन संसार की यात्रा हमें करा देते हैं क्योंकि ज्ञान गुण जबरदस्ती आत्मा को

ध्वजा वायु से - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २५

ध्वजा वायु से, लहराता पै वायु, आगे न आती।   भावार्थ - जिस प्रकार ध्वजा के लहराने में मुख्य सहायक निमित्त वायु का वेग ही है लेकिन वायु कभी भी आगे आकर अपने अस्तित्व का प्रदर्शन नहीं करती। इसी प्रकार सच्चे गुरुदेव, माता, पिता और हितैषी मित्रगण क्रमशः अपने शिष्य को, अपने पुत्र को और अपने मित्र को उसके विकास में बिना किसी प्रदर्शन का कर्त्तत्व भाव से सहयोग करते हैं ।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति मे

मद का तेल - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २४

मद का तेल, जल चुका सो बुझा, विस्मय दीप।   भावार्थ- जब कोई व्यक्ति नई अनोखी वस्तु या स्थिति को पहली बार देखता है तो उसे मोह के सद्भाव में आश्चर्य अथवा विस्मय होता है लेकिन जो केवलज्ञानी, सर्वज्ञ होते हैं उनके मोहनीय कर्म का पूर्ण अभाव हो जाने से उनके निर्मल ज्ञान में तो सम्पूर्ण चराचर पदार्थ और उनकी त्रैकालिक सभी पर्याएँ स्पष्ट झलकती हैं । अतः उन्हें विस्मय नहीं होता । जिसप्रकार दीपक का तेल समाप्त होने पर दीपक बुझ जाता है उसीप्रकार मद-मोह रूपी तेल के समाप्त होने पर मोहनीय कर्म

सामायिक में - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २३

सामायिक में, कुछ न करने की, स्थिति होती है।   भावार्थ - सामायिक के काल में कुछ करना नहीं होता बल्कि मन, वचन, काय की एकाग्रता से शांत बैठना होता है। - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते

इष्ट-सिद्धि में - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २२

इष्ट-सिद्धि में, अनिष्ट से बचना, दुष्टता नहीं।   भावार्थ - किसी भी कार्य की सिद्धि में बाधक कारणों का अभाव एवं साधक कारणों का सद्भाव आवश्यक है इसलिए अपने इष्ट कार्य की सिद्धि में अनिष्ट कार्यों से बचना अनुचित नहीं है। गाँधीजी के तीन बंदर अनिष्ट से बचने का ही संकेत कर रहे हैं ।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट कर

आँखें लाल है - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २१‍

आँखें लाल है, मन अन्दर कौन, दोनों में दोषी ?   भावार्थ - आँखों का लाल होना क्रोध करने का प्रतीक है लेकिन मजेदार बात यह है कि आँखों को तो क्रोध आता नहीं। क्रोध तो मन का विकार है पर मन लाल नहीं होता । वस्तुतः सर्वप्रथम द्वेष के सद्भाव से मन में क्रोध का संचार होता है तत्पश्चात् उसके प्रभाव से आँखों में लालिमा प्रकट होती है । यदि मन में क्रोध न हो तो आँखें लाल कैसे होंगी? अतः इससे स्वयमेव स्पष्ट हो जाता है कि आँखों के लाल होने का मुख्य कारण आँखें नहीं हैं बल्कि मन का विकार है ।

कलि न खिली - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू २०

कलि न खिली, अंगुली से समझो, योग्यता क्या है ?   भावार्थ - बार-बार अँगुली के स्पर्श करने से कली नहीं खिलती तो योग्यता क्या है - यह समझो। सशक्त निमित्तों के मिलने पर भी कार्य सम्पन्न नहीं होता तो सोचो कि उपादान की योग्यता अभी जागृत नहीं हुई है।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायकू

प्रभु ने मुझे - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍९

प्रभु ने मुझे, जाना माना परन्तु, अपनाया ना।   भावार्थ- सर्वज्ञत्व को प्राप्त करने पर भगवान् को चराचर पदार्थों को देखने और जानने की शक्ति प्राप्त हो जाती है लेकिन वे उन पदार्थों पर आसक्त नहीं होते। भगवान् ने मुझे अपने दिव्य ज्ञान से देखा भी है, जाना भी है परन्तु अपनाया नहीं क्योंकि वे मोह से पूर्णतः मुक्त हैं जबकि अपनाना मोहनीय कर्म के प्रभाव से ही संभव होता है ।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति मे

परिचित भी - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍८

परिचित भी, अपरिचित लगे, स्वस्थ्य ध्यान में (बस हो गया)।   भावार्थ - आत्मा में स्थित ध्यानस्थ-साधक शुद्ध आत्म रस में निमग्न होता है । उस समय उसकी परम वीतरागी अवस्था होती है । वह राग-द्वेष, अपने-पराये आदि के भेद रूप प्रपञ्च से सर्वथा मुक्त रहता है । अतः उसे परिचित व अपरिचित सभी एक समान प्रतीत होते हैं ।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्

टिमटिमाते - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍७

टिमटिमाते, दीपक को भी देख, रात भा जाती।   भावार्थ - जिस प्रकार सघन अंधकारमय पूर्ण रात्रि किसी को भी सुहावनी नहीं लगती। कई व्यक्ति तो अंधकार देखकर भयभीत भी हो जाते हैं, पर उन्हें दिन के प्रकाश में किसी प्रकार का भय नहीं लगता है । यद्यपि रात्रि काल में सूर्य तो नहीं उगाया जा सकता है तथापि उस व्यक्ति को छोटे से दीपक का प्रकाश भी भय मुक्त कर देता है । उसी प्रकार भटकते हुये व्यक्ति को थोड़ा-सा ज्ञान, भयभीत व्यक्ति को थोड़ी-सी हिम्मत और दुःखी, दरिद्र, रोगी, गिरते हुये व्यक्ति को थो

भूख मिटी है - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍६

भूख मिटी है, बहुत भूख लगी, पर्याप्त रहें।   भावार्थ - भूख लगना उत्तम स्वास्थ्य की निशानी है यदि अत्यधिक भूख लगी है तो इसका मतलब यह नहीं है कि भरपूर मात्रा में खा लिया जाये। जितना भोजन करने से भूख मिट जाती है उतना खाना ही पर्याप्त है । ज्यादा खाना अस्वस्थता को निमंत्रण देना है । हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।   आओ करे हायक

पूर्ण पथ लो - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍५

पूर्ण पथ लो, पाप को पीठ दे दो, वृत्ति सुखी हो।   भावार्थ- आचार्य महाराज सुखी होने का सहज उपाय बताते हुए कहते हैं कि संसारी प्राणियों के हिंसा आदि पाँच पापों का त्याग करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय अर्थात् मोक्ष के मार्ग का अवलम्बन लो, तभी शाश्वत सुख प्राप्त कर सकोगे ।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित ब

पक्ष व्यामोह - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍४

पक्ष व्यामोह, लौह पुरुष के भी, लहू चूसता।   भावार्थ-मोह को संसार परिभ्रमण या सम्पूर्ण दुःखों का मुख्य कारण कहा गया है। श्री जिनेन्द्र भगवान् ने सुख - प्राप्ति के लिए मोह का विनाश करने को सर्वोत्तम तप बताया है। अरिहंतों की पूज्यता और सिद्धों का पद तथा आचार्यों, उपाध्यायों एवं साधुओं की गुरुता मोह के विनाश का फल है और शाश्वत एवं स्वाश्रित सुख का बीज है। पक्षपात से मोह (व्यामोह) का विकास होता है । आपसी सम्बन्धों में अविश्वास पैदा होता है । भव - भवान्तर में दुःख देने वाले कर्मों

गुणालय में - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍३

गुणालय में, एकाध दोष कभी, तिल सा लगे।   भावार्थ-तिल बेदाग होता है। गोरा मुख है और एक गाल पर काला तिल है तो वह सुन्दर नहीं लगता । उसीप्रकार गुणों का खजाना भरा है परन्तु द्वेष भाव विद्यमान है तो वह सर्वांग सुन्दर शरीर में तिल के समान है। श्रामण्य में थोड़ा-सा दोष क्षम्य है लेकिन भूमिका के अनुरूप उसका भी उन्मूलन होना चाहिए ।  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है।

साधु वृक्ष है - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍२

साधु वृक्ष है, छाया फल प्रदाता, जो धूप खाता।   भावार्थ–साधु फलदार वृक्ष के समान होते हैं। जैसे वृक्ष सर्दी, गर्मी आदि प्रतिकूलताओं को चुपचाप सहकर भी पथिकों को छाया एवं स्वादिष्ट रसीले फल प्रदान करता है । उसीप्रकार साधु आतापनादि योग धारण कर जो धूप पीठ पर सहते हैं, मैं उन वृक्षों की छाया हूँ । व्रतों का पालन करते हुए अंतरंग - बहिरंग अनेक प्रकार के तपों को समता और आनंद के साथ तपता है। ऐसे अनुभाग के साथ तप करते हुए ऐसा आभा मण्डल निर्मित होता है, जो उसका रक्षा कवच होता है। ऐसा साध

तीर्थंकर क्यों - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍१‍

तीर्थंकर क्यों, आदेश नहीं देते, सो ज्ञात हुआ।   भावार्थ-दीक्षा लेते ही तीर्थंकर भगवान् मौन हो जाते हैं क्योंकि पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) का अभाव होने से असत्य का प्रतिपादन हो जाने की संभावना रहती है । इसी कारण वे किसी को आदेश नहीं देते और केवलज्ञान हो जाने के बाद भी बोलने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि दिव्य देशना के माध्यम से वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन स्वयं ही हो जाता है । - आर्यिका अकंपमति जी  हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति म

आज्ञा का देना - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू १‍०

आज्ञा का देना, आज्ञा पालन से है, कठिनतम।   भावार्थ -आज्ञापालन की अपेक्षा आज्ञा देना ज्यादा कठिनतम, गुरुत्तम और विशिष्ट कार्य हैं क्योंकि आज्ञा देने वाला क्रिया तो कुछ नहीं करता लेकिन इस क्रिया के परिणाम का उत्तरदायी होता है । उस क्रिया के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले हानि-लाभ और जय-पराजय से उसका सीधा सम्बन्ध होता है। कभी-कभी आज्ञा देने वाले के सम्पूर्ण जीवन में उसका परिणाम परिलक्षित होता है । अत: आज्ञा देने की योग्यता कुछ विरले ही व्यक्तियों में होती है ।  आज्ञापालन करने व

चाँद को देखूँ - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ८

चाँद को देखूँ, परिवार से घिरा, सूर्य सन्त है |   भावार्थ- सौरमण्डल में देखते हैं तो चन्द्रमा इन्द्र है और अपने परिवार यानि अन्य ग्रह, नक्षत्र, तारों से घिरा रहता है लेकिन सूर्य दिन में आकाश में अकेले ही दैदीप्यमान होता है । उसी प्रकार संत-साधु निस्संग, एकाकी ही विचरण करते हैं, गृहस्थ परिवार जनों से घिरे रहते हैं ।  संस्मरण-आचार्य श्री से किसी ने कहा कि आप इतने विशाल संघ के नायक हैं। तब आचार्यश्री ने उत्तर दिया कि हम नायक नहीं, ज्ञायक हैं । - आर्यिका अकंपमति जी 

तेरी दो आँखें - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ७

तेरी दो आँखें, तेरी ओर हज़ार, सतर्क हो जा |   भावार्थ - लौकिक शिक्षा के साथ पारलौकिक सुख की प्राप्ति का उपाय बताते हुए आचार्य महाराज कह रहे हैं कि हे प्राणी ! जगत् की परीक्षा अथवा समीक्षा या आलोचना करने के लिए तेरे पास केवल दो आँखें हैं लेकिन तेरी परीक्षा या समीक्षा या आलोचना की दृष्टि से जगत् में हजारों आँखें तेरी ओर देख रही हैं इसलिए सर्वजन हिताय की भावना से और कर्मबंध से बचने के लिए कायिक और वाचनिक क्रियाओं में सावधानी रखते हुए मानसिक विचारों से भी बचें।  - आर्यिका अ

किसी वेग में - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ६

किसी वेग में, अपढ़ हो या पढ़े, सब एक हैं |   भावार्थ - जम्हाई, नींद, छींक, खाँसी आदि सामान्य वेगों में महायोगियों को छोड़कर शेष संसारी प्राणी असहाय या परवश हो जाते हैं। इन वेगों में पढ़े लिखे हों या अनपढ़ सभी समान हैं । यहाँ मोक्षमार्ग का प्रसंग होने से वेग शब्द का अर्थ कर्म बंध कराने वाले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग आदि वेगों को समाहित किया जा रहा है अर्थात् पुस्तकीय ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति हो या अनपढ़ दोनों के ही मिथ्यात्व आदि वेगों में कोई अंतर नहीं है । वैराग्य भ

द्वेष से बचो - आचार्य विद्यासागर जी द्वारा रचित हायकू ५

द्वेष से बचो, लवण दूर् रहे, दूध न फटे |   भावार्थ- जिस प्रकार लवण अर्थात् नमक के सम्बन्ध से दूध विकृत हो जाता है उसी प्रकार द्वेष करने से जीव विकृत-सारहीन और दुःखमय हो जाता है क्योंकि द्वेष करने से इस लोक में मधुर सम्बन्ध भी कड़वे हो जाते हैं। मित्र भी शत्रु बन जाते हैं। यहाँ तक कि अपने भी पराये हो जाते हैं तथा द्वेष करने वाला पाप कर्म का बंध करता है अतः परलोक में भी दुःखी रहता है  - आर्यिका अकंपमति जी    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, द
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